कानून के रक्षक और न्याय के सेवक में टकराव घातक है

2 नवंबर को जो बात छोटी सी चिंगारी के साथ शुरू हुई थी वह तीन दिन बाद बहुत बड़े विस्फोट में तब्दील हो गई। आमतौर पर कहा जाता है कि बारूद तो बिछी हुई थी बस जरा सी चिंगारी लगने की देर थी। लेकिन देश की राजधानी में दो नवंबर से लेकर पांच नवंबर तक वकीलों और पुलिस के बीच हुए संघर्ष का जो विस्फोटक रूप सामने आया है उसमें तो यह भी नहीं लगता कि दोनों के बीच कोई बारूद पहले से बिछी हुई थी।

पुलिस और वकीलों का रोज का रिश्ता है। यह रिश्ता कामकाजी भी है और कई बार एक दूसरे की ‘जरूरतों’ का ख्याल रखने वाला भी है। पुलिस जहां कानून की रक्षक है तो वकीलों को हम न्याय या कानून का सेवक कह सकते हैं। दोनों ही हमारे न्यायतंत्र के ऐसे खंभे हैं जिन पर अपराध और सजा का पूरा सिस्टम टिका हुआ है। लेकिन दिल्ली में दोनों ही पक्ष एक दूसरे के खिलाफ तलवारें लेकर खड़े दिखाई दे रहे हैं।

5 नवंबर को मैं जब यह कॉलम लिख रहा हूं उस समय तमाम टीवी चैनलों पर उन सैकड़ों पुलिसवालों की तसवीरें और बाइट दिखाई जा रही हैं जो दिल्ली पुलिस मुख्यालय के सामने कई घंटे से धरना दिए बैठे हैं। दिल्ली पुलिस के मुखिया, पुलिस कमिश्नर अतुल्य पटनायक खुद अपने ही इन गुस्साए साथियों के बीच आकर उनसे काम पर लौटने की अपील कर चुके हैं लेकिन पुलिस वाले आरपार की लड़ाई की मुद्रा अपनाते हुए टस से मस होने को राजी नहीं हैं।

राजधानी में पूरे दिन यही खेल चलता रहा। पुलिस वाले टीवी माइक के सामने सवाल पूछ रहे थे कि जब हम खुद की ही रक्षा नहीं कर सकते तो जनता की रक्षा कैसे कर पाएंगे? जब हमारा मनोबल ही टूटा होगा तो जनता का मनोबल कैसे बनाए रखेंगे? पिछले दिनों आई बॉलीवुड की चर्चित फिल्म ‘उरी’ के मशहूर डायलॉग- ‘’हाऊ इज द जोश- हाई सर’’ की तर्ज पर आंदोलनकारी पुलिसवाले, पुलिस मुख्यालय के सामने हाथों में तख्तियां लिए खड़े थे- ‘’हाऊ इज द जोश- लो सर’’…

दूसरी तरफ पुलिस के तमाम आला अफसर गुस्साए मातहतों को अपने अपने स्तर पर मनाने की कोशिश करते हुए उनसे अपना कर्तव्य‍ निभाने की अपील कर रहे थे। पर जैसे ही इस तरह की कोई अपील होती, भीड़ में से या तो उसके खिलाफ शोर होने लगता या फिर ‘वी वांट जस्टिस’ के नारे सुनाई देने लगते। पुलिसवालों का गुस्सा इस बात पर ज्यादा है कि एक तो वकीलों ने उनकी पिटाई की उलटे पूरे मामले में पुलिसवालों को ही टारगेट बना दिया गया। यहां तक कि हाईकोर्ट ने भी पुलिस के पक्ष को नजरअंदाज कर दिया।

दिल्ली का विवाद 2 नवंबर को तीस हजारी कोर्ट में वकील और पुलिसवालों के बीच पार्किंग को लेकर हुई मामूली कहासुनी से शुरू हुआ था जो अब बवाल बन चुका है। दरअसल, मुजरिमों को सुनवाई के लिए लाने वाली पुलिस लॉकअप वैन के सामने एक वकील ने कार पार्क कर दी थी। पुलिसवाले ने इसका विरोध किया तो दोनों में बहस हो गई। इसी दौरान अफवाह उड़ गई कि पुलिसवालों की गोली से एक वकील की मौत हो गई है। उसके बाद वकीलों ने पुलिसवालों पर हमला बोल दिया। कोर्ट परिसर में हुई इस हिंसा में दोनों पक्षों के 28 लोग जख्मी हुए और पुलिस के कई वाहन फूंक दिए गए।

मामला बढ़ा तो हाईकोर्ट ने इसका संज्ञान लेते हुए रविवार को ही घटना की न्यायिक जांच के आदेश देते हुए डेढ़ माह में रिपोर्ट मांगी। जांच पूरी होने तक पुलिस के दो सीनियर अफसरों का तबादला करने, किसी भी वकील पर दर्ज एफआईआर पर कोई कार्रवाई न करने के भी निर्देश दिए। इस बीच दो पुलिस अफसरों को सस्पेंड भी कर दिया गया।

4 नवंबर को वकीलों ने हड़ताल की और इसी दौरान साकेत और कड़कड़डूमा कोर्ट में पुलिसवालों को पीटा गया। सुप्रीम कोर्ट के वकीलों ने इंडिया गेट तक मार्च भी निकाला। उधर आईपीएस एसोसिएशन ने दिल्ली पुलिस का समर्थन करते हुए कहा कि हम अपमान और हमले के शिकार पुलिसकर्मियों के साथ हैं। और पांच नवंबर को पुलिस वाले सड़कों पर उतर आए।

दरअसल यह पूरा मामला इसलिए भी गंभीर और संवेदनशील है क्योंकि इसमें कानून व्यवस्था से जुड़े लोग ही कानून को अपने हाथ में लेने या कि उसकी धज्जियां उड़ाते नजर आए हैं। निश्चित रूप से पुलिस एक अनुशासित फोर्स है और इस तरह उसका सड़क पर उतर आना और उच्च अधिकारियों की अपील को भी अनसुना कर देना बहुत चिंता में डालने वाली घटना है।

लेकिन वकीलों का आचरण भी कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता। वकीलों का काम किसी भी मामले को न्याय के लिए अदालत तक ले जाना और वहां से संबंधित पक्ष को न्या‍य दिलवाना है। यदि वे ही सड़कों पर कानून हाथ में लेकर इस तरह हिंसक ‘फैसले’ करते रहेंगे तो फिर बचेगा ही क्या?

इस मामले में हाईकोर्ट द्वारा की गई कार्रवाई को भी प्रश्नों से परे नहीं रखा जा सकता। जब हिंसा में दोनों पक्ष शामिल थे तो ऐसा कोई भी संकेत जाना खतरनाक हो सकता था जिससे यह लगे कि फैसला एकतरफा हुआ है। और यही हुआ भी। पांच नवंबर को पुलिसवालों का गुस्सा इस बात पर सबसे ज्यादा था कि उनके पक्ष पर तो कार्रवाई हुई लेकिन हमलावर वकीलों पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। धरने पर बैठे पुलिसवालों की प्रमुख मांग ही यह थी कि घटना में शामिल वकीलों पर भी कार्रवाई की जाए।

चिंता एक और बात को लेकर भी हुई कि पांच नवंबर को पूरे दिन टीवी देखकर यही लगा मानो यह सिर्फ वकीलों और पुलिसवालों के बीच का मामला है। जबकि इसे देश की संपूर्ण शासन व्यवस्था से जुड़े मामले की तरह लिया जाना चाहिए था। एक तरफ जहां दिल्ली में रहने वाले तमाम रिटायर्ड वरिष्ठ पुलिस अफसरों को आकर पुलिस वालों को समझाने की कोशिश करनी चाहिए थी, वहीं देश के तमाम वरिष्ठ वकीलों को अपनी बिरादरी के उन लोगों की निंदा करते हुए, उन पर सख्त  कार्रवाई की मांग करनी चाहिए थी जो मारपीट में शामिल थे।

पर ऐसा लगता है कि समाज की भी रुचि मामलों को ठंडा करवाने में नहीं रही है। ऐसी घटना हो जाने पर उससे निपटने का तरीका और मैकेनिज्म क्या हो इस पर भी कभी विचार नहीं होता। दिल्ली के घटनाक्रम के संदर्भ में मेरी पंजाब के पूर्व एडीजी रोहित चौधरी से बात हुई जिन्होंने ‘शांतिपूर्ण जनआंदोलनों से पुलिस कैसे निपटे’ इस पर एक शोध पत्र लिखा है। यह शोध पत्र बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के आंदोलन के विशेष संदर्भ में लिखा गया था। मैंने उनसे पूछा कि यदि खुद पुलिस वाले ही किसी आंदोलन पर उतर आएं तो उससे कैसे निपटा जाए? उनका कहना था पहले तो हमें ऐसी लीडरशिप देनी होगी जिसे फोर्स का विश्वास हासिल हो, दूसरे हमें ऐसा मैकेनिज्म बनाना होगा कि निचले स्तर के कर्मचारियों की आवाज भी ऊपर तक पहुंच सके। उन्हें यह विश्वास हो कि उनकी बात भी सुनी जाएगी।

निश्चित तौर पर सारा मामला आपसी समझ और विश्वास पर ही टिका है। और दिक्कत यह है कि इन दिनों इन दोनों का ही भारी संकट है…

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