स्कूली परीक्षा में बच्चों के प्रदर्शन की इस होड़ ने देश में शिक्षा के क्षेत्र में निजी संस्थाओं की बाढ़ सी ला दी है। जिन छात्रों को प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों, सरकारी कॉलेजों अथवा राष्ट्रीय स्तर की अन्य संस्थाओं में प्रवेश नहीं मिलता वे निजी संस्थाओं की ओर मुड़ते हैं।
हालांकि आजकल अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए कई निजी संस्थान भी मेरिट के आधार पर ही प्रवेश देते हैं, लेकिन ऐसे ज्यादातर निजी संस्थानों में पैसा प्रतिभा से ज्यादा मायने रखता है। और ऐसे में कम अंक पाने वाला यदि कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि का हुआ तो उसे यहां भी जगह नहीं मिल पाती।
ऐसा नहीं है कि सरकारों को यह स्थिति पता नहीं है। जानते सब हैं लेकिन हल कोई नहीं निकालना चाहता। पढ़ लिखकर अच्छी नौकरी या रोजगार पाने का सपना लिए युवाओं को शायद इसीलिए सलाह दी जाने लगी है कि वे पकौड़े की दुकान लगाकर या पान की गुमटी खोलकर भी आजीविका चला सकते हैं।
एक पत्रकार होने के नाते मुझे रिपोर्टिंग के लिए कई जगह जाने-आने का अवसर मिला। ऐसी ज्यादातर यात्राएं किराये के वाहन से होती हैं। यात्रा में जब आप और ड्रायवर अकेले हों तो समय काटने के लिए बातचीत ही एकमात्र सहारा होती है। इस तरह की बातचीत में अकसर समाज की ऐसी ऐसी बातों निकल कर आती हैं कि आप चौंक जाएं।
ऐसी बातचीत के दौरान मैं ड्रायवर से उसकी पढ़ाई के बारे में जरूर पूछता हूं। कई बार ऐसे मौके आए जब मैंने ड्रायवर से उसकी शिक्षा के बारे में पूछा और उसने या तो खुद को ग्रेजुएट बताया या फिर पोस्ट ग्रेजुएट। एक बंदे ने इतिहास में एम.ए. किया हुआ था तो दूसरे ने भूगोल में… मैंने उनसे इतना पढ़ा लिखा होने के बावजूद टैक्सी चलाने का कारण पूछा तो उनका कहना था- ‘’क्या करें, नौकरी मिलती ही नहीं… पेट तो भरना है…’’
एक तरफ ये हाल हैं और उधर विशेषज्ञ 90 फीसदी से भी ज्यादा अंक पाने वाले छात्रों के स्तर को लेकर कुछ और ही राय रखते हैं। आदित्य बिड़ला समूह के साथ मुख्य शिक्षा अधिकारी के रूप में काम कर रहे श्यामलाल गांगुली कहते हैं– ‘’ ये नकली अंक हैं, मैं पेपर सेटर और मुख्य परीक्षक रहा हूं। मैं किसी भी छात्र द्वारा 90 प्रतिशत की स्कोरिंग के बारे में सोच भी नहीं सकता।‘’
वे बताते हैं- ‘’मेरा विषय विज्ञान है, जहां अभी भी शत प्रतिशत स्कोर करना संभव है। लेकिन अंग्रेजी, इतिहास और अर्थशास्त्र में पूर्ण अंक प्राप्त करना आश्चर्यजनक है। पहले, 60 प्रतिशत स्कोर पर पूरा समुदाय जश्न मनाता था, 75 प्रतिशत अंक विशिष्ट होते थे, जो दस लाख में से एक को मिलते थे। पर आजकल तो जश्न तभी मनाया जाता है जब बच्चे ने 95 प्रतिशत से अधिक अंक प्राप्त किये हों।
दरअसल पढ़ाई के तौर तरीकों के साथ-साथ हमारी परीक्षा प्रणाली भी शिक्षा की गुणवत्ता को कम कर रही है। आज पेपर सेटर से लेकर परीक्षक तक, मूल्यांकन की कसौटियों को कमजोर किया जा रहा है। ऐसा यह सुनिश्चित करने के लिए हो रहा है कि यदि कम अंक आए तो परीक्षा परिणाम सफल नहीं माना जाएगा। इसी दबाव में हर कदम पर अंक बढ़ाए जा रहे हैं।
प्रवेश को लेकर सबसे ज्यादा दबाव झेलने वाले दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कुलपति ने बहुत सारे छात्रों को एडमिशन न मिल पाने के बारे में कहा था कि इसमें डीयू का कोई दोष नहीं है। दोषी तो सीबीएसई और आईसीएसई जैसी संस्थाएं हैं जो अंक देने के मामले में अत्यधिक उदारता बरत रही हैं।
एक बुराई यह भी पनपी है कि सीबीएसई और आईसीएसई की देखादेखी राज्य शिक्षा बोर्डों ने भी अपने विद्यार्थियों को उदारतापूर्वक नंबर देना शुरू करवा दिया है, ताकि संबंधित राज्यों के छात्र-छात्राओं को भी अच्छी और नामचीन संस्थाओं में प्रवेश मिल सके। चूंकि नामी संस्थाओं में कटऑफ मार्क्स का महत्व होता है, इसलिए राज्य एवं केंद्रीय बोर्डों द्वारा उदार नंबरों का धक्का देकर आगे लाए गए छात्र भी प्रवेश पा जाते हैं।
शिक्षाविद् बताते हैं कि हालांकि बाद में इन टॉपर्स को स्नातक स्तर पर काफी संघर्ष करना पड़ता है। यह प्रणाली हमारे कॉलेजों और छात्रों दोनों के लिए हानिकारक है। हम अपने बच्चों के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं।
बातचीत के दौरान कुछ लोगों ने यह सवाल भी उठाया कि यदि बच्चे इतने ही प्रतिभाशाली हैं तो फिर उन्हें स्नातक में भी इतने ही या इनके आसपास नंबर आने चाहिए, पर ऐसा कभी नहीं सुना गया कि किसी ने स्नातक की परीक्षा 99.8 फीसदी अंकों से पास की हो।
ऐसा नहीं है कि इन स्थितियों को लेकर माता पिता चिंतित नहीं है। आल इंडिया पेरेंट्स एसोसिएशन के अध्यक्ष अशोक अग्रवाल कहते हैं कि अच्छे अंकों से बच्चों व उनके माता-पिता का मनोबल जरूर बढ़ता है, पर मुसीबत तब होती है जब इन बच्चों को उत्कृष्ट संस्थानों में प्रवेश नहीं मिल पाता।
अग्रवाल के अनुसार- ‘’चूंकि कट ऑफ का प्रतिशत बढ़ता ही जा रहा है इसलिए छात्रों पर दबाव भी बढ़ रहा है। प्रवेश प्रक्रिया पहले से अधिक प्रतिस्पर्धी बन गई है। बच्चों के लिये ‘योग्यतम की अतिजीविता’ वाली यह स्थिति अच्छी नहीं है। इससे माता-पिता पर आर्थिक बोझ बढ़ता है क्योंकि अच्छे नंबर लाने के लिए उन्हें ट्यूशन आदि में निवेश करना पड़ता है।‘’
आगे अच्छे संस्थान में प्रवेश मिल सके, इसलिए बच्चे हाड़तोड़ मेहनत करते हैं और उसके चलते उनका जीवन एक मशीन की तरह हो जाता है। वे स्कूल, ट्यूशन और घर तक ही सिमट जाते हैं और घड़ी के गुलाम बनकर रह जाते हैं। तो क्या हम बच्चों के लिए ऐसा जीवन चाहते हैं जो उन्हें जिंदगी के ऐसे समय में समाज से काटकर रखे, जिस समय उन्हें समाज से सबसे ज्यादा सीखने की जरूरत होती है…
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सोमवार को पढ़ें- यह व्यवस्था बच्चों और समाज का कितना नुकसान कर रही है।