पश्चिम बंगाल में इन दिनों जो हो रहा है उसे भारतीय राजनीति के चरित्र परिवर्तन के रूप में देखा जाना चाहिए। वैसे पिछले दिनों एक बड़ी बात यह हुई है कि लोकसभा चुनाव परिणामों ने विपक्ष को इतना अधिक हतप्रभ कर दिया है कि उसे यह सूझ ही नहीं पड़ रहा कि आगे क्या करना है, कैसे करना है। राजनीति करनी है तो उसके लिए हथियार कौनसे चाहिए।
आपको यहां मेरे ‘हथियार’ शब्द के इस्तेमाल पर आपत्ति हो सकती है। पर देश में यदि सचमुच गांधी का असर बचा होता तो मैं गर्व से यहां ‘साधन और साध्य’ वाली भाषा का इस्तेमाल करता, लेकिन राजनीति अब इन शब्दों से नहीं चल रही, या चलाई जा रही। वह हथियारों से ही चलाई जा रही है। फिर चाहे आप अपनी जबान को हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हों, हाथों को या दिमाग को।
आज भारत की राजनीति में एक तरफ भाजपा है और दूसरी तरफ उसके विरोधी। बाकी और कोई वर्गीकरण नहीं बचा है। स्थापित या चर्चित मान्यता तो यह है कि दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है लेकिन यहां तो लोगों ने दुश्मन के दुश्मन से दोस्ती क्या घरोपा करके भी देख लिया, लेकिन दुश्मन का बाल भी बांका नहीं हो सका। इसलिए विपक्ष अब विकलांगता की स्थिति में है।
मैंने अपनी बात बंगाल के दृष्टांत से इसलिए शुरू की क्योंकि बंगाल ही देश का संभवत: एकमात्र ऐसा राज्य है जहां चुनाव अथवा सत्ता की राजनीति को कोई भी राजनीतिक विचार या आंदोलन ही व्यापक रूप से प्रभावित करता आया है। एक समय वहां कांग्रेस रही, उसे वामपंथ ने अपदस्थ किया और फिर वामपंथ को वर्तमान मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने अपनी ‘तृणमूल’ ताकत से अपदस्थ कर दिया।
संभवत: भाजपा को लग रहा है कि अब वहां अगली बारी उसकी है। ब्योरा लंबा हो जाएगा, लेकिन संक्षेप में कहा जाए तो कांग्रेस से वामपंथ और वामपंथ से तृणमूल तक की बंगाल की राजनीतिक यात्रा में, किसी दल या विचार की, सत्ता की राजनीति से यदि विदाई हुई है, तो उसमें खुद सत्ताधारी दल की गलतियों या उसके ‘एकोहम् द्वितीयो नास्ति’ के भाव का योगदान अधिक रहा है।
एक और बात, बंगाल में राजनीतिक बदलाव की प्रक्रिया दुर्भाग्य से रक्तरंजित रही है। बंगाल की जनता ने अपना राजनीतिक नेतृत्व तो समय समय पर बदला, लेकिन उसे बदलने के लिए खूनी संघर्ष की प्रवृत्ति नहीं बदली। आज भी जिस तरह से बंगाल में राजनीतिक हिंसा और कार्यकर्ताओं की हत्या की खबरें आ रही हैं वे बताती हैं कि इस मामले में बंगाल की राजनीति को बदलना अभी किसी के वश की बात नहीं है। शायद बंगाल में सत्ता सिंहासन तक पहुंचने या उस पर टिके रहने की राह ही यही है।
कहते हैं जब आपका समय ठीक न हो, तो वह न चाहते हुए भी आपसे ऐसे काम करवा लेता है जो आपके लिए ही घातक होते हैं। शायद ममता बैनर्जी के साथ इन दिनों यही हो रहा है। वरना क्या जरूरत है कि किसी मुख्यमंत्री को ‘जय श्रीराम’ जैसे नारों पर भड़कने की। मुझे लगता है आपको समझ ही नहीं आ रहा कि आपका प्रतिद्वंद्वी कितनी चालाकी से आपको अपने जाल में फंसा रहा है और आप बिना सोचे समझे उसके जाल में फंसती जा रही हैं।
सहमत होना न होना अपने अपने नजरिये की बात है, लेकिन जरा सीखिये भाजपा से। उसके सबसे बड़े नेता, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लोकसभा चुनाव में ‘चोर’ कहा गया। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने ‘चौकीदार चोर है’ का नारा गढ़ा और वह नारा कांग्रेस की सभाओं में जोर शोर से चला भी। लेकिन भाजपा ने रणनीति क्या अपनाई?
निश्चित रूप से नरेंद्र मोदी को चोर कहना भाजपा और उसके शीर्ष नेतृत्व पर सबसे बड़ा तेजाबी हमला था। कायदे से तो भाजपा को झुलस जाना चाहिए था। लेकिन उसने ‘चौकीदार चोर है’ कहने वालों को गिरफ्तार करने या जेल में डालने जैसी हरकतें करने या धमकियां देने के बजाय उस ‘चौकीदार’ शब्द को ही ओढ़ लिया। उसे अपनी चिढ़ावनी बनने देने के बजाय पलटवार की तरह इस्तेमाल किया।
कोई शब्द आपकी चिढ़ावनी तब बनता है जब आप खुद उस शब्द से चिढ़ने लगते हैं या लोगों को चिढ़ते हुए दिखाई देने लगते हैं। भाजपा बंगाल में यही कर रही है। ममता जितना ‘जय श्रीराम’ के नारे से चिढ़ेंगी या चिढ़ती हुई दिखाई देंगी, उतना ही भाजपा को फायदा और आपको नुकसान होता चला जाएगा। याद रखिये, ये जो लोग जय श्रीराम के नारे लगा रहे हैं ना, हो सकता है उन्हें श्रीराम से कोई लेना देना न हो, पर हां, उन्हें यह बात अच्छी तरह पता चल गई है कि यह आपकी चिढ़ावनी है। और जैसे बच्चों को ऐसे ही गढ़ लिए गए शब्दों से एक दूसरे को चिढ़ाने में मजा आता है, वैसे ही लोग आपके मजे ले रहे हैं।
मुझे याद है हमारे मोहल्ले में ऐसा ही एक व्यक्ति था। पता नहीं एक दिन किसी को क्या सूझी कि उसे ‘मोरपंखी’ कह दिया। अब इस ‘मोरपंखी’ शब्द में न तो कोई गाली छिपी है और न ही कोई गलत बात या खोट है। यह तो किसी की बदसूरती का भी परिचायक नहीं है। लेकिन यह शब्द सुनते ही वह आदमी भड़क गया। फिर क्या था सुंदर सा शब्द ‘मोरपंखी’ उसकी चिढ़ावनी बन गया।
जय श्रीराम के साथ भी ऐसा ही है। उसमें भड़कने या आक्रामक होने की कोई जरूरत नहीं है। अरे, कोई इस बहाने राजनीति कर भी रहा है, तो आप क्यों उसके जाल में फंसकर उसे राजनीति करने का मौका दे रही हैं। मुझे ताज्जुब तो इस बात का है कि आपने मामले को इतना बढ़ने दिया, क्या आपको एक बार भी यह खयाल नहीं आया कि ‘जय श्रीराम’ कहने वालों को पलटकर गाली देने या धमकाने के बजाय आप भी कह देतीं, ‘जय जय श्रीराम’… शायद यह बात कम से कम इस तरह तो आगे नहीं बढ़ती…