क्‍या ऐसी हर शपथ अमान्‍य नहीं हो जानी चाहिए?

मंगलवार को जब मैं लोकसभा में नवनिर्वाचित सांसदों का शपथ ग्रहण देख रहा था तो ऐसा लगा मानो भीष्‍म साहनी के उपन्‍यास तमस या कमलेश्‍वर के उपन्‍यास कितने पाकिस्‍तान का कोई दृश्‍य चल रहा हो, जिसमें एक तरफ हर हर महादेव के नारे हैं, तो दूसरी तरफ अल्‍लाहू अकबरके। थोड़ी देर के लिए दिमाग सुन्‍न हो गया। समझ ही नहीं आया कि इस दृश्‍य को भारत का नागरिक होने के नाते मैं किस तरह ग्रहण करूं।

इसी दौरान मेरे कानों में 17 जून को 17वीं लोकसभा की शुरुआत के दौरान मीडिया से कहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शब्‍द गूंजने लगे। वे कह रहे थे- ‘’लोकतंत्र में विपक्ष का सक्रिय और सामर्थ्यवान होना अनिवार्य शर्त है। प्रतिपक्ष के लोग नंबर की चिंता छोड़ दें। हमारे लिए उनका हर शब्द मूल्यवान हैहर भावना मूल्यवान है। जब हम चेयर पर एमपी के रूप में बैठते हैं तो पक्ष-विपक्ष से ज्यादा निष्पक्ष की भावना बहुत महत्वपूर्ण है। मुझे विश्वास है कि निष्पक्ष भाव से जनकल्याण की भावना को ध्यान में रखकर सभी सदस्य इस सदन की गरिमा को ऊंचा उठाने में योगदान करेंगे।‘’

लेकिन 24 घंटे बाद ही संसद का दृश्‍य प्रधानमंत्री के इन उदात्‍त विचारों की मानो धज्जियां उड़ा रहा था। ऐसा लग रहा था मानो यह भारत की संसद नहीं बल्कि कोईधर्म-संसद है जिसमें सारी बात जनप्रतिनिधियों के धर्म पर आकर टिक गई है। कहीं जय श्रीराम के नारे लग रहे थे तो कहीं अल्‍लाहू अकबर के, कहीं जय काली हो रहा था तो कहीं जय जय गोरखनाथ, कोई इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगा रहा था,तो कोई वंदे मातरम को इस्‍लाम के खिलाफ बता रहा था। सदन में जय भीम भी था, जय दुर्गा भी और जय पार्वती भी…

और सबसे हैरान करने वाली बात यह थी कि कोई रोकने टोकने वाला नहीं था, कोई यह पूछने वाला नहीं था कि यह क्‍या हो रहा है, क्‍यों हो रहा है… दरअसल ऐसे दृश्‍य उपस्थित हो सकते हैं, इसकी आशंका तो सोमवार को उसी समय नजर आ गई थी जब भोपाल की सांसद प्रज्ञासिंह ठाकुर की शपथ के समय बखेड़ा हुआ था। उन्‍होंने संस्‍कृत में ‘’अहं साध्‍वी प्रज्ञासिंह ठाकुर, स्‍वामी पूर्णचेतनानंद अवधेशानंद गिरि’’ कहकर अपनी शपथ की शुरुआत की थी।

विपक्ष ने इस पर आपत्ति करते हुए हंगामा किया था। प्रोटेम स्‍पीकर वीरेंद्रकुमार ने जब प्रज्ञासिंह से कहा कि आप अपने पिता का नाम बोलिए तो प्रज्ञासिंह ने जवाब दिया कि यही उनका पूर्ण नाम है और उन्‍होंने अपने फार्म में भी यही लिखा है। इस पर काफी चखचख हुई और प्रज्ञासिंह भारी टोकाटोकी के बीच अपनी शपथ पूर्ण कर सकीं। शपथ का मजमून पढ़ चुकने के बाद उन्‍होंने भारत माता की जयका नारा लगाया और संभवत: यहीं से लोकसभा में शपथ ग्रहण की नई परंपरा की नींव डल गई।

उसके बाद मंगलवार को तो खुला खेल हुआ। हुगली से भाजपा सांसद लॉकेट चटर्जी ने शपथ लेने के बाद जय हिन्दजय श्रीरामजय मां दुर्गाजय मां कालीभारत माता की जय के नारे लगाए। गोरखपुर के सांसद रवि किशन ने शपथ के बाद हर-हर महादेवजय पार्वतीगुरू गोरखनाथ की जय के नारे लगाकर हस्ताक्षर किए। उन्नाव से जीते साक्षी महाराज ने शपथ के अंत में जय श्रीराम कहा तो सदन में नारा गूंजा मंदिर वहीं बनाएंगे।मथुरा से सांसद हेमामालिनी ने शपथ का अंत राधे-राधे से किया।

बंगाल से तृणमूल कांग्रेस के सांसद जब शपथ लेने आते तो भाजपा सदस्‍य जय श्रीराम के नारों से सदन को गुंजा देते। एआईएमआईएम सांसद असदुद्दीन ओवैसी के शपथ लेने आते समय भी यही हुआ और ओवैसी दोनों हाथ उठाकर ऐसे नारों को और जोर से बोलने का इशारा करते रहे। क्रिया की प्रतिक्रिया हुई और ओवैसी ने अपनी शपथ पूरी करने के बाद कहा- जय भीम! तकबीर! अल्लाहु अकबर! जय हिंद!

पंजाब के संगरूर से आम आदमी पार्टी सांसद भगवंत मान ने शपथ लेने के बाद इंकलाब जिंदाबादका नारा लगाया तो समाजवादी पार्टी के शफीकुर रहमान बार्क ने उनकी शपथ के दौरान लगाए जा रहे वंदे मातरम के नारों का जवाब देते हुए शपथ के अंत में कहा- ‘जहां तक वंदे मातरम का ताल्लुक हैये इस्लाम के खिलाफ हैहम इसे नहीं मान सकते।’’

अब एक तरफ देश का वर्तमान संविधान कहता है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्‍य है। ऐसे में यदि शपथ संविधान के नाम पर या उसका उल्‍लेख करते हुए ली जा रही है, तो यह कैसे संभव है कि हम उसी संविधान में लिखे शब्‍दों की भावना के विपरीत जाकर पंथ या धर्म सापेक्ष नारों को अपनी शपथ के हिस्‍से के रूप में नत्‍थी कर दें। वह भी उस संसद में जहां देश के कानून कायदे बनते हैं, जो देश के संविधान की जनक और संरक्षक दोनो है।

संसद में इस तरह का माहौल डराने वाला और कई तरह की आशंकाओं को जनम देने वाला है। संसद का धार्मिक आधार पर इस तरह खुलेआम ध्रुवीकरण कभी नहीं देखा गया। ऐसा कभी नहीं हुआ कि संसद में एक तरफ जयश्रीराम के और दूसरी तरफ अल्‍लाहू अकबर के नारे लगे हों। ऐसा कभी नहीं हुआ कि सांसद की शपथ लेते समय किसी ने वंदेमातरम को इस्‍लाम के खिलाफ बताते हुए उसे बोलने से इनकार किया हो। यह जानते हुए भी कि खुद सदन में वंदे मातरम का गायन होता है।

व्‍यक्ति की निजी निष्‍ठा, आस्‍था, धर्म कुछ भी हो सकता है, लेकिन वह उसके व्‍यक्तिगत जीवन से जुड़ा मामला है। जिन लोगों ने जय श्रीराम का नारा लगाकर या अल्‍लाहू अकबरका नारा लगाकर शपथ ली है, क्‍या उनके बारे में यह माना जाए कि वे अपने संसदीय क्षेत्र के सिर्फ उन्‍हीं धर्मावलंबियों या उसी संप्रदाय/पंथ के अनुयायियों की नुमाइंदगी करने सदन में आए हैं? क्‍या उनके संसदीय क्षेत्र में सिर्फ एक ही धर्म या पंथ के लोग रहते हैं? स्‍वयं के धर्म/पंथ से अलग लोगों की परवाह करना क्‍या उनका दायित्‍व नहीं है?

आश्‍चर्य तो इस बात पर भी है कि सदस्‍य जब शपथ लेने के दौरान खुलेआम यह सबकुछ कर रहे थे, तब किसी ने उन्‍हें सख्‍ती से ऐसा करने से नहीं रोका। क्‍या सदस्‍यों को ताईद नहीं की जानी चाहिए थी कि शपथ का जो आधिकारिक मजमून है आप सिर्फ उसे ही पढ़ें उसके अलावा कुछ नहीं। ऐसा क्‍यों नहीं होना चाहिए था कि हाथ में थमाए गए शपथ के आधिकारिक मजमून के अलावा इधर उधर की बातें जोड़ देने वालों या नारेबाजी करने वालों को कहा जाता कि या तो आप दुबारा कायदे से शपथ लें अन्‍यथा आपकी शपथ अमान्‍य मानी जाएगी।

लेकिन यह वक्‍त बदलाव का है, नामुमकिन के मुमकिन हो जाने का है… तो हमारी संसद भी बदल रही है, वहां हर चीज मुमकिन हो रही है, पता नहीं देश को अभी और क्‍या-क्‍या बदलते देखना है…

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