नोबल-कथा- 2
गरीबी का भारत से बहुत पुराना नाता है। भारत की जनता के साथ यह नाता कितना गहरा है, इसको लेकर अलग-अलग राय हो सकती है, पर भारत की राजनीति का तो निश्चित तौर पर इससे बहुत ही गाढ़ा रिश्ता है। दोनों एक दूसरे के बिना जी नहीं सकते। न गरीबी राजनीति के बिना और न राजनीति गरीबी के बिना। बिना ‘गरीबी’ के राजनीति नहीं होती और बिना राजनीति के ‘गरीबी’ की बात करने में कोई मजा नहीं।
गरीबी मिटाने का ‘प्रयोगधर्मी’ सुझाव बता कर नोबल सम्मान हासिल करने वाले अभिजीत बनर्जी जब प्राइमरी कक्षा की पढ़ाई कर रहे होंगे तब भारत की राजनीति में ‘गरीबी’ ने बहुत ‘भव्यता’ के साथ प्रवेश किया था। बनर्जी का जन्म 21 फरवरी 1961 को हुआ था। उसके दस साल बाद इंदिरा गांधी ने 1971 के चुनाव में ‘गरीबी हटाओ’ को कांग्रेस के चुनाव अभियान का प्रमुख नारा बनाया था। संयोगवश इंदिरा गांधी के बाद उनके बेटे राजीव गांधी और पोते राहुल गांधी ने भी किसी न किसी रूप में इस नारे को कांग्रेस की चुनावी रणनीति के केंद्र में रखा। बीच में आई गैर कांग्रेसी सरकारों, जिनमें भाजपा की सरकारें भी शामिल हैं, किसी न किसी रूप में गरीबी की बात की।
कहने का आशय यह है कि गरीब और गरीबी भारत में राजनीति का सबसे बड़ा और कारगर टूल भी हैं और हथियार भी। बगैर गरीबी के जिक्र के, न तो कोई पार्टी राजनीति कर सकती है और न ही कोई व्यक्ति अपनी नेतागिरी चला सकता है। गरीब का भला हो या न हो, गरीबी दूर हो या न हो, पर उसका जिक्र जरूर होते रहना चाहिए। यही वजह है कि गरीबी की बात जरूर होती है पर कोई उसे मिटाना नहीं चाहता। गरीब दरअसल सामाजिक इकाई नहीं, बल्कि राजनीतिक इकाई है। आज भी वह चुनाव जिताने में मददगार धर्म, जाति, संप्रदाय जैसी अत्यंत असरकारी राजनीतिक छतरियों के मुकाबले इतना बड़ा तंबू है, जिसके नीचे हजारों, लाखों लोगों को शरण दी जा सकती है।
इसीलिए जब अभिजीत बनर्जी को गरीबी मिटाने के ‘व्यावहारिक’ सुझाव पर नोबल सम्मान की खबर आई तो मेरे मन में पहला खयाल यही आया कि भारतीय राजनीति भला इस प्रयोग को सफल होते देखना क्यों चाहेगी? जिसकी सांस ही गरीबी हो, वह भला अपनी प्राणवायु को खत्म करना क्यों चाहेगा? एक विचार यह भी आया कि नोबल सम्मान की जूरी ने आखिर किस आधार पर इस प्रयोग को व्यावहारिक या कारगर माना होगा? जिसके असफल होने या जिसे असफल कर दिए जाने की पूरी गारंटी हो उसे भला कैसे सफल और असरकारी प्रयोग कहा जा सकता है।
दरअसल हम जिस कालखंड में जी रहे हैं वह अर्थ और राजनीति के एक ऐसे नेक्सस या गिरोह का शिकार है जिसमें आपको पता ही नहीं चलता कि कब, कौन, किसके लिए जाजम बिछा रहा है और किसके पैरों के नीचे से दरी खींचने का उपक्रम हो रहा है। अर्थ की सत्ता तो शुरू से ही रही है। लेकिन जिस रूप में आज ‘अर्थ-राजनीति’ को लिया जा रहा है उसकी शुरुआत 17 वीं शताब्दी से मानी जा सकती है, जब एडम स्मिथ ने अपनी कृति ‘वेल्थ ऑफ नेशंस’ (1776) में इस विषय को छुआ। यह सिलसिला 19 वीं शताब्दी में जॉन स्टुअर्ट मिल की कृति ‘प्रिंसिपल्स ऑफ पॉलिटिकल इकानॉमी’ (1848) तक आते आते बहुत स्पष्ट हो गया।
19 वीं शताब्दी में ही कार्ल मार्क्स (1818-1883) ने इस बहस को अकादमिक रूप से और चर्चित बनाया और वे एक विचारधारा के रूप में दुनिया के कई देशों में व्यापक राजनीतिक उथल-पुथल का कारण और सत्ता परिवर्तन का आधार बने। लेकिन आर्थिक सत्ता का राजनीतिक सत्ता पर बहुत ही प्रभावी रूप 20 वीं शताब्दी में ‘आर्थिक उदारीकरण’ के बाद दिखाई दिया। भारत के संदर्भ में यदि इसे देखें तो वह कालखंड पीवी नरसिंहराव के प्रधानमंत्रित्व वाला कालखंड (1991-1996) था जिसमें उन्होंने दुनिया की बदलती आर्थिकी और आर्थिकी के राजनीतिक सत्ता में भारी दखल की स्थितियों से निपटने के लिए डॉ. मनमोहनसिंह को अपना वित्त मंत्री बनाया था। वे ही मनमोहनसिंह बाद में भारत के दो बार प्रधानमंत्री बने (2004-2014)।
उस समय राजनीति करने वालों, खासतौर से देश-प्रदेश का नेतृत्व करने वाले नेताओं से यह अपेक्षा की जाने लगी थी कि उनमें एक अर्थशास्त्री के गुण भी होने चाहिए। राजनीति के साथ साथ उन्हें अर्थशास्त्र की भी अच्छी समझ और पकड़ होनी चाहिए। वैश्वीकरण और उदारीकरण जैसे नामों से चर्चित हुए उस दौर में चिली के वित्त मंत्री अलेजेंद्रो फॉक्सले का एक उद्धरण बहुत चर्चित हुआ था। पॉलिटिकल इकानॉमी क्या है? इस विषय पर प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के एक पेपर के शुरुआत में इस उद्धरण का जिक्र किया गया था जिसमें फॉक्सले कहते हैं-
‘’अर्थशास्त्रियों को न सिर्फ अपने आर्थिक मॉडल की जानकारी होनी चाहिए बल्कि उनमें राजनीति के साथ साथ सामूहिक जीवन के हितों, संघर्षों और जुनून की समझ भी होनी चाहिए। कुछ समय के लिए तो आप दिशानिर्देशों के जरिये बदलाव ला सकते हैं, लेकिन उस बदलाव को स्थायी बनाने के लिए आपको लोगों को जोड़ना होगा। आपको राजनेता बनना होगा।‘’
अब इसका मतलब तो यही निकलता है कि आपका अर्थशास्त्र और उसका कोई भी सिद्धांत या कोई भी प्रयोग जमीन पर तभी कारगर हो सकता है जब आपकी एप्रोच ‘राजनीतिक’ हो। लेकिन भारत में आजादी के बाद से हम जो हालात देख रहे हैं उनमें राजनीति की तो आर्थिक एप्रोच दिखाई देती है, लेकिन अर्थशास्त्र की राजनीतिक एप्रोच नहीं दिखती। इसका नतीजा यह हुआ है कि राजनीति ने तो ‘अर्थ’ को अपने हिसाब से निचोड़ा है, लेकिन अर्थशास्त्र अपने सिद्धांतों को लागू करने के लिए राजनीति को नहीं निचोड़ पाया।
और यहीं आकर यह सवाल उठ खड़ा होता है कि फिर ऐसे आर्थिक सिद्धांतों, प्रयोगों या बयानों का क्या अर्थ और क्या अर्थ उस नोबल सम्मान का जिसे पाकर व्यक्ति तो सम्मानित हो जाए लेकिन समाज के वंचित व्यक्ति के मान में, उसकी अवस्था में, उसके आर्थिक स्तर से लेकर मानवीय गरिमा में तिल मात्र की बढ़ोतरी न हो। नोबल सम्मान के बाकी सम्मानों में तो फिर भी व्यक्ति के योगदान का कोई रूपाकार या इम्पेक्ट दिखाई दे जाता है, लेकिन अर्थशास्त्र के मामले में अधिकांशत: बात सिद्धांतों और अवधारणाओं तक ही सीमित रह जाती है। अभिजीत बनर्जी और उनके सह-सम्मानितों के बारे में कहा गया कि उन्हें वैश्विक गरीबी हटाने के लिए उनके ‘प्रयोग आधारित शोध’ के लिए यह सम्मान दिया जा रहा है।
लेकिन क्या सचमुच अभिजीत का प्रयोग अनूठा है, क्या सचमुच वह भारत जैसे समाज में गरीबी मिटाने के लिए कारगर उपाय हो सकता है…???