एकता में ताकत ही नहीं होती आतंक भी होता है

आप और हममें से बहुत सारे लोगों ने दूरदर्शन की वह मशहूर एनीमेटेड शार्ट फिल्‍म देखी होगी जिसका टाइटल था ‘एक, अनेक और एकता’… यह फिल्‍म पंडित विनयचंद्र मौद्गल्‍य की कविता पर आधारित थी  जिसके बोल थे ‘एक चिडि़या, अनेक चिडि़यां…’ एनसीईआरटी द्वारा प्रायोजित इस फिल्‍म का निर्देशन विजया मुले ने किया था।

यह कविता एक ऐसे बहेलिये की कहानी है जो चिडि़यों को पकड़ने के लिए जाल बिछाता है, अनेक चिडि़यां उसमें फंस जाती हैं लेकिन वे एकजुट होकर उस जाल को ही ले उड़ती हैं और अपने मित्र चूहों की मदद से उस जाल को कटवाकर मुक्‍त हो जाती है और बहेलिया हाथ मलता रह जाता है। इस छोटी सी फिल्‍म का मूल उद्देश्‍य बच्‍चों को एकता की ताकत बताने का था। दूरदर्शन ने इसे 1974 में जारी किया था और यह शार्ट फिल्‍म बहुत लोकप्रिय हुई थी।

लेकिन उस बात को अब 45 साल हो गए हैं। इन सालों में एक पीढ़ी पैदा होकर प्रौढ़ हो चली है। और इसीके साथ एकता के मायने और उद्देश्‍य भी बहुत कुछ बदल गए हैं। वह कविता मिलजुलकर रहने और एकजुट होकर दुष्‍ट प्रवृत्तियों का मुकाबला करने की शिक्षा देती थी लेकिन आज उस एक‍ता में छिपा सकारात्‍मकता का स्‍वर गायब हो गया है।

अब एकता का अर्थ गिरोहबंदी है। और यह गिरोहबंदी एकता की ताकत का नहीं बल्कि साथ आकर आतंक मचाने का जरिया बन गई है। अब लोग मिलजुलकर लोगों की जान बचाने के बजाय, मिलजुलकर मॉब लिंचिंग करने लगे हैं। यह मॉब लिंचिंग इंसानों से लेकर सिस्‍टम तक की हो रही है। अब आपको मनचाहा करवाने के लिए आसमान में सुराख करने वाला पत्‍थर उछालने की जरूरत नहीं है, बस चंद लोगों को इकट्ठा करके सड़क पर बैठ जाने या दफ्तरों में ताले लटका देने जैसा दबाव बनाने की जरूरत है।

दिल्‍ली में हुए पुलिस-वकील विवाद में छिपे संदेश को पढ़ने की कोशिश करें तो आपको साफ साफ पता चलेगा कि शासन, प्रशासन, कानून, कायदा, संविधान, अनुशासन सब एकतरफ धरे रह जाते हैं यदि आप में भीड़ को साथ लेकर हंगामा करने और सामने वाले को अपनी शर्तों और मांगों के सामने झुकाने की कूवत हो। दिल्‍ली की घटना विशुद्ध रूप से एक आपराधिक मामला है और कायदे से इसमें दोनों पक्षों के खिलाफ समान रूप से कानूनसम्‍मत कार्रवाई होनी चाहिए।

लेकिन हो क्‍या रहा है। एक तरफ वकील अपनी मनमानी पर उतारू हैं तो दूसरी तरफ पुलिस अड़ी हुई है। न्‍याय व्‍यवस्‍था के ये दोनों स्‍तंभ एक दूसरे के खून के प्‍यासे नजर आ रहे हैं। और दुर्भाग्‍य देखिये कि जिस न्‍याय पीठ पर ऐसे मसलों को न्‍यायपूर्ण तरीके से सुलझाने की जिम्‍मेदारी है, उस न्‍यायपीठ के रुख पर भी ‘पक्षपातपूर्ण’ रवैया अपनाने के आरोप लग रहे हैं।

पांच नवंबर का दिन दिल्‍ली में यदि पुलिसवालों का था तो छह नवंबर का दिन वकीलों के नाम रहा। वकीलों ने अदालतों में काम बंद कर दिया। जाने कहां कहां से अपने मामलों की सुनवाई और पेशी को लेकर कोर्ट के दरवाजे पर पहुंचे लोगों को गेट पर ताला मिला। ऐसे असहाय लोगों के इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं था कि आखिर उनकी क्‍या गलती है और वे अपनी समस्‍या लेकर किसके पास जाएं?

बुधवार को यह मामला फिर हाईकोर्ट पहुंचा तो हाईकोर्ट ने साफ कहा कि वकीलों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई नहीं की जाएगी। कोर्ट ने दिल्ली पुलिस की वह दूसरी अर्जी भी खारिज कर दी जिसमें साकेत कोर्ट वाली घटना पर एफआईआर दर्ज करने की मंजूरी मांगी गई थी। हाईकोर्ट ने कहा कि 3 नवंबर के आदेश में स्पष्टीकरण की कोई जरूरत नहीं है। जबकि केंद्र ने अपनी याचिका में कहा था कि 3 नवंबर वाला आदेश तीसहजारी मामले के बाद की घटनाओं पर लागू नहीं होना चाहिए।

पांच नवंबर को वरिष्‍ठ अधिकारियों की कई घंटों की मान मनौवल के बाद धरना प्रदर्शन खत्‍म करने को राजी हुए पुलिसवाले 6 नवंबर को दिल्‍ली की अदालत परिसर में नहीं पहुंचे। टीवी चैनलों के साथ वकील अदालत परिसर में घूम घूमकर बताते रहे कि वहां सुरक्षा के लिए एक भी पुलिसवाला मौजूद नहीं है। वकीलों का कहना था कि पुलिस अपने अधिकारों का गलत इस्‍तेमाल कर रही है और उस पर तुरंत कार्रवाई की जानी चाहिए।

ऐसा लगता है कि लोगों ने अब एक होकर आतंक मचाने या दबाव डालकर अधिकारियों व सरकारों को झुकाने का हुनर सीख लिया है। समूह की ताकत को गिरोह के आतंक में तब्‍दील किया जा रहा है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि जिस तरह लोगों के पास निजता का अधिकार है उसी तरह उन्‍हें समूह बनाने की भी छूट है। लेकिन यह समूह गिरोह में तब्‍दील होकर आपराधिक या हिंसक आचरण नहीं करने लगेगा इसकी कोई गारंटी नहीं।

आज किसी डॉक्‍टर के साथ कुछ हो जाए तो अस्‍पतालों में हड़ताल हो जाती है, वकील के साथ हादसा हो जाए तो अदालतों में ताले लग जाते हैं, व्‍यापारियों के साथ घटना हो तो बाजार बंद हो जाते हैं, राजनीतिक दलों का तो खैर इस तरह के बंद, धरना, प्रदर्शन, आंदोलन पर अधिकार है ही। ऐसे में जनता बेचारी क्‍या करे। वह कहां जाए। वह किसके खिलाफ धरना दे या प्रदर्शन करे।

जिस तरह अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता उसी तरह अकेला आदमी असहाय होकर सिर्फ ऐसी घटनाओं का शिकार बन सकता है, वह कर कुछ नहीं सकता। अकेला आदमी यदि कुछ कहना या करना भी चाहे तो उसे धक्‍के मारकर बाहर का रास्‍ता दिखा दिया जाता है जैसा हमारे मध्‍यप्रदेश के होशंगाबाद में कलेक्‍टर की जनसुनवाई का एक किस्‍सा इन दिनों सोशल मीडिया पर चल रहा है।

निश्चित रूप से समूह में ताकत होती है। पर उस ताकत का इस्‍तेमाल समूह के नेतृत्‍व और सामूहिक विवेक पर निर्भर करता है। अलग अलग वर्गों की यूनियनों व संगठनों ने अपने अहं की तुष्टि के लिए देश के सामाजिक और आर्थिक ढांचे को कितना नुकसान पहुंचाया है उसकी कथा किसी से छिपी नहीं है। जरूरत इस बात की है कि समूह को भीड़ होने से बचाया जाए। ‘अनेकता में एकता’ भारत की पहचान है लेकिन इस पहचान का विस्‍तार ‘एकता में आतंक’ के रूप में नहीं होना चाहिए।

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