वाम पड़ताल-2
आज की बात आगे बढ़ाने से पहले यह जान लीजिये कि दिल्ली में 30 अगस्त 2019 को हुई प्रगतिशील संगठनों की बैठक में और किसने क्या कहा। यह जानना इसलिए भी जरूरी है ताकि जब हम खुद की ‘बेधड़क पड़ताल’ की वाम मंशा पर बात करें तो हमारे पास उसका वर्तमान संदर्भ या आधार वक्तव्य मौजूद हो।
‘न्यूज क्लिक डॉट इन’ की रिपोर्ट के मुताबिक ‘प्रगतिशील आंदोलन की विरासत और हमारा समय’ विषय पर विचार रखते हुए आयोजन के अध्यक्ष मंडल के तीसरे सदस्य रवि सिन्हा ने ‘कॉमनसेंस’ को प्रश्नांकित करने की जरूरत बताई। उन्होंने कहा कि समाज पूँजीवादी नहीं है, बल्कि पूँजीवाद एक व्यवस्था है, जो किसी भी समाज के साथ अपना तालमेल बैठा लेती है। यह कहना कि केवल पूँजीवादी आधुनिकता ही संभव है, सही नहीं है।‘’
अध्यक्ष मंडल के सदस्य हीरालाल राजस्थानी ने कहा कि प्रगतिशीलों ने डॉ. आंबेडकर को नहीं समझा। दलित आंदोलन में संगठन तो खूब बने हैं लेकिन लोग संगठित नहीं हुए हैं। उनका कहना था कि समान सोच वाले संगठनों में एकता होनी ही चाहिए।
गोष्ठी में धीरेन्द्र नाथ के पर्चे का वाचन किया गया। धीरेन्द्र ने उन स्रोतों की तरफ फिर से जाने की बात की जिन्हें हम अति प्रगतिशीलता के दबाव में अनदेखा करते आए हैं। जैसे गांधी का संदर्भ लिया जा सकता है। मुक्तिबोध की वैचारिकी को दर्शनशास्त्र से जोड़ते हुए उन्होंने कांट के असर को रेखांकित किया।
प्रमुख नवगीतकार जगदीश पंकज ने कहा कि प्रगतिशीलता को मार्क्सवादी विचारों तक सीमित नहीं किया जा सकता है। बुद्ध, फुले, अछूतानन्द, नरेन्द्रदेव, लोहिया आदि के विचारों को मानने वाले भी इस प्रक्रिया में शामिल हैं। उनका कहना था कि दलित साहित्य को धराशायी करने की कोशिश के बाद, उसे मरे मन से स्वीकार किया गया है।
रंगकर्मी नूर ज़हीर ने इप्टा के इतिहास पर रोशनी डालते हुए कहा कि इसकी शुरुआत महिला आत्मरक्षा समिति (मार्स) से हुई है। उन्होंने प्रगतिशील आंदोलन को महिलाओं और दलितों से जोड़ने की जरूरत बताई।
सुभाष गाताडे ने ‘साम्प्रदायिक फासीवाद’ को नए ढंग से देखने का प्रस्ताव किया। उनका कहना था कि हम मानवद्रोही ताकतों से भी सीख सकते हैं। क्रांति की यांत्रिक समझ नुकसानदायक साबित हुई है। रेखा अवस्थी का मानना था कि आज ‘रामराज्य’ के विरुद्ध जोर से बोलना चाहिए। भूस्वामित्व का सवाल नेपथ्य में ठेल दिया गया था। उसे सामने लाने की कोशिश होनी चाहिए।
कवि-आलोचक चंचल चौहान ने कहा कि कोई आंदोलन, संगठन, व्यक्ति से नहीं बनता। वह समय की हलचलों से पैदा होता है। आज तार्किक प्रक्रिया को ख़त्म किया जा रहा है। हमें इसी समय के विरुद्ध लड़ना है। के. पी. चौधरी ने कहा कि लेखकों, कलाकारों को निर्भय होकर जन-जागरण करना चाहिए। दलेस के महासचिव कर्मशील भारती ने कहा कि संगठनों के संयुक्त कार्यक्रम नियमित रूप से होने चाहिए। इस मौके पर जलेस, दलेस और जसम से जुड़े कवि, लेखक, बुद्धिजीवी बड़ी संख्या में मौजूद रहे।
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तो कुल मिलाकर ये है वो रिपोर्ट जो बता रही है कि वर्तमान समय में खुद की स्थिति को लेकर वाम या प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े संगठन कितनी उलझन या कितने उद्वेलन में हैं। मैं न तो यह मान कर चल रहा हूं और न ही कह रहा हूं कि इस गोष्ठी में जो भी कहा गया वह जनवादी लेखक संघ, दलित लेखक संघ और जन संस्कृति मंच की आधिकारिक, एकमेव और अंतिम राय है। मैं बार बार आपको यह भी याद दिला रहा हूं कि मैं सिर्फ एक वेबसाइट में हुई इस आयोजन की रिपोर्टिंग के आधार पर अपनी बात कह रहा हूं। बहुत संभव है कि स्थान के अभाव के चलते संबंधित वक्ता की पूरी बात रिपोर्ट में न आ सकी हो या फिर वह मूल अथवा विस्तृत संदर्भ से कट गई हो।
इसके बावजूद इस आयोजन में कही गई बातों में से कुछ मोटे मोटे सूत्र खोजे जा सकते हैं, जो भारत के वर्तमान समय में बौद्धिक और सांस्कृतिक जगत की छटपटाहट को समझने और उनका विश्लेषण करने में मददगार होंगे। जैसे आयोजन की प्रस्तावना में ही उठाए गए सवाल और आत्मनिरीक्षण से उपजे ऑब्जर्वेशन।
प्रस्तावना का यह पैरा कई लिहाज से महत्वपूर्ण है कि- ‘’भारत में दक्षिण और वाम की संगठित राजनीति साथ-साथ ही शुरू हुई। आज दक्षिण का सूरज शिखर पर है, जबकि वाम दूर कहीं ढलती हुई शाम सरीखा लगता है। लेकिन इस सूरतेहाल के पीछे तेजी से घूमते हुए लगभग सौ बरस हैं। तीन दशक पहले तक दक्षिण (पक्ष) भारतीय राजनीति के हाशिए पर भी मुश्किल से ही नज़र आता था। जबकि वाम को बहुत बड़ी बड़ी उपलब्धियां बहुत जल्द हासिल हो गई थीं।‘’
और प्रस्तावना का यह सवाल तो और भी गहरे घाव की ओर इशारा करता है कि- ‘’फिर क्या हुआ कि वाम प्रगतिशील आंदोलन इन महान अविस्मरणीय सफलताओं को सहेज नहीं सका? आज जब हम एक और तरह का युगांतर देख रहे हैं, तब क्या प्रगतिशील आंदोलन की विरासत की ओर फिर से गौर करने का समय आ गया है? कैसे समझें इन विराट उपलब्धियों और विशाल विफलताओं को? क्या अपने ही अतीत और वर्तमान की बेधड़क पड़ताल करने का वक़्त आ गया है?’’
जिस दक्षिणपंथी विचारधारा पर, वामपंथी विचारधारा के अनुयायी निरंतर दलित और स्त्री प्रताड़ना का आरोप लगाते आए हैं, उसी वामपंथी विचारधारा के मुरलीमनोहर प्रसाद सिंह का यह कहना कि- ‘’अब यह बात स्वीकार कर लेनी चाहिए कि वाम आंदोलन के आरंभिक दौर में दलित और स्त्रियों के सवाल पीछे धकेल दिए गए थे।‘’… विरासत के विश्लेषण को बहुत जटिल बना देता है। इस वक्तव्य के बाद आप सवाल पूछने के बजाय जवाब देने की भूमिका में आ जाते हैं।
इसी तरह अशोक भौमिक का यह कहना कि-‘’हम वामपंथियों का पिछला इतिहास समझौतों का इतिहास है। हमने विभाजन के वक़्त अपनी भूमिका न ठीक से पहचानी न अपने दायित्व का निर्वाह किया। या फिर प्रमुख वक्ता आशुतोष कुमार का यह कथन कि ‘’अब हमारे लेखकों की पहचान बदली जा रही है। चाहे सूरदास हों, निराला हों सब को ‘हिन्दू राष्ट्रवादी’ सिद्ध किया जा रहा है।‘’ आशुतोष ने तो आंदोलन को आंबेडकरी बनाने और आंबेडकर (विचार) को रेडिकल बनाने की आवश्यकता तक बता डाली।
इन सारे संदर्भों और वक्तव्यों में इस संभावना को पुख्ता करने का पर्याप्त सामर्थ्य है कि ‘बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी।‘ और लोग आपकी ‘उदासी’ का नहीं, विरासत के विरल होने या उसके क्षरित होने का सबब पूछेंगे…
आगे बात करेंगे- इतिहास के कुछ सवालों और घटनाओं पर…