वाम पड़ताल-3
दरअसल भारत में विचार की स्थिति नदी की तरह रही है। कभी वह सूख जाती है तो कभी खतरे के निशान से ऊपर बहने लगती है। कभी आप उसके पानी का आचमन कर सकते हैं, तो कभी वह नाले में तब्दील होकर बदबू मारने लगती है। कभी आपको उसका पानी छान कर पीना पड़ता है तो कभी वह पानी सिर्फ टॉयलेट में इस्तेमाल के लायक ही रह जाता है।
जिस तरह नदियां इन दिनों भारी प्रदूषण का शिकार हैं, उसी तरह विचार भी लगातार प्रदूषित होता जा रहा है। जिस ग्लेशियर से प्रगतिशीलता के विचार की धारा निकली थी वे ग्लेशियर भी धीरे धीरे गलकर नष्ट होते जा रहे हैं। ग्लेशियर थे तो विचार की ऊंचाई थी, लेकिन उनके पिघल जाने से वह ऊंचाई भी खत्म हो गई है।
जिस दक्षिणपंथ को लेकर वाम हमेशा से आक्रामक रहा है, उसी दक्षिणपंथी नेतृत्व के समय भारत में एक विचार बना था नदियों को जोड़ने का। वह विचार तो फलीभूत नहीं हुआ, लेकिन अब ऐसा लगता है कि वाम, विचार के प्रवाह को जिंदा रखने की खातिर, बाकी लोगों को अपने साथ मिलाने या उनमें मिल जाने से भी परहेज नहीं कर रहा। लेकिन दिक्कत यह है कि एक तो विचार अब बारहमासी नदी की तरह नहीं रहा जिसमें पानी सदैव बहता रहे। दूसरे उस नदी को जिंदा रखने के लिए विचार की नई कोपलों की बारिश भी उतनी नहीं हो रही। उधर इस नदी पर बाड़ेबंदी, गुटबंदी और गिरोहबाजी के इतने बांध और स्टॉपडेम बन गए हैं कि प्रवाह का सतत रहना नामुमकिन सा हो चला है।
दिल्ली की गोष्ठी का विषय रखा गया था- प्रगतिशील आंदोलन की विरासत और हमारा समय। और इसमें जनवादी लेखक संघ के साथ दलित लेखक संघ की मौजूदगी बताती है कि बौद्धिक, अकादमिक, साहित्यिक और सृजनात्मक क्षेत्र में काम करने वाले गैर दक्षिणपंथी संगठन अब एकजुट होकर उस ताकत से मुकाबला करना चाहते है जिसका सूरज, उनके ही मुताबिक इस समय शिखर पर है और वाम का सूरज दूर कहीं ढलती शाम सरीखा हो गया है। जो दक्षिण कभी भारतीय राजनीति के हाशिये पर भी मुश्किल से नजर आता था वो इस समय देश की मुख्यधारा बन बैठा है। और इसी शिखर पर चढ़े सूरज से मुकाबला करने के लिए शायद गैरराजनीतिक क्षेत्र में भी एक महागठबंधन का विचार पनपाने की कोशिश हो रही है।
गोष्ठी के विषय में शब्द प्रयुक्त किया गया ‘विरासत’। मुझे लगता है सबसे पहले इस शब्द पर ही बात हो जानी चाहिए। प्रगतिशील संगठन जिसे अपनी विरासत बताते हुए खुद के गौरवशाली अतीत का यशोगान कर रहे हैं, असल में दक्षिण ने उनकी इसी ‘विरासत’ को लेकर पूरा खेल रचा। सर्वहारा के एक आयातित विचार के समानांतर भारत की ही मिट्टी से उपजी सामाजिक व्यवस्था के विचार को राजनीति के केंद्र में लाया गया।
वाम ने जहां भारतीय समाज में वर्ग धारणा को स्थापित करने की कोशिश की, वहीं दक्षिण ने अपना सारा तानाबाना वर्ण और जाति के इर्दगिर्द बुना। और चूंकि वर्ग के बजाय वर्ण और जाति का यह रेशा भारत के लोगों की चमड़ी से लेकर उनकी मज्जा तक में मौजूद था इसलिए, लाख मारने की कोशिश के बावजूद वह मरा नहीं। दूसरी ओर वाम की ऐसी कोशिशों के विपरीत दक्षिण हमेशा से इसी प्रयास में रहा कि किसी भी सूरत में यह रेशा जिंदा बना रहे। पौधे या पेड़ के रूप में संभव न हो तो बीज रूप में ही सही, ताकि जब भी उसे मिट्टी, पानी, हवा आदि का संपर्क मिले वह अंकुरित हो सके।
वाम जिस विरासत की बात करता है, विचार के संदर्भ में वह विरासत मूल रूप से भारत की विरासत नहीं थी। और इसी बात ने दक्षिण को समानांतर रूप से भारत में खुद को पल्लवित और विस्तारित होने का अवसर दिया, जिसका क्षोभ आज वाम को है। दक्षिण ने तमाम अवरोधों, उपेक्षाओं और प्रतिकूलताओं के बवजूद भीतर ही भीतर लोगों के मानस में इस सवाल को मरने नहीं दिया कि विरासत आखिर किसकी? एक विदेशी विचार की या भारत की? हां, वाम के पास एक विचार था भले ही वह आयातित हो, लेकिन दक्षिण के पास वैसा कोई विचार मूल रूप से मौजूद नहीं था। इसलिए उसने भारत को ही अपना विचार बना लिया और भारत की विरासत से खुद की विरासत को जोड़ दिया।
अब स्थिति यह है कि जिस परंपरावाद का विरोध करते हुए प्रगतिशील आंदोलन सौ साल पहले खड़ा हुआ था, वही परंपरावाद उसके रास्ते में सबसे बड़ी बाधा बनकर आ खड़ा हुआ है। परंपरावाद को कोसते हुए वाम ने भले ही वो सब हासिल किया हो जिसे वह आज अपनी उपलब्धियों के रूप में प्रस्तुत कर अपनी विरासत बता रहा है, लेकिन असलियत में उसे पता ही नहीं चला कि परंपरावाद का यही विरोध अंदर ही अंदर उसकी जमीन को खोखला करने का कारण भी बनाया जा रहा था।
आज जब वाम और उससे प्रभावित ‘धर्मनिरपेक्ष’ वर्ग यह आरोप लगाता है कि उसे राष्ट्रद्रोही कैसे कहा जा सकता है, तो इसका जवाब उसे वर्तमान समय में खोजने के बजाय अतीत की उन सामाजिक और राजनीतिक भूगर्भीय संरचनाओं में खोजना चाहिए जब सौ सवा सौ साल पहले भारतीय समाज की जमीन के नीचे परंपरा और आधुनिकता या प्रगतिशीलता की टेक्टॉनिक प्लेटों के टकराने से भारी उथल पुथल हो रही थी। कहते हैं जब भूकंप आने को होता है तो सूखे कुएं में भी अचानक पानी चढ़ आता है। सौ सालों में इस भूकंप के सामाजिक स्तर पर कई लक्षण दिखाई दिए। लेकिन विडंबना यह रही कि प्रगतिशील खेमे ने उन लक्षणों को आधुनिकता के नाम पर अंधविश्वासजन्य ढकोसला बताया और उसके समानांतर खड़े हो रहे दक्षिण ने उसे एक चमत्कार के रूप में प्रचारित और प्रसारित किया।
चूंकि तमाम विकास और वैज्ञानिक प्रगति के बावजूद भारतीय समाज ने चमत्कारों और अंधविश्वासों पर भरोसा करने का चलन कभी नहीं छोड़ा, इसलिए सौ सालों के दौरान हुए बदलावों में परंपरावाद की जमीन तड़की भले हो, पर वह पूरी तरह टूटी या नष्ट कभी नहीं हुई। यही वजह रही कि जैसे ही मौका मिला दक्षिण ने लोगों को उनकी खुद की, उनके अपने भारत की विरासत, संस्कृति और यहां की मिट्टी की तासीर से जोड़ा और इन सबके मिश्रण से बनी सीमेंट के जरिये जमीन की उस तड़क को भर डाला और उस पर अपना महल खड़ा कर लिया।
दक्षिण के पास अपना कोई विशिष्ट विचार नहीं था इसलिए उन्होंने भारत को ही अपना विचार बना लिया और भारत के इस विचार के जरिये, लोगों को अपने से जोड़ने वाले फेवीकोल का नाम ‘राष्ट्रवाद’ रख दिया। जिस समय आप कामू, कांट और काफ्का की बात कर रहे थे उस समय वे तुलसी के सुंदरकांड पाठ को घर घर पहुंचाने में लगे थे। जाहिर सी बात थी, भारत के लोगों ने कामू या काफ्का के बजाय तुलसी को अपने ज्यादा निकट पाया…