डिस्क्लेमर- आज का कॉलम एक मीडिया रिपोर्ट के कंटेट पर आधारित है। चूंकि मैं स्वयं उस कार्यक्रम में उपस्थित नहीं था, इसलिए इस कंटेट की प्रामाणिकता और तथ्यात्मकता की पुष्टि का दावा मेरे लिए संभव नहीं है। अपनी आशंकाओं और रिपोर्टिंग में होने वाली चूक की संभावना को बरकरार रखते हुए मैं यह मानकर चल रहा हूं कि इसमें जो बातें लिखी गई हैं वे ‘मिसकोट’ नहीं हुई होंगी।
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मुझे यह डिस्क्लेमर देने की जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि दो दिन पहले मैं खुद इसी कॉलम में बॉम्बे हाईकोर्ट में भीमा कोरेगांव हिंसा की घटना में आरोपियों की जमानत को लेकर हो रही सुनवाई की गलत रिपोर्टिंग के बारे में लिख चुका हूं। उस रिपोर्टिंग के चलते रूसी लेखक लियो टॉल्सटॉय की अमर रचना ‘वार एंड पीस’ को लेकर बहुत भ्रामक स्थिति निर्मित हो गई थी जो देश विदेश में चर्चा का विषय बनी थी।
आज का विषय भी चूंकि साहित्य और लेखकों से ही जुड़ा है, इसलिए मुझे यह जरूरी लगा कि जिस कथ्य को आधार बनाकर मैं अपनी बात कहने जा रहा हूं, उसके बारे में पहले ही साफ कर दूं कि मैं उस आयोजन का चश्मदीद नहीं हूं। ऐसे में मैं अपनी बात भूल-चूक लेनी देनी के साथ शुरू करता हूं।
समाचार वेबसाइट ‘न्यूज क्लिक’ ने 1 सितंबर को एक रिपोर्ट जारी की है जो 30 अगस्त को दिल्ली के कनाट प्लेस स्थित रविदास सभागर में हुए कार्यक्रम पर आधारित है। यह आयोजन तीन लेखक संगठनों जलेस (जनवादी लेखक संघ), दलेस (दलित लेखक संघ) तथा जसम (जन संस्कृति मंच) ने मिलकर किया था। आयोजन में शामिल होने वाले लेखकों ने ‘प्रगतिशील आंदोलन की विरासत और हमारा समय’ विषय पर अपने विचार रखे।
जलेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और भोपाल के चर्चित लेखक रामप्रकाश त्रिपाठी के सौजन्य से श्री मनोज कुलकर्णी ने मुझे इस आयोजन की प्रस्तावना भेजी है। इसके कुछ अंश में यहां कोट कर रहा हूं क्योंकि इसमें कुछ बातें बहुत ध्यान से नोट करने की हैं। इस प्रस्तावना में प्रगतिशील आंदोलन के ऐतिहासिक घटनाक्रमों का विवरण देते हुए कहा गया है कि-
‘’भारत में दक्षिण और वाम की संगठित राजनीति साथ-साथ ही शुरू हुई। आज दक्षिण का सूरज शिखर पर है, जबकि वाम दूर कहीं ढलती हुई शाम सरीखा लगता है। लेकिन इस सूरतेहाल के पीछे तेजी से घूमते हुए लगभग सौ बरस हैं। तीन दशक पहले तक दक्षिण (पक्ष) भारतीय राजनीति के हाशिए पर भी मुश्किल से ही नज़र आता था। जबकि वाम को बहुत बड़ी बड़ी उपलब्धियां बहुत जल्द हासिल हो गई थीं।
‘’आज़ाद भारत के पहले चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी भारत की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी थी और यही सूरत लंबे समय तक बनी रही। पार्टी से बड़ी कामयाबी उससे प्रेरित सांस्कृतिक आंदोलन को हासिल हुई। प्रगतिशील आंदोलन ने साहित्य, सिनेमा, नाटक, संगीत और चित्रकला को आमूल बदल दिया। प्रगतिशील आंदोलन ने अमीरों की ऐश का सामान बन चुकी कलाओं को किसानों और मजदूरों के इंकलाबी संघर्ष का हथियार बना दिया। यह बीसवीं सदी का वास्तविक युग परिवर्तन था।‘’
‘’फिर क्या हुआ कि वाम प्रगतिशील आंदोलन इन महान अविस्मरणीय सफलताओं को सहेज नहीं सका? आज जब हम एक और तरह का युगांतर देख रहे हैं, तब क्या प्रगतिशील आंदोलन की विरासत की ओर फिर से गौर करने का समय आ गया है? कैसे समझें इन विराट उपलब्धियों और विशाल विफलताओं को? क्या अपने ही अतीत और वर्तमान की बेधड़क पड़ताल करने का वक़्त आ गया है?’’
अव्वल तो यह प्रस्तावना ही बता रही है कि देश के बदलते राजनीतिक परिदृश्य ने भारत में सौ साल से भी अधिक पुराने वाम आंदोलन को अंदर तक हिला दिया है। वहां यह सवाल उठने लगा है कि इन बीते सालों में आंदोलन को जिस तरह से चलाया गया, उसके तौर तरीके सही थे या नहीं। और यदि नहीं थे तो चूक कहां हुई, कैसे हुई? और इस चूक को सुधारने की क्या सूरत हो सकती है?
यानी अकादमिक और मीडिया क्षेत्र में एक विशेष पक्ष की भले ही आज भी यह धारणा हो कि दक्षिणपंथ के बौद्धिक या अकादमिक स्तर पर वाम आज भी भारी है, लेकिन ऐसा लगता है कि वाम खुद ही भीतर से इस धारणा को स्वीकार करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। और शायद यही कारण है कि उससे जुड़े लेखक, संस्कृतिकर्मी और अन्य लोग आज इस सवाल का जवाब खोज रहे हैं कि वह अपनी ‘विराट उपलब्धियों’ और ‘विशाल विफलताओं’ को कैसे समझें?
और दिल्ली में हुए उस आयोजन में, जिसका जिक्र मैंने शुरुआत में किया, समझ का यह द्वंद्व साफ साफ नजर आया। मेरी सीमाएं हैं कि स्वयं मौजूद न होने के कारण मैं उस आयोजन में कही गई बातों का पूरा ब्योरा और उनका ठीक ठीक संदर्भ नहीं दे सकता, लेकिन ‘न्यूज क्लिक’ की रिपोर्ट कहती है कि इस गोष्ठी में अध्यक्ष मंडल के सदस्य मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने कहा कि ‘’अब यह बात स्वीकार कर लेनी चाहिए कि वाम आंदोलन के आरंभिक दौर में दलित और स्त्रियों के सवाल पीछे धकेल दिए गए थे। उन्होंने कहा कि इस आंदोलन को केवल लेखकों तक सीमित न करके फिल्मकारों, चित्रकारों और रंगकर्मियों के आंदोलन के रूप में देखा-समझा जाना चाहिए।‘’
अध्यक्ष मंडल के दूसरे सदस्य अशोक भौमिक ने कहा कि ‘’हम वामपंथियों का पिछला इतिहास समझौतों का इतिहास है। हमने विभाजन के वक़्त अपनी भूमिका न ठीक से पहचानी न अपने दायित्व का निर्वाह किया। नास्तिकता हमारी ज़मीन हो सकती थी, लेकिन हम ऐसा करने से बचते रहे।‘’
इससे पहले इस विचार गोष्ठी के विषय की प्रस्तावना रखते हुए प्रेम तिवारी ने ‘विरासत’ के प्रश्न को बड़े दायरे में देखने की जरूरत बताई। एक और प्रमुख वक्ता आशुतोष कुमार ने कहा कि ‘’अब हमारे लेखकों की पहचान बदली जा रही है। चाहे सूरदास हों, निराला हों सब को ‘हिन्दू राष्ट्रवादी’ सिद्ध किया जा रहा है। उन्होंने आंदोलन को आंबेडकरी बनाने और आंबेडकर (विचार) को रेडिकल बनाने की आवश्यकता बताई।‘’
दिल्ली का यह आयोजन भले ही उतना चर्चित न हुआ हो या फिर उसका स्तर भले ही स्थानीय हो, लेकिन यह दर्शाता है कि देश में बढ़ते दक्षिणपंथ के प्रभाव ने वामपंथ की उस बौद्धिक और अकादमिक बुनियाद को भी हिलाया है, जिसके बारे में माना जाता रहा है कि उसकी जड़ें बहुत गहरी हैं।
आगे बात करेंगे- और किसने क्या कहा गोष्ठी में। साथ ही अपनी समझ से यह समझने की कोशिश भी करेंगे कि आखिर वाम कहां चूका?