नोबल कथा-3
अभिजीत बनर्जी सहित तीन लोगों को अर्थशास्त्र का नोबल सम्मान मिलने के 24 घंटे भी नहीं बीते होंगे कि, उन्हें जिस ‘प्रयोग’ के आधार पर सम्मान के लिए चुना गया, उस ‘प्रयोग’ को लेकर अलग-अलग राय सामने आने लगी थी। कई विशेषज्ञों ने उस प्रयोग के तरीके से लेकर उसके परिणामों की सफलता तक को लेकर सवाल उठाए। कहा गया कि इस तरह का प्रयोग किसी शोध या अकादमिक काम के लिए तो आधार बन सकता है लेकिन जरूरी नहीं वह किसी नीति को बनाने का भी ठोस आधार बने और यदि उस आधार पर कोई नीति बन भी गई तो इसमें संदेह है कि वह उद्देश्य में सफल हो।
तो पहले यह जान लेना जरूरी है कि आखिर अभिजीत बनर्जी और उनके सह-सम्मानितों का वह प्रयोग कौनसा था जिसे नोबल की जूरी ने सम्मान के लायक समझा। दरअसल अभिजीत की मान्यता है कि “ग़रीबी को लेकर बातें बहुत होती हैं और जब भी ऐसी बात होती है हमेशा बड़े और बुनियादी सवाल उठाए जाते है, जैसे गरीबी का मूल कारण क्या है, क्या किसी तरह के अनुदान से गरीबी हटाई जा सकती है, और गरीबी हटाने में सरकारी व गैर सरकारी संगठनों की क्या भूमिका होनी चाहिए आदि। ऐसा करने से गरीबी का मुद्दा सुलझने के बजाय और उलझ जाता है। जबकि जरूरत इस बात की है कि गरीबी के मसले को सुलझाने के लिए उसे छोटे छोटे टुकड़ों और दायरों में बांटकर देखा जाए।
इसी अवधारणा को केंद्र में रखकर अभिजीत और उनके सहयोगियों ने आरंभिक तौर पर भारत और कीनिया में शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण से जुड़े छोटे छोटे कई प्रयोग किए और बाद में इन प्रयोगों को दुनिया के और देशों में भी अलग अलग तरीके से अपनाकर जांचा परखा गया। जैसे राजस्थान के उदयपुर जिले में एक प्रयोग किया। यह प्रयोग बच्चों में टीकाकरण को लेकर था। गरीबी के कारणों का पता लगाने के लिए की गई आरंभिक पड़ताल में पाया गया कि राजस्थान में संपूर्ण टीकाकरण कराने वाले बच्चों की संख्या बहुत कम है। इसके दूरगामी दुष्परिणाम गरीबी को बढ़ाने का काम कर रहे हैं।
नोबेल समिति की वेबसाइट पर एक ग्राफ़िक प्रकाशित किया गया है जिसमें बनर्जी और उनके सहयोगियों द्वारा किए गए प्रयोग को समझाया गया है। यह प्रयोग बताता है कि कैसे दाल जैसी मामूली चीज के इस्तेमाल ने टीकाकरण अभियान को सफल बनाया। बच्चों में टीकाकरण कम होने की वजह यह बताई गई थी कि टीका लगाने का काम करने वाले कर्मचारी लक्षित बच्चों तक पहुंच नहीं बना पा रहे हैं।
दिक्कत यह थी कि टीका लगवाने के लिए बच्चों के माता-पिता को दूर तक चलकर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र आना पड़ता था। कई बार ऐसा भी होता कि या तो स्वास्थ्य केंद्र में टीका खत्म हो जाता, या फिर लगाने वाले कर्मचारी नहीं होते या कई बार लाइन बहुत लंबी होती। परेशान होकर लोग बिना टीका लगवाए बच्चों को घर ले आते। इस प्रक्रिया में माता-पिता का पूरा दिन बरबाद हो जाता और उनकी एक दिन की दिहाड़ी मारी जाती। चूंकि परिवार का पेट भरने के लिए दिहाड़ी ज्यादा जरूरी थी इसलिए वे टीके को उतना महत्व नहीं देते थे।
इस समस्या को हल करने के लिए इन अर्थशास्त्रियों ने एक तरकीब सोची। उन्होंने एक स्वयंसेवी संस्था की मदद से 120 गांवों को लॉटरी के जरिये चुना। यहां पूर्ण टीकाकरण वाले बच्चों की संख्या पांच फीसदी से भी कम थी। इन गांवों को तीन अलग अलग समूहों में बांटा गया। पहले समूह के गांव वालों से कहा गया कि वे स्वास्थ्य केंद्र में आकर बच्चों को टीके लगवाएं। दूसरे समूह के गांवों में टीका लगाने वाले कर्मचारी लोगों के घर तक पहुंचे। तीसरा समूह वह था जहां मोबाइल क्लीनिक के साथ टीका कर्मचारी लोगों के घर तो पहुंचे ही, साथ ही बच्चों को टीका लगवाने वाले लोगों को प्रोत्साहन के रूप में एक किलो दाल भी दी गई।
जब तीनों समूहों का परिणाम देखा गया तो पाया गया कि जिन गांवों में प्रोत्साहन के रूप में एक किलो दाल दी गई थी वहां पूर्ण टीकाकरण वाले बच्चों की संख्या पांच फीसदी से बढ़कर 39 फीसदी तक पहुंच गई थी। जबकि जिन गांव वालों को टीके के लिए अस्पताल बुलवाया गया था, वहां यह दर 6 फीसदी और जहां टीका कर्मचारियों ने खुद घर पर जाकर टीका लगाया वहां यह दर 18 फीसदी रही। इतना ही नहीं प्रयोगकर्ताओं ने यह भी दावा किया कि जिन गांवों में कर्मचारियों ने घर घर जाकर टीके लगाए वहां टीके की कीमत औसत 56 डॉलर प्रति टीकाकरण (प्रचलित मूल्य के अनुसार करीब 3920 रुपये) आई जबकि एक किलो दाल दिए जाने वाले गांवों में यह लागत 28 डॉलर प्रति टीकाकरण (लगभग 1960 रुपए) पड़ी।
इसी तरह एक अन्य प्रयोग कीनिया में स्कूली बच्चों पर किया गया। इसमें छात्रों को पेट के कीड़े मारने वाली दवा खिलाई गई और उसका नतीजा यह निकला कि बच्चे कम बीमार पड़े। इसके कारण उनकी स्कूल में उपस्थिति से लेकर उनके रिजल्ट में भी काफी सुधार हुआ। ये बच्चे रिजल्ट एवं उपस्थिति में उन बच्चों से लगभग 20 फीसदी आगे रहे जिन्हें पेट के कीड़े मारने की दवा नहीं दी गई थी। मामूली सी लागत वाली एक गोली भी माता पिता द्वारा बच्चों को न दिए जाने का नतीजा यह होता था कि बच्चे बीमार पड़ते और उसके कारण उनकी स्कूल में उपस्थिति और उनके रिजल्ट दोनों पर विपरीत असर पड़ता।
ऐसे कई प्रयोगों से इन अर्थशास्त्रियों ने यह साबित करने का प्रयास किया कि गरीबी दूर करने के लिए गरीबों को यदि छोटे मोटे आर्थिक प्रोत्साहन दिए जाएं तो उसके जादुई नतीजे निकलते हैं। इससे एक तरफ जहां जनधन की बचत होती है वहीं कल्याणकारी योजनाओं का लाभ लोगों तक अधिक प्रभावी रूप से पहुंचाया जा सकता है। एक किलो दाल देकर सरकार उसकी कीमत की तुलना में कई गुना अधिक पैसा बचा सकती है।
और यही वह बिंदु है जो अभिजीत बनर्जी और उनके साथियों के प्रयोग की व्यावहारिकता और नैतिकता पर सवाल भी खड़े करता है। सवाल यह कि क्या लोगों को मुफ्त में दी जाने वाली स्वास्थ्य एवं शिक्षा सुविधाओं का लाभ उठाने के लिए भी अतिरिक्त प्रोत्साहन (बेहतर होगा यहां आप प्रलोभन पढ़ें) देना होगा? और यदि इस धारणा को स्वीकृति दी जाती है तो फिर इसका अंत कहां जाकर होगा, और होगा भी कि नहीं होगा। क्या हम ऐसे समाज को गढ़ रहे हैं जहां लोग जिंदा रहें इसके लिए भी हमें उन्हें प्रोत्साहन (या रिश्वत) देनी होगी?