सर्वे तो ठीक है, मुद्दा ये है कि तसवीर बदलेगी या नहीं

हम अकसर यह मानकर चलते हैं कि बच्‍चे हैं, वे क्‍या समझते होंगे… लेकिन बच्‍चों की अपनी समझ और अपनी संवेदनशीलता होती है,जिसमें वयस्‍कों जैसा कोई प्रदूषण नहीं होता। मध्‍यप्रदेश में दस गैर सरकारी संगठनों ने बच्‍चों की स्थिति का सर्वे करने के बाद जो रिपोर्ट जारी की है उसमें कई चौंकाने वाले तथ्‍य हैं।

सर्वे के दौरान बच्‍चों ने सरकारी योजनाओं की जो खाल उधेड़ी है वह ध्‍यान देने लायक है। इन दिनों देश में स्‍वच्‍छता अभियान के तहत चौतरफा शौचालयों का निर्माण चल रहा है। खुले में शौच मुक्‍त भारत बनाने के लिए पूरी सरकारी मशीनरी सिर के बल खड़ी हुई है। लेकिन शौचालयों को लेकर जो बुनियादी सवाल पहले दिन से पूछा जा रहा है, उसकी गंभीरता बच्‍चों से हुए संवाद में देखी जा सकती है।

बच्‍चों से मूलभूत सुविधा के बारे में पूछा गया तो 20 फीसदी ने बताया कि उनके स्‍कूल में शौचालय नहीं हैं। 14 प्रतिशत ने कहा कि शौचालय तो है पर गंदा है और बंद रहता है। जबकि 11 फीसदी का कहना था कि स्‍कूल में लड़के व लड़कियों के लिए एक ही शौचालय है। स्‍कूल में साफ सफाई का काम भी बच्‍चे ही करते हैं।

लेकिन जिस बुनियादी बात की ओर मैं ध्‍यान दिलाना चाहता हूं उसे एक बच्‍चे के अनुभव से सुनिये। रिपोर्ट जारी करने के दौरान एक बच्‍चे ने मंच पर आकर बताया कि गांव में भी शौचालय हैं और उसके स्‍कूल में भी शौचालय है। लेकिन गांव वाले भी स्‍कूल के ही शौचालय का इस्‍तेमाल करते हैं क्‍योंकि स्‍कूल के शौचालय में पानी रहता है जबकि उनके घरों में बने शौचालय पानी न होने के कारण उपयोग में नहीं आ रहे।

अब यह हमारे योजनाकारों की आंखें खोल देने वाली सचाई है। शौचालय निर्माण अभियान में करोड़ों रुपए खर्च किए जा रहे हैं लेकिन मूल मुद्दा पानी की उपलब्‍धता का है, जिस पर कोई ध्‍यान नहीं दिया जा रहा। अरे, जिन गांवों में पीने के पानी के लाले पड़े हों, वहां शौचालय में पानी कौन इस्‍तेमाल करेगा? और जब पानी ही नहीं होगा तो लोग खुले में शौच करने जाएंगे ही…

स्‍कूल चलें अभियान के तहत बच्‍चों को स्‍कूल तक ले जाने संबंधी गतिविधियों पर भी बहुत बड़ा बजट खर्च किया जा रहा है, लेकिन यहां भी जमीनी सचाई कुछ और है। सर्वे में शामिल 67 प्रतिशत बच्‍चों का कहना है कि चूंकि वे बाहर काम करते हैं इसलिए स्‍कूल नहीं जा पाते। जबकि 33 प्रतिशत ने कहा कि स्‍कूल में पिटाई होने, मन न लगने या फेल हो जाने के कारण वे स्‍कूल से कतराते हैं।

अब यदि 67 फीसदी बच्‍चे यह कह रहे हैं कि बाहर काम करने की वजह से वे स्‍कूल नहीं जा पा रहे तो यह स्‍कूल चलें अभियान की सार्थकता के साथ ही बाल श्रम संबंधी कानूनों के पालन पर भी सवाल खड़े करता है। आज भी ज्‍यादातर गांवों में बच्‍चों को छोटी उम्र से ही काम में लगा दिया जाता है जिससे वे स्‍कूल का मुंह भी नहीं देख पाते। जबकि सर्वे में शामिल 90 प्रतिशत बच्‍चे बाल मजदूरी को गलत मानते हैं।

आम तौर पर जब भी ऐसे सर्वे आते हैं, उनकी विश्‍वसनीयता पर सवाल उठा दिया जाता है। यह आरोप बहुत आम है कि किसी पूर्वग्रह के चलते जानबूझकर ऐसे निष्‍कर्ष निकाले गए हैं। लेकिन यूनीसेफ और विकास संवाद का यह सर्वे अपनी विश्‍वसनीयता इसलिए भी साबित करता है, क्‍योंकि इसमें सिर्फ नकारात्‍मक ही नहीं कई चौंकाने वाले सकारात्‍मक तथ्‍य भी हैं।

जरा ध्‍यान दीजिए! 63 फीसदी बच्‍चों ने इसी सर्वे में कहा कि मिड डे मील अच्‍छा मिलता है, जबकि 11 फीसदी ने उसे ठीक ठाक बताया। इसी तरह 64 फीसदी बच्‍चों ने कहा कि उन्‍हें 3 से ज्‍यादा शिक्षक पढ़ाते हैं। जबकि 25 प्रतिशत का कहना था कि उन्‍हें दो शिक्षक पढ़ाते हैं।

सर्वे का एक और हिस्‍सा दर्शाता है कि बच्‍चों के मन में खोट शुरू से नहीं होती। जैसे जैसे वे बड़े होते जाते हैं समाज उनकी मानसिकता को विकृत करता चला जाता है। जैसे 78 प्रतिशत बच्‍चों की राय थी कि सभी धर्मों का सम्‍मान करना चाहिए और 65 फीसदी का मानना था कि साथ में भोजन करने के मामले में जातिगत भेदभाव नहीं बरता जाना चाहिए। 79 प्रतिशत बच्‍चे बाल विवाह को गलत मानते हैं। आश्‍चर्यजनक रूप से 28 फीसदी बच्‍चों ने स्‍कूल में और 54 प्रतिशत ने घर में पिटाई को जायज माना है।

सोशल मीडिया के प्रभाव वाले आज के समय में बच्‍चों की इस बारे में राय बहुत मायने रखती है। सर्वे में शामिल 19 फीसदी बच्‍चों के पास खुद का मोबाइल था। 11 फीसदी ने स्‍वीकार किया कि सोशल मीडिया पर उनका अकाउंट है। फेसबुक की तुलना में बच्‍चे वाट्सएप का ज्‍यादा इस्‍तेमाल कर रहे हैं।

यह भी अच्‍छा संकेत है कि बच्‍चों में आदर्शवादिता का अंश काफी हद तक बाकी है। वे क्‍या बनना चाहते हैं सवाल के जवाब में 49 प्रतिशत बच्‍चों ने कहा- अच्‍छा आदमी। 17 प्रतिशत ने खिलाड़ी बनने को प्राथमिकता दी। सिर्फ 9 प्रतिशत ने कहा कि वे अमीर बनना चाहते हैं।

कुल मिलाकर ‘बच्‍चों की आवाज’ नाम से जारी यह सर्वेक्षण देश के भविष्‍य की ओर सार्थक और वस्‍तुपरक निगाह डालने का तार्किक प्रयास है। जैसा मैंने रविवार को भी कहा था कि इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसमें बच्‍चों की सीधी भागीदारी रही है। उन्‍होंने चित्रों और टिप्‍पणियों के जरिए भी अपनी बात समाज के कर्ताधर्ताओं तक पहुंचाने की कोशिश की है।

अब सबसे बड़ा सवाल है कि आगे क्‍या? सर्वे तो आ गया है, लेकिन देश में इससे पहले भी हजारों सर्वे आए रखे हैं। बड़ी बात ऐसे सर्वेक्षणों के निष्‍कर्षों पर ध्‍यान देने की और समाधानकारी उपाय करने की है। जब तक उस दिशा में बात आगे नहीं बढ़ती ऐसे सर्वेक्षण आगे भी आते-जाते रहेंगे, उनमें इसी तरह आंकड़ों का प्रस्‍तुतिकरण होगा, लेकिन अंतत: बात वहीं की वहीं रहेगी। मूल मुद्दा तसवीर बदलने का है, देखना होगा कि वो बदलती है या नहीं…

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