नोबल कथा- 4
लोगों को सही काम की ओर ले जाने या फिर व्यापक सामाजिक अथवा जनहित के लिए प्रोत्साहित करने हेतु विशेष उपाय करने की बात नई नहीं है। भारतीय समाज में तो यह सदियों से होता आया है। और ऐसा भी नहीं है कि यह सिर्फ भारत की ही विशेषता हो, यह प्रवृत्ति सारी दुनिया में मिलेगी कि यदि अतिरिक्त रूप से कोई लाभ मिले तो व्यक्ति वह काम भी करने को राजी हो जाता है जिसके प्रति साधारण परिस्थितियों में उसकी कोई विशेष रुचि नहीं होती। ऐसे आचरण के पीछे कारण बहुत सारे हो सकते हैं, लेकिन उनमें एक सूत्र कॉमन होता है और वो है कुछ न कुछ ‘अतिरिक्त‘ की प्राप्ति।
तो जब अभिजीत बनर्जी यह कहते हैं कि संपूर्ण टीकाकरण के लिए उन लोगों ने ज्यादा रुचि दिखाई जिन्हें टीका लगाने के साथ ही एक किलो दाल मुफ्त में दी गई तो यह समाज की कमोबेश उसी प्रवृत्ति का परिचायक है जिसमें व्यक्ति सब्जी वाले से सब्जी लेने के बाद ‘मुफ्त’ में ‘अतिरिक्त’ रूप से थोड़े से धनिया मिर्ची की अपेक्षा रखता है। जाने कितने दशकों से यह परंपरा चली आ रही है। आज भी नियमित रूप से सब्जी मंडी जाने वाली महिलाएं आपको उसी सब्जी वाले से सब्जी लेते हुए नजर आएंगी जो उन्हें थोड़ा सा धनिया-मिर्ची अतिरिक्त रूप से देता है। इस मुफ्त के अतिरिक्त माल के चक्कर में वे यह पता लगाने का भी जतन नहीं करतीं कि इसके एवज में वह सब्जी वाला सब्जियों के दाम अपेक्षाकृत कितना ज्यादा वसूलता है। वे तो बस मुफ्त में अतिरिक्त रूप से मिल जाने वाली चार पांच मिर्चियों या हरे धनिये की दो चार डंडियों से धन्य हो जाती हैं।
कुल मिलाकर ‘मुफ्त और अतिरिक्त’ का यह खेल व्यक्ति को ललचाने या उससे मनमाफिक करवा लेने में बहुत काम आता है। बाजार इस प्रवृत्ति का शोषण करने वाला बहुत बड़ा खिलाड़ी है और वह पीढि़यों से इसी बात को लेकर ग्राहकों का शोषण कर अपना नकली या घटिया माल भी बेचता या खपाता आया है। सवाल यह है कि इस तरह से अपना माल बेचना या अपना काम निकालना कितना नैतिक है और ऐसी आदतों के दूरगामी परिणाम क्या होंगे।
इस बात को समझने के लिए आपको न देश विदेश के किसी ख्यातिप्राप्त विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र पढ़ने की जरूरत है और न ही यह जरूरी है कि नोबल से सम्मानित कोई व्यक्ति इसे आपको समझाए। एक छोटा सा उदाहरण लीजिये। जो बात अभिजीत बनर्जी आज कह रहे हैं उस बात को भारत की राजनीति ने आजादी के बाद से ही बहुत अच्छी तरह समझ लिया था। और आप बिना किसी शक शुबहे के इस बात को दावे के साथ कह सकते हैं कि आज भारतीय राजनीति इस मुफ्त और अतिरिक्त की अवधारणा पर ही टिकी है। फिर उसे आप चाहे ‘इंसेंटिव’ का नाम दें या फिर रिश्वत, लालच या प्रलोभन का।
इस बात को कौन भूल सकता है कि चुनाव के समय यही ‘इंसेटिव’ नेताओं के कितने काम आता है। शराब से लेकर मंगलसूत्र तक, साड़ी से लेकर कंबल तक, सायकल से लेकर मोटरसायकल तक नाना रूपों में यह ‘इंसेटिव’ पूरे चुनाव की दिशा ही बदल देता है। शुरुआती दौर में चाय नाश्ते या चवन्नी अठन्नी से शुरु हुआ यह ‘इंसेंटिव’ आज करोड़ों अरबों रुपये तक जा पहुंचा है। और राजनीति के बाजार में इस तरह बिकने को तैयार रहने वाला ज्यादातर तबका वही होता है जिसे अभिजीत बनर्जी गरीब मानकर उसे इंसेटिव देने की बात करते हैं। अरे, हमने तो इसी ‘प्रयोग’ से लोगों में अपना वोट तक बेच डालने की ‘लोकतंत्रभक्षी’ प्रवृत्ति विकसित कर डाली है ऐसे में एक किलो दाल की बिसात ही क्या है?
हो सकता है अभिजीत बनर्जी बहुत भली मानसिकता के साथ ‘इंसेंटिव’ देकर लोगों तक स्वास्थ्य और शिक्षा की सुविधाएं पहुंचाने की बात कर रहे हों। लेकिन हमारी ‘वोटरभक्षी’ मानसिकता ने ऐसे लोगों को क्या इतना भलामानुस छोड़ा भी है जो ऐसी बातों पर ध्यान दें। गरीबों को मदद मिले, उन्हें नारकीय जीवन से मुक्ति मिले, वे भी समाज में अच्छी शिक्षा और अच्छे स्वास्थ्य के साथ बराबरी से प्रतिस्पर्धा करते हुए अपना जीवन स्तर ऊपर उठाएं इससे किसको आपत्ति हो सकती है। लेकिन मुश्किल यह है कि यह ‘इंसेंटिव’ लोगों को स्वयं अच्छे काम के लिए प्रोत्साहित करने, अपने मन से उसके लिए आगे आने को तैयार करने के बजाय, उनकी दाढ़ में खून की तरह चिपकता जा रहा है।
भला बताइये जो शिक्षा और जो स्वास्थ्य सुविधाएं सरकारें मुफ्त में उपलब्ध कराती हों उसके लिए भी यदि हमें स्कूल में बच्चों को बुलाने के लिए मिड डे मील देना पड़े और जान बचाने वाली बीमारियों से रक्षा करने वाले टीके लगवाने के लिए भी एक किलो दाल का प्रलोभन देना पड़े तो फिर हमारे विकास का मतलब ही क्या रह जाता है। क्या इस बात पर नहीं सोचा जाना चाहिए कि इस तरह का कोई भी ‘इंसेंटिव’ उन गरीबों में, जिनके जीवन की और जिनके उन्नयन की हम चिंता कर रहे हैं, शिक्षा और स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता कम और ‘इंसेटिव’ के प्रति लालच ज्यादा जगाता है।
बहुत से लोगों को इस बात की जानकारी शायद नहीं होगी कि सरकारें पांच साल तक के प्रत्येक बच्चे को लगने वाले अलग अलग तरह के टीकों पर 8 से 10 हजार रुपए खर्च करती है। बच्चों को ये टीके मुफ्त में लगाए जाते हैं। अब जरा सोचिए, आपके बच्चों को जानलेवा बीमारियों से बचाने वाले इतने महंगे टीके जब मुफ्त में लगाए जाने की व्यवस्था हो तब भी आपको ऊपर से एक किलो दाल क्यों चाहिए? और यदि ऐसी मांग नहीं आ रही तो हम ऐसी मांग उठाए जाने का अवसर क्यों पैदा करना चाहते हैं। लोगों की रुचि बच्चों की पढ़ाई और उनके स्वस्थ एवं जिंदा रहने में बनाई जानी चाहिए या फिर एक किलो दाल, दो किलो चावल में…?
हम बच्चों को स्कूल बुलाकर खाना खिलाने के बजाय उनके माता-पिता में यह भाव जगाने के जतन क्यों नहीं कर रहे कि बच्चे पढ़ेंगे लिखेंगे तो खुद अपनी रोटी कमाने लायक बन सकेंगे, हम दाल या चावल की पोटली थमाकर टीका लगाने के बजाय यह क्यों नहीं समझा पा रहे कि टीका लगेगा तो उनका बच्चा असमय मरने से बच सकेगा, कुपोषण और बीमारियों का शिकार बनने से बच सकेगा… परोक्ष रूप से क्या हम लोगों में यह भाव पैदा नहीं कर रहे कि एक किलो दाल बच्चे की जान से ज्यादा कीमती है या कि स्कूल में मिलने वाली रोटी बच्चे के पढ़े लिखे होने से ज्यादा महत्व रखती है।
हम बात तो गरीबी मिटाने की करते हैं लेकिन मूल रूप से जो कर रहे हैं वो गरीबों को दो रोटी और एक किलो दाल में बिक जाने वाला बनाने का है… दूसरे शब्दों में कहें तो इस कीमत पर उन्हें खरीद लेने का है। आज यदि वे एक किलो दाल के लिए टीके लगवा लेंगे तो तय है कि कल वे एक बोतल दारू के लिए अपना वोट बेचने को भी तैयार हो जाएंगे।
तो क्या सारा खेल राजनीतिक दुकान के उपभोक्ता तैयार करने का है…? क्या सारी कवायद बाजार के लिए खेल का मैदान तैयार करने की है?