लोकसभा चुनाव के दौरान मतदान के अंतिम दो चरणों से पहले कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के परिवार के नजदीकी, सैम पित्रोदा के एक बयान को लेकर काफी बवाल मचा था। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश में 1984 में भड़के सिख विरोधी दंगों को लेकर सैम पित्रोदा ने एक सवाल के जवाब में मीडिया को बयान दे दिया था कि- ‘हुआ तो हुआ’
उसके बाद भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पित्रोदा के इस बयान को लेकर कांग्रेस पर बुरी तरह हमलावर हो गए थे। प्रधानमंत्री ने चुनाव के अंतिम चरणों की अपनी सभाओं और रैलियों में अलग-अलग तरीके से इस बयान का उच्चारण करते हुए कांग्रेस को जमकर घेरा था। खुद पर अचानक आई आफत की तरह गिरे इस बयान से हक्की बक्की कांग्रेस को डिफेंसिव मोड में जाना पड़ा था और राहुल गांधी ने पित्रोदा को फटकार लगाते हुए उनसे कहा था कि उन्हें (पित्रोदा) इसके लिए माफी मांगनी चाहिए।
कांग्रेस और भाजपा के बीच उस बयान को लेकर चले आरोप प्रत्यारोप के दौर में मीडिया ने भी हाथ-पैर धो लिए थे। पित्रोदा के इस बयान को लेकर खूब लिखा गया। कहा गया कि कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने के लिए बाहरी लोगों की जरूरत नहीं है। पित्रोदा के बयान की आलोचना करने वालों में मैं भी शामिल था और उस समय मैंने भी लिखा था कि पित्रोदा ने कांग्रेस का खेल बिगाड़ दिया।
लेकिन मुझे अब लगता है, पित्रोदा ने कुछ भी गलत नहीं कहा था। उन्होंने जब वो बयान दिया था तब वे न गांधी परिवार के दोस्त की भूमिका में थे और न ही कांग्रेस नेता की भूमिका में। वे दरअसल वो बयान देकर भारतीय राजनीति का मूल चरित्र ही उजागर कर रहे थे। चूंकि वो चुनाव का वक्त था इसलिए बेचारे पित्रोदा या कांग्रेस टारगेट बन गए, लेकिन असलियत में यही हमारी राजनीति का असली चेहरा है। ‘हुआ तो हुआ…’
आपको यकीन न आ रहा हो तो चलिए मैं यकीन दिला देता हूं। वे ही दो घटनाएं ले लीजिए जिनका मैंने कल इसी कॉलम में जिक्र किया था। पहली पश्चिम बंगाल की और दूसरी बिहार की। बंगाल में डॉक्टरों की हड़ताल के कारण लोगों के मरने की और बिहार में समय रहते माकूल इंतजाम करने में सरकार के नाकाम रहने के कारण होने वाली बच्चों की मौतों की। क्या आपको इन दोनों मामलों में सत्ता और राजनीति का रुख यह कहता हुआ नहीं लगता कि- ‘हुआ तो हुआ।‘ बंगाल में मरीज ‘मरे तो मरे’, बिहार में बच्चे ‘मरे तो मरे…’
जब मैं यह कॉलम लिख रहा हूं तो कोलकाता से खबर आ रही है कि मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने आखिरकार डॉक्टरों से बात कर ली है और बातचीत के बाद डॉक्टर अपनी हड़ताल खत्म करने पर राजी हो गए हैं। और सरकार ने डॉक्टरों को आश्वासन क्या दिया है? उसने कहा है कि डॉक्टरों की सुरक्षा के लिहाज से हर सरकारी अस्पताल में एक नोडल पुलिस अधिकारी नियुक्त किया जाएगा। इसके अलावा अस्पतालों में एक शिकायत निवारण सेल बनाने का निर्णय भी लिया गया है।
तो क्या सिर्फ इतनी सी बात के लिए बंगाल के लोगों को पूरे एक सप्ताह इलाज से वंचित रहना पड़ा? क्या सिर्फ इसीलिए न जाने कितने ही लोगों को इलाज के अभाव में दम तोड़ना पड़ा? आप सरकार चला रहे हैं या भड़भूंजे की दुकान? क्या सरकार में आपको इसीलिए बिठाया गया है कि आप सिर्फ और सिर्फ सत्ता के चने भूंजते रहें? जो बात सात दिन बाद जाकर हुई वह पहले या दूसरे दिन क्यों नहीं हो सकती थी? जो निर्णय एक सप्ताह बाद हुए वे तत्काल क्यों नहीं हो सकते थे? कम से कम हजारों लोग इलाज से वंचित तो नहीं रहते, बड़ी संख्या में लोग मौत के मुंह में तो नहीं जाते।
लेकिन नहीं, यदि मद या अहंकार न चढ़े तो सत्ता का मजा ही क्या है? जो राज्य में थे वे भी राजनीति कर रहे थे और जो केंद्र में थे वे भी। राज्य की मुख्यमंत्री अपनी नाक की ऊंचाई को मेन्टेन करने में लगी हुई थीं और केंद्र की सरकार ‘एडवायजरी’ जारी करने में। उधर डॉक्टर अपने साथ हुई निंदनीय घटना के बावजूद, राजनीति का टूल बने हुए थे। सबने जी भर के अपनी अपनी कर ली… अब यदि आप पूछें कि जनता को जो कष्ट हुआ उसका क्या? तो जवाब यही होगा- हुआ तो हुआ…
यही हाल बिहार का है। वहां चमकी बुखार से बच्चे मर रहे हैं। इस बीच खबर आई है कि मौतें सिर्फ चमकी बुखार से ही नहीं, लू से भी हो रही हैं। और कोई पांच दस नहीं, स्थानीय मीडिया के मुताबिक लू से मरने वालों की संख्या 200 का आंकड़ा छूने जा रही है। मुझे मुजफ्फरपुर के ही रहने वाले पत्रकार मनीष अग्रवाल ने लिखा–‘’पिछले 4-5 सालों में इस बीमारी पर काफी हद तक काबू पाया गया था। वह भी केवल उन तरीकों से जिनका जिक्र आपने अपने लेख में किया है। इन मौतों के बाबत जब अश्विनी चौबे जी (केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री) ने कहा था कि इस बार प्रशासन चुनाव व अन्य कार्यों में व्यस्त रहा, जिसकी वजह से इसकी रोकथाम पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया, तो यह बात कहीं ना कहीं सच है।‘’
मतलब यदि हमारे यहां चुनाव हैं, तो बच्चों को उस महामारी से बचाने के उपाय भी नहीं होंगे जिसमें हमें दस्तावेजी रूप से पता है कि इसमें सैकड़ों बच्चों की जान जा सकती है। हम फेनी या वायु जैसे चक्रवाती तूफानों के पूर्वानुमानों के आधार पर इतनी तैयारी जरूर कर लेंगे कि मौतों की संख्या कम से कम रखते हुए संयुक्त राष्ट्र तक से अपनी पीठ ठुकवा लें। लेकिन हम हर साल पड़ने वाली गरमी और लू से लोगों को मरने से बचाने का प्रबंध नहीं कर सकते। ठीक बात है, सरकार या राजनीति का काम लू चढ़ाना है, लू उतारना नहीं। उससे लोगमरें तो मरें…
तो भाई सैम पित्रोदा, हमें माफ कर देना, तुम खामखां ही शिकार बन गए, हम तो भूल ही गए थे कि तुमने जो वो ‘हुआ तो हुआ’ कहा था वह कोई आपत्तिजनक बयान नहीं था, तुमने तो भारतीय राजनीति के उस मंत्र को ही दोहराया था जो उसे घुट्टी में पिलाया गया है। बेहतर होगा देश भी यह ‘हुआ तो हुआ…’ का मंत्र जितनी जल्दी हो सके सीख ले।
विचारपरक टीप.हर बार की तरह.
धन्यवाद जी