-पुस्तक समीक्षा-
अजय बोकिल
महात्मा गांधी न केवल भारत बल्कि विश्व की उन महान विभूतियों में से हैं, जिनके विचार, कृतित्व और आचरण की व्याख्या अपने अपने ढंग और अनुकूलता के हिसाब से बरसों से होती रही है और युगों युगों तक होती रहेगी। इसीलिए इस देश ने उन्हें ‘राष्ट्रपिता’ का सम्मान दिया। क्योंकि गांधी अपने समय को समकालीन दृष्टि अथवा अपने इतिहास बोध के साथ ही नहीं देखते बल्कि वो समूचे भारत को, उसकी आत्मा के भीतर उठने वाली शाश्वत हिलोंरों को, आत्मसात करने की सफल कोशिश करते हैं। महान व्यक्तित्वों की यही खूबी है कि उनके विचार और दर्शन की व्याख्या कई कोणों से की जा सकती है और की भी जानी चाहिए।
इन दिनों जिस बात को बहुत बारीकी से देखा और समझा जा रहा है, वो है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी राजनीतिक शाखा भाजपा द्वारा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विचारों में अपने वैचारिक आग्रहों की झलक देखने का उपक्रम। गांधी के विचार पर अमल की पद्धतियों में अंतर हो सकता है, लेकिन निस्संदेह उसका उद्गम भारत की उस सनातन परंपरा में ही है, जो समय-समय पर अपने तरीके से अभिव्यक्त होता आया है। यही उसकी ताकत भी है।
प्रखर युवा पत्रकार और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े रहे मनोज जोशी ने अपनी पुस्तक ‘हिंदुत्व और गांधी’ में गांधी को हिंदुत्व की वैचारिक कसौटी पर जांचने की कोशिश की है। यह कोशिश संघ की उसी व्यापक वैचारिक मुहिम का हिस्सा है, जहां संघ उस पर लगने वाले गांधी हत्या के आरोपों को खारिज कर महात्मा गांधी को भी अपने आराध्य के रूप में स्वीकार करने का सकारात्मक संदेश देना चाहता है। इसके पीछे यह जताने की कोशिश है कि गांधी भी मूलत: ‘हिंदुत्ववादी’ ही थे। क्योंकि हिंदू धर्म, धर्मांतरण, गोरक्षा, राम राज्य, सहिष्णुता, धार्मिक आडंबर व बाल विवाह का विरोध, पूना पैक्ट के माध्यम से हिंदू समाज को एक रखना, महिलाओं का सम्मान आदि अनेक मुद्दे हैं, जिन पर संघ अब गांधी को विरोधी खेमे में नहीं पाता। संघ के अनुसार दोनों में एक आधारभूत समानता है।
मनोज जोशी ने भी इस पुस्तक में ‘ एक हिंदू का हिंदुत्व और आरएसएस के हिंदुत्व’ में समान बिंदु खोजने की कोशिश की है। इसके लिए उन्होंने गांधीजी द्वारा समय-समय पर लिखित रूप से व्यक्त विचारों को आधार बनाया है, जो काफी हद तक अपने उद्देश्य की पूर्ति में सहायक हैं। मसलन गांधी ने एक बार ‘धर्मांतरण को राष्ट्रांतरण’ बताया था। वहीं धर्म और राजनीति के घालमेल के आरोप पर गांधी का कहना था कि ‘मेरी नजर में धर्मविहीन राजनीति कोई चीज नहीं है।‘ आदि।
मूलत: यह पुस्तक गांधी के विचारों के कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं पर तुलनात्मक अध्ययन के उद्देश्य से लिखी गई है। इस दृष्टि से यह सोशल मीडिया पर संघ की नजर से गांधी को समझने का टुकड़ों-टुकड़ों में किया गया उपक्रम है। मनोज दैनिक ‘राज्य की नईदुनिया’ में मेरे संपादकीय सहयोगी रहे हैं। उनका एक रिपोर्टर से आगे बढ़कर एक वैचारिक चिंतन के क्षेत्र में कदम रखना सराहनीय है। हालांकि ‘हिंदुत्व और गांधी’ बहुत विशद और गंभीर विषय है और इसकी व्याख्या कई कोणों से की जा सकती है और की भी जानी चाहिए।
महापुरुषों के विचारों को समझना और उसका समयानुरूप निरूपण उनकी महानता में वृद्धि ही करता है। हिंदुत्व के संदर्भ में गांधी को समझते वक्त हमें यह ध्यान रखना होगा कि गांधी सबसे पहले मानवीयता के पक्षधर हैं। मानवता ही उनका पहला धर्म है। कोई धर्म, कोई विचार, कोई अस्त्र, कोई आंदोलन जो मनुष्यता को खारिज करता हो, गांधी के विचार विश्व में अस्वीकार्य है। निश्चय ही गांधी स्वयं को सनातनी हिंदू मानते थे, लेकिन धर्म का अर्थ उनके लिए सदाचरण से था न कि कर्मकांड से। हिंदू धर्म की उन्होंने जो सबसे बड़ी सेवा की, वो ये है कि कर्मकांड और आडंबर में कैद हिंदू धर्म को बाहर निकाल कर उसे मानवता के मंदिर में तब्दील करना।
गांधी जानते थे कि प्राचीन हिंदू धर्म को अपने ‘कहीं अति उदार तो कहीं अति अनुदार’ के विरोधाभास से बाहर निकलना होगा। इसलिए उन्होंने हिंदू समाज में सुधार के जो आंदोलन समय-समय पर शुरू किए, उसे सार्थक ढंग से और आगे ले जाने की जरूरत है। मनोज जोशी की यह पुस्तक गांधी को इसी रोशनी में समझने में कुछ मदद करती है। पुस्तक अर्चना प्रकाशन ने प्रकाशित की है।