परीक्षा की कसौटी ही बेमानी हो जाएगी तो क्‍या होगा?

जिस गति से छात्र परीक्षा में नंबर की सीढ़ी चढ़ रहे हैं उससे लगता है कि पूर्णांकों का बैरियर जल्‍दी ही अपने मायने खो देगा। आज दसवीं के परिणाम में 27 हजार 476 बच्‍चे 95 फीसदी से ज्यादा और एक लाख 31 हजार 493 बच्‍चे 90 फीसदी से ज्‍यादा नंबर स्‍कोर करते हैं। इसी तरह 12 वीं में 12,737 बच्‍चों को 95 प्रतिशत से ऊपर और 72  हजार 599 को 90 प्रतिशत या उससे ऊपर अंक आते हैं तो इसका यही संकेत समझना चाहिए।
इसमें भी प्रावीण्‍य सूची में आने वाले छात्रों ने तो अधिकतम से एक या दो नंबर ही कम प्राप्‍त किए हैं। जब यह पीढ़ी यहां तक आ पहुंची है तो यकीन मानिए आने वाले दिनों में 100 में से 100 यानी पूरे में से पूरे नंबर पाने वालों की संख्‍या लगातार बढ़ती ही जानी है। वैसी स्थिति में परीक्षा का क्‍या अर्थ रह जाएगा और पूर्णांकों का क्‍या महत्‍व रहेगा?
मेरी बात पर आपको यकीन न आए तो जरा सीबीएसई की 12 वीं परीक्षा के पिछले कुछ सालों के परिणामों पर नजर डाल लीजिए। इस बार ऑल इंडिया टॉपर ने 99.8 प्रतिशत अंक प्राप्त किए। 2017 में अधिकतम अंक प्राप्त करने वाले को 99.6 प्रतिशत अंक मिले थे। 2016 में यह प्रतिशत 99.4 था और 2015 में 99.2 प्रतिशत।
तो देखा आपने, इस तरह जब कसौटी की ही सीमा समाप्‍त हो रही हो तो परीक्षा किस बात की होगी और मूल्‍यांकन किस आधार पर होगा? यदि ज्‍यादातर को शत प्रतिशत अंक मिलने लगेंगे या 95 फीसदी अथवा उससे अधिक अंक मिलेंगे तो परीक्षा के मायने ही क्‍या रह जाएंगे। और जिसने सौ फीसदी अंक पा लिए उसे तो आपको सर्वज्ञ मानना ही पड़ेगा। लेकिन क्‍या हम ऐसा कर सकते हैं?
इस स्थिति को लेकर शिक्षाविद और विशेषज्ञ भी चिंतित हैं। सीबीएसई के पूर्व अध्‍यक्ष अशोक गांगुली कहते हैं कि 12 वीं बोर्ड परीक्षा में शामिल होने वाले 7 प्रतिशत से अधिक छात्र 90 प्रतिशत एवं उससे अधिक प्राप्तांकों के साथ परीक्षा उत्तीर्ण करते हैं, तो निश्चित रूप से यह परिदृश्य अच्छा नहीं है।
उनका मानना है कि ‘’यह स्थिति छात्रों के लिहाज से सामान्‍य नहीं बल्कि विषम है। यह पूरा परिदृश्‍य हमारी परीक्षा प्रणाली की विश्वसनीयता, स्थिरता और वैधता पर सवाल उठाता है। और ऐसा सभी बोर्डों में हो रहा है। यह भारतीय शिक्षा प्रणाली में एक विरोधाभास को इंगित करता है।‘’
ऐसी परीक्षाएं पास करने के बाद छात्र उच्‍च शिक्षा की ओर अग्रसर होते हैं। तो आइए जरा उसकी स्थिति भी जान लें। आल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन 2016-17 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 864 विश्‍वविद्यालय और 40 हजार से अधिक कॉलेजों के अलावा 11 हजार 669 एकल संस्‍थान है जो विभिन्‍न प्रकार का शिक्षण प्रशिक्षण देते हैं।
आईआईएम जैसी संस्‍थाओं में करीब सवा तीन हजार सीटें हैं तो आईआईटी में करीब दस हजार। इसी तरह देश के मेडिकल कॉलेजों में कुल 61390 सीटें उपलब्‍ध है, जबकि ऑल इंडिया कौंसिल फॉर टेक्निकल एजुकेशन से संबद्ध तकनीकी शिक्षाओं की क्षमता 35 लाख 52 हजार 249 है।
ये उन शीर्ष संस्‍थाओं की स्थिति है जहां पढ़ाई करना हरेक छात्र का सपना होता है। हालांकि ऐसी कई संस्‍थाओं में प्रवेश पाने का एक और छन्‍ना लगा होता है और इनके लिए अलग से प्रवेश परीक्षा देनी होती है। जो छात्र इनमें प्रवेश पाना चाहते हैं वे अलग से तैयारी करते हैं।
लेकिन जिनकी अंकसूचियां ऐसा सपना भी देखने की इजाजत नहीं देतीं वे सामान्‍य तौर पर बीए, बीकॉम और बीएससी जैसी कक्षाओं में प्रवेश लेते हैं। मैंने काफी कोशिश की कि वह आंकड़ा भी मुझे मिल जाए जो बताता हो कि भारत के कॉलेजों में बीए, बीकॉम और बीएससी जैसे पाठ्क्रमों के लिए कुल कितनी सीटें उलब्‍ध हैं, लेकिन वह संख्‍या मुझे नहीं मिल सकी।
यदि हम परीक्षा परिणामों और हाथ आई अंकसूचियों के लिहाज से इन ‘गरीब-गुरबों’ की ही बात करें तो वहां भी हालात ठीक नहीं हैं। अशोक गांगुली कहते हैं कि हमारी उच्‍च शिक्षा संस्‍थाओं में मांग और आपूर्ति के बीच बड़ा अंतर है और पूरी प्रवेश प्रणाली निष्कासन की प्रक्रिया पर आधारित है।
वे कहते हैं- ‘’भारत के प्रमुख कॉलेजों में 70 प्रतिशत अंक हासिल करने वाले लोगों के लिए वास्तव में कोई उम्मीद बचती ही नहीं है। ऐसी स्थिति में उनमें से कुछ सायंकालीन कक्षाओं या व्यावसायिक कॉलेजों में प्रवेश तलाशते हैं तो कुछ विदेशी पाठ्यक्रमों में शामिल होने पर विचार करने लगते हैं।‘’
दरअसल सर्वशिक्षा अभियान ने 12 वीं तक पढ़ाई कर परीक्षा पास करने वालों की तादाद बहुत बढ़ा दी है, लेकिन स्‍कूल से पास होकर निकलने वाले छात्र-छात्राओं के लिए उच्‍च शिक्षा की डगर आसान नहीं है। वास्‍तविकता तो यह है कि हमारी उच्‍च शिक्षा का ढांचा इतना भार सहन करने की स्थिति में ही नहीं है।
गांगुली के मुताबिक ‘’12 वीं की परीक्षा पास करने वाले छात्रों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने से सिर्फ इस आधार पर कैसे रोका जा सकता है कि वे तथाकथित ‘उच्च अंक’ प्राप्‍त नहीं कर सके। अब समय आ गया है कि हम स्‍नातक पाठ्यक्रमों में निष्कासन के बजाय चयन की प्रक्रिया के आधार पर सोचें।‘’
परीक्षा परिणामों पर आधारित इस श्रृंखला के पहले भाग को पढ़ने के बाद मुझे एक मां ने अपनी प्रतिक्रिया भेजी, कहा- ‘’मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूं। मेरे बेटे के 92 प्रतिशत मार्क्‍स आए हैं कक्षा 12 में, कॉमर्स स्‍ट्रीम से। लेकिन उसे कोई उम्‍मीद नहीं है कि उसे दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय के अच्‍छे कॉलेज में बीकॉम ऑनर्स में दाखिला मिल जाएगा।‘’
उन्‍होंने अपनी पीड़ा व्‍यक्‍त करते हुए लिखा- ‘’यही केस मेरे बड़े बेटे के साथ हुआ था। उसके 91 प्रतिशत थे, कॉमर्स में, लेकिन उसे डीयू के किसी अच्‍छे कॉलेज में दाखिला नहीं मिला था।‘’
ध्‍यान दीजिए यह बात वह मां कह रही है जिसके बेटों ने 91 और 92 फीसदी अंक हासिल किए हैं। और यह अकेले दिल्‍ली की पारुल जी की ही पीड़ा नहीं है, ऐसे हजारों मां बाप होंगे जो हाथ में बच्‍चों की 70, 80 और 90 फीसदी अंकों की सूचियां लिए कॉलेज दर कॉलेज ठोकरें खा रहे होंगे।

– कल पढ़ें कुछ और विशेषज्ञों और माता पिता की बात…

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