कल हमने बंगाल और वहां की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी की सियासत पर बात की थी। आज भी बात के केंद्र में बंगाल ही है, यह बात अलग है कि इसकी जरूरत सिर्फ बंगाल या ममता को नहीं बल्कि समूची सियासत को है। लंबे समय से भाजपा से पंगा ले रहीं ममता बैनर्जी ने केंद्र की मोदी सरकार से शुक्रवार को एक और पंगा लिया।
केंद्र सरकार ने 15 जून को दिल्ली में नीति आयोग की बैठक बुलाई है। ममता ने इसमें शामिल होने से इनकार करते हुए प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिख डाली। उन्होंने कहा- ‘’नीति आयोग के पास न तो कोई वित्तीय अधिकार हैं और न ही वह राज्य की कोई मदद करने की हैसियत रखता है, ऐसे में मेरा बैठक में भाग लेना फिजूल है।‘’
केंद्र सरकार द्वारा बुलाई गई बैठकों में कई बार ऐसा होता है कि अन्यान्य कारणों से मुख्यमंत्री शामिल नहीं हो पाते। लेकिन ऐसी स्थिति में वे अपने राज्य का अप्रतिनिधित्व भी नहीं होने देते। वे नहीं जा पाते तो उनका कोई प्रतिनिधि ऐसी बैठकों में शामिल हो जाता है। अभी यह जानकारी नहीं है कि ममता ने इस बैठक में सिर्फ खुद ही नहीं जाने का फैसला किया है या फिर उनका फैसला यह है कि बंगाल का कोई प्रतिनिधित्व इस बैठक में नहीं होगा।
यदि ऐसा है तो यह राजनीतिक अहंकार और दुश्मनी के चलते राज्य के हितों को नुकसान पहुंचाने वाली बात है। बात नीति आयोग के अधिकारों और हैसियत की नहीं बल्कि केंद्र सरकार द्वारा नीति संबंधी विषयों को लेकर गठित एक उच्चस्तरीय संस्था की है। नई सरकार बनने के बाद इसका पुनर्गठन किया गया है। इसकी पहली बैठक में और कुछ भले न हो लेकिन राज्यों के मुख्यमंत्रियों को यह अनुमान लगाने में तो मदद मिलेगी ही कि दूसरी बार की मोदी सरकार का रवैया कैसा रहने वाला है।
हो सकता है बैठक का नतीजा कुछ न निकले और वह सिर्फ औपचारिकता बनकर रह जाए, लेकिन ऐसे मंचों का उपयोग राज्य की समस्याओं को उठाने और पूरे देश का ध्यान उनकी ओर आकर्षित करने के लिए भी किया जा सकता है। पता नहीं ममता बैनर्जी अपनी व्यक्तिगत खुन्नस या जिद के चलते यह अवसर भी क्यों गंवाना चाहती हैं?
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि ममता और मोदी के बीच जो तलवारें खिंची हैं वे चुपचाप तो म्यान में जाने वाली नहीं हैं। हर पक्ष चाहेगा कि दूसरे पक्ष को उस तलवार के वार से भले ही एक खरोंच आए पर आए जरूर। घाव जरूर हो। ऐसे माहौल में तो यह और भी जरूरी हो जाता है कि देश के संघीय ढांचे की मांग के अनुरूप दोनों पक्ष राजनीतिक रिश्ते न निभा पा रहे हों तो भी कम से कम संवैधानिक जिम्मेदारियों को तो तिलांजलि न दें।
राजनीति में दुश्मनी पालने की हरेक को छूट है लेकिन दोस्ती का दिखावा करते रहने की शर्त के साथ। आप संबंध इतने भी खराब मत करिये कि एक दूसरे से बोलचाल ही बंद हो जाए। यह मामला सिर्फ ममता और मोदी का नहीं केंद्र-राज्य संबंधों का है। भले केंद्र में किसी दूसरे विचार या दल की सरकार हो और राज्य में दूसरे की। लेकिन जब वह दल सरकार में है तो उसकी भूमिका अभिभावक की है। हमारे संविधान ने राज्यों को मुख्त्यार होने के अधिकार नहीं दिए हैं। ऐसे में केंद्र व राज्य के बीच इस तरह की टकराहट और अबोला ठीक नहीं है।
ममता इससे पहले भी बंगाल में सीबीआई के काम में अड़ंगा डालकर, प्रधानमंत्री को मानने से इनकार कर, चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष सहित कई विपक्षी नेताओं को सभा की अनुमति न देकर केंद्र व राज्य के संबंधों में पलीता लगा चुकी हैं। वे भूल रही हैं कि ऐसा करके वे अपना या तृणमूल का फायदा नहीं बल्कि नुकसान ही कर रही हैं। खुद को मजबूत दिखाने के चक्कर में वे अपना पाया लगातार कमजोर करती जा रही हैं।
जैसा मैंने कहा कि राजनीति में आप दोस्ती न करें पर उसका दिखावा जरूर करते रहें। अभी दो दिनों के उदाहरण ही ले लीजिए। एक मध्यप्रदेश सरकार का है और दूसरा केंद्र सरकार का। मध्यप्रदेश की कमलनाथ सरकार के प्रति भाजपा और केंद्र सरकार का क्या रुख है यह किसी से छिपा नहीं है। लेकिन उसके बावजूद गुरुवार को मुख्यमंत्री कमलनाथ ने दिल्ली जाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से न सिर्फ मुलाकात की बल्कि उनसे प्रदेश की योजनाओं में मदद का अनुरोध भी किया। प्रधानमंत्री ने भी उन्हें हरसंभव मदद का भरोसा दिया।
दूसरा मामला प्रधानमंत्री द्वारा शुक्रवार को अपने तीन मंत्रियों को कांग्रेस संसदीय दल की नेता सोनिया गांधी के पास भेजे जाने का है। 17 वीं लोकसभा का पहला सत्र 17 जून से शुरू हो रहा है। यह सत्र सुचारू रूप से चलाने में विपक्ष का सहयोग मिले, यह संदेसा लेकर मोदी सरकार के तीन वरिष्ठ मंत्री नरेंद्रसिंह तोमर, संसदीय कार्यमंत्री प्रह्लाद जोशी और उनके राज्य मंत्री अर्जुन मेघवाल ने यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी से मुलाकात की।
अब वैसे देखा जाए तो लोकसभा में भाजपा/एनडीए के पास इतना बहुमत है कि उन्हें सदन चलाने में कहीं कोई दिक्कत नहीं आने वाली। वे अगर दादागिरी पर उतर आएं तो विपक्ष के हर विरोध को संख्याबल से दबा सकते हैं, लेकिन इसके बावजूद सरकार ने सोनिया के पास सहयोग के अनुरोध के साथ अपने मंत्रियों को भेजा। संसद जब चलेगी उस समय असलियत में क्या होगा यह बात भूल जाइए, लेकिन यहां बात राजनैतिक शिष्टाचार की है। लाख राजनीतिक दुश्मनी हो, लेकिन कुछ बातों को दिखावे के लिए ही सही, निभाना पड़ता है।
और कांग्रेस से ज्यादा चोट तो भाजपा से ममता ने नहीं खाई होगी। ममता से तो सिर्फ उनका बंगाल छिना जा रहा है, लेकिन कांग्रेस से तो उसका अस्तित्व ही छिना जा रहा है। लेकिन फिर भी कांग्रेस के मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री से मिल रहे हैं ना… फिर भी भाजपा के मंत्री सोनिया गांधी से अनुरोध करने उनके पास जा रहे हैं ना…
याद रखें राजनीति ठंडे दिमाग से चलती है। या यूं कहें कि दिमाग को ठंडा रखने वाला ही लंबी राजनीति कर पाता है। तुनकमिजाजी या जिद्दीपन यदि आपकी राजनीति का स्थायी भाव हो जाए तो समझ लीजिए कि आप बहुत जल्दी या तो खारिज होने वाले हैं या खारिज किए जाने वाले हैं। अब तय आपको करना है, आप खारिज होकर खड़ताल बजाना चाहती हैं या फिर बराबरी से कदमताल करते हुए विरोधियों से लोहा लेना चाहती हैं…