राकेश दुबे
भारत में इन दिनों चिकित्सक की तुलना भगवान से होना बंद हो गई है। कभी देश में भगवान के प्रतिनिधि के रूप में डॉक्टर (चिकित्सक) सम्मान पाते थे। आज यह सम्मान लोप हो रहा है, अब डॉक्टर जिस शब्द से परिभाषित किये जा रहे हैं, उसमें कुछ के आचरण उपमा पर सटीक बैठते हैं। कुछ अपने पूर्ण समर्पण से काम करते हैं, पर सामाजिक व्यवस्था और शासन की नीति उन्हें आचरण बदलने पर मजबूर करती दीखती हैं। लोक कल्याणकारी शासन की जवाबदेही से भागती सरकारों और शिक्षण संस्थाओं के व्यापार के केंद्र बनने की ऐसी ही चिंता को सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में व्यक्त किया है, उसका अनुपालन सुनिश्चित होना चाहिए।
वास्तव में सरकारों की जिम्मेदारी बनती है कि प्रतिभाओं को मोटी फीस की टीस न चुभे। विडंबना यह है कि शिक्षा के क्षेत्र में राजनेताओं की गहरी होती दखल से यह रोग निरंतर बढ़ता जा रहा है। कारोबार का यह रोग अब मेडिकल पढ़ाई के उस क्षेत्र में भी फैलने लगा है जहां धरती पर दूसरे भगवान कहे जाने वाले डॉक्टर तैयार होते हैं। जब ये प्रतिभावान बच्चे परिवार का पेट काटकर जमा पैसे से पढ़ाई करेंगे तो क्या समाज में सस्ती चिकित्सा गरीबों को मिल सकेगी? या फिर वे महंगी शिक्षा पूरी करने के बाद खर्च किये रुपयों की उगाही में लग जाएंगे? संकट यह भी है कि मोटा पैसा खर्च कर सकने वाले अयोग्य लोग डिग्री हासिल कर सकेंगे और पैसा न जुटा सकने वाली प्रतिभाएं हमें डॉक्टर के रूप में नहीं मिल सकेंगी।
सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी आंध्र प्रदेश के मेडिकल कालेजों में ट्यूशन फीस सात गुना बढ़ाकर 24 लाख रुपये सालाना करने के निर्णय पर रोक लगाने के आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के फैसले को यथावत रखने के बाद आई है। कोर्ट ने इस बढ़ोतरी को अनुचित और फीस निर्धारण करने वाले नियमों का उल्लंघन बताया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश में बिना उचित मंजूरी के कई ऐसे बुनियादी ढांचे खड़े किये गये हैं, जो खुलेआम मुनाफाखोरी के मकसद से व्यवसाय कर रहे हैं।
ये संस्थान पेड सीट्स और कैपिटेशन फीस लेकर फल-फूल रहे हैं। जिसमें योग्यता को दरकिनार कर दिया जाता है। इससे मध्यमवर्गीय परिवारों के मेधावी बच्चों का कठिन तैयारी के बावजूद डॉक्टरी की पढ़ाई कर पाना असंभव होता जा रहा है। नीति-नियंताओं का दिवालियापन देखिये कि देश में योग्य चिकित्सकों की भारी कमी के बावजूद प्रतिभाओं को आगे बढ़ने से रोका जा रहा है।
यह देश का दुर्भाग्य है कि इन शिक्षण संस्थाओं के संचालकों की मनमानी रोकने में केंद्रीय और राज्यों की नियामक संस्थाएं बेदम नजर आ रही हैं। जिसके चलते चिकित्सा शिक्षा के ढांचे में जरूरी सुधार नहीं हो पा रहे हैं। देश में पारदर्शी, गुणात्मक व जवाबदेह व्यवस्था स्थापित करने की जरूरत है। निस्संदेह कोर्ट द्वारा याचिकाकर्ता और आंध्र सरकार पर पांच लाख का जुर्माना वक्त की जरूरत है, क्योंकि देश में विशेषज्ञता वाला शिक्षण बहुत महंगा हो गया है। इससे सस्ती व उम्दा पढ़ाई के लिये भारतीय प्रतिभा का विदेशों में पलायन हो रहा है। हाल में यूक्रेन से लौटे मेडिकल छात्रों की दुर्दशा जगजाहिर है।
वहीं दूसरी ओर, हरियाणा में बॉन्ड पॉलिसी के खिलाफ मेडिकल के छात्र आंदोलनरत हैं। पीजीआई रोहतक में एमबीबीएस के छात्रों के लिये सरकार ने करीब दस लाख रुपये का बॉन्ड भरने की शर्त रखी है, जिसके खिलाफ छात्र-छात्राएं सड़कों पर उतर कर विरोध कर रहे हैं। सोचा जा सकता है कि इन हालात में ईमानदारी से नौकरी कर रहा व्यक्ति कभी अपने बच्चों को डॉक्टर कैसे बना पायेगा? निस्संदेह, यह निवेश अभिभावकों की कमर तोड़ने वाला है। महंगाई के इस दौर में कोई कैसे इतना पैसा अपने एक बच्चे पर खर्च कर पायेगा।
यह तो सत्ताधीशों की संवेदनहीनता की पराकाष्ठा ही है। बहुत संभव है कि यह राशि न जमा कर पाने के कारण कई प्रतिभाएं आगे पढ़ने से वंचित रह जायें। वैसे उत्तर प्रदेश व एम्स में यह फीस मात्र हजारों में है। ऐसे में प्रतिभाओं का पलायन स्वाभाविक ही है। कठिन परिश्रम से मेडिकल प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले छात्रों के साथ यह अन्याय ही है। निश्चित रूप से यह समाज का नुकसान भी है क्योंकि उन्हें योग्य चिकित्सक के बजाय मोटी रकम देकर पढ़ने वाले डॉक्टर ही मिलेंगे। इतना पैसा देकर पढ़ाई करने वाले छात्रों के दिमाग पर डॉक्टर बनने के बाद भी कर्ज का मर्ज चढ़ा रहेगा और उसका बर्ताव भगवान की जगह कोई और संज्ञा से विभूषित होता रहेगा।(मध्यमत)
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