कुछ ताले लगाने पड़ेंगे और कुछ को खोलना होगा

गिरीश उपाध्‍याय

इस कॉलम के पाठकों को शायद याद होगा कि 26 फरवरी यानी आज से करीब 42 दिन पहले मैंने लिखा था- ‘’कोरोना के महासंकट से उबर रहे भारत पर साल भर बाद एक बार फिर वही खतरा मंडराता दिख रहा है। सबक न सीखने की हमारी आत्‍मघाती लापरवाही ने कोरोना को एक बार फिर सिर उठाने का मौका दे दिया है। कई राज्‍यों में फिर वैसे ही हालात बनने लगे हैं जो सरकारों और प्रशासन को लॉकडाउन जैसे कदम उठाने पर मजबूर कर सकते हैं। और यह सब इस बार चुपचाप नहीं हुआ है।…’’

अपने लिखे को याद दिलाने का मकसद खुद को महान भविष्‍यवक्‍ता बताने का कतई नहीं है। बात सिर्फ इतनी सी है कि हम जैसे छोटे मोटे कलमघसीटों को भी लग रहा था कि कोई बड़ा खतरा सिर पर मंडरा रहा है। तो फिर आखिर वो लोग कैसे और क्‍यों चूके जिनके पास यदि इस खतरे को टालने का बूता नहीं था तो भी उससे निपटने की पूरी तैयारी करने की जिम्‍मेदारी तो अवश्‍य थी।

लेकिन इतिहास से सबक न लेने के लिए हम अभिशप्‍त हैं। और यह अभिशाप ही इन दिनों हमारी जान का दुश्‍मन बना हुआ है। वैसे तो देश के करीब करीब सभी राज्‍यों में कोरोना की दूसरी लहर आ चुकी है लेकिन आज बात अपने मध्‍यप्रदेश की। मध्‍यप्रदेश में कोरोना की पहली लहर से निपटने में साल भर पहले, राजनीतिक उठापटक के चलते, थोड़ी देर जरूर हुई थी, लेकिन बाद में ताबड़तोड़ उपाय करके मामले को संभाल लिया गया था। हालात बिगड़े जरूर थे लेकिन उन्‍हें काबू में करने की कोशिश भी असफल नहीं रही थी।

पर शायद उस सफलता ने हमें मगरूरी में डाल दिया। हम यह मान बैठे कि कोरोना पूरी तरह चला गया है और यदि नहीं भी गया है तो भी हमने उससे निपटने या उसे निपटाने का गुर सीख लिया है। लेकिन यह मुगालता दूसरी प्रचंड लहर ने दूर कर दिया है। अब हालत यह है कि कोरोना का प्रकोप पिछले साल आई पहली लहर से ज्‍यादा प्रचंडता के साथ सिर पर नाच कर मौत का खेल खेल रहा है और हम आग लगने के बाद या तो कुआं खोद रहे हैं या उन जगहों को तलाश रहे हैं जहां कभी कुएं थे।

मध्‍यप्रदेश में पिछली बार की तरह एक बार फिर मुख्‍यमंत्री शिवराजसिंह चौहान अकेली सेना बनकर कोरोना के खिलाफ मैदान में हैं। उनके प्रयासों और संकट से लड़ने की ईमानदार पहल पर उंगली उठाने की कोई वजह नहीं है। पर कुछ सवाल हैं जो लगातार मानस को मथ रहे हैं। और सबसे बड़ा सवाल ये कि आखिर उस सरकारी मशीनरी की कोई जिम्‍मेदारी है या नहीं जिसके जिम्‍मे ऐसे संकटों के पूर्वानुमान लगाकर समय रहते समुचित उपाय करने का ही काम है। जिन्‍हें तनख्‍वाह ही इसी बात की मिलती है।

आखिर ऐसा क्‍यों हुआ कि दुनिया भर के तमाम विशेषज्ञों, स्‍वास्‍थ्‍य संस्‍थानों की इस चेतावनी के बावजूद कि कोरोना की दूसरी, तीसरी, चौथी लहर भी संभावित है, हमने मगरूर होकर वे सारे संकटकालीन उपाय खत्‍म कर दिये जो पहली लहर के दौरान किए गए थे। इनमें कोरोना मरीजों के इलाज के लिए अस्‍पतालों में अतिरिक्‍त बेड की व्‍यवस्‍था, कोरोना जांच की व्‍यवस्‍था, ऑक्‍सीजन और दवाओं की समुचित और निर्बाध सप्‍लाई की व्‍यवस्‍था सब शामिल थे। अब जब दुबारा संकट आया है तो एक बार फिर से नए सिरे से, हड़बड़ी में उन व्‍यवस्‍थाओं को खड़ा करने की नौबत आखिर आने ही क्‍यों दी गई?

दूसरी प्रमुख बात खुद लोगों की, उनकी लापरवाही की है। यह ठीक है कि कोरोना लहर के पहले दौर में सरकार और जनता दोनों ही संकट का सामना करने के लिए तैयार नहीं थे। लेकिन इस बार तो पुराने अनुभवों से लोग भी बहुत कुछ जानते थे। तो फिर जानते बूझते आखिर लापरवाहियां क्‍यों बरती गईं? मास्‍क, आपसी की दूरी, हाथ धोने जैसे साधारण से उपाय करने में भी हमने मक्‍कारी क्‍यों की? और तो और टीका आ जाने के बाद उसे लगवाने के लिए सरकारों को अपीलें क्‍यों करना पड़ीं? क्‍या खुद का स्‍वास्‍थ्‍य, खुद की जान बचाना हमारी अपनी जिम्‍मेदारी नहीं है? आखिर कब तक हम सरकारों और प्रशासन को इसके लिए कोसते और जिम्‍मेदार ठहराते हुए अपने गैर जिम्‍मेदाराना व्‍यवहार पर परदा डालते रहेंगे।

निश्चित रूप से हालात एक बार फिर बेकाबू हुए हैं और यह लहर पहले वाली लहर से ज्‍यादा व्‍यापक व घातक है। इसमें दोषारोपण करके नहीं, जिम्‍मेदारी के भाव के साथ, वैसा ही जिम्‍मेदार व्‍यवहार करके ही काबू पाया जा सकता है। यह भी सही है कि हालात एक बार फिर लॉकडाउन की ओर बढ़ रहे हैं। कुछ शहरों में यह लागू हो भी गया है। आने वाले दिनों में इसका विस्‍तार निश्चित है। ऐसे में सरकार को पूरी दृढ़ता के साथ वही निर्णय लेना चाहिये जो समग्रता में लोगों के हित में हो।

यह भी तय है कि लॉकडाउन जैसा फैसला कभी भी लिया जाए, उसके पक्ष और विपक्ष में हर बार लोग खड़े मिलेंगे। ऐसा कभी नहीं होगा कि सभी लोग एकराय के हों। लेकिन पक्ष या विपक्ष के दबाव और कथित राजनीतिक नफा नुकसान की चिंता किए बगैर, सरकार को वही फैसला करना चाहिए जो वह प्रदेश के हित में उचित समझती है। कुछ लोग इस या उस फैसले के खिलाफ होते भी हैं तो उनकी चिंता करने की जरूरत नहीं, क्‍योंकि कुछ तो लोग कहेंगे ही। हां, तय करते समय यह जरूर देख लिया जाए कि वो निर्णय अपने दूरगामी परिणामों के साथ बहुलता में लोगों के हित में हो।

इसके साथ ही चिकित्‍सा व्‍यवस्‍था में सुधार और उस पर निगरानी का पुख्‍ता तंत्र तत्‍काल खड़ा किया जाना चाहिए। रेमडेसिविर इंजेक्‍शन और ऑक्‍सीजन की किल्‍लत हो या फिर अस्‍पतालों में इलाज के नाम पर होने वाली खुली लूट, सब पर सख्‍ती से और तत्‍काल कार्रवाई किए जाने की जरूरत है। सदाशयता और संवेदनशीलता मुख्‍यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की ताकत भी है और कमजोरी भी। लेकिन यह समय ताकत दिखाने का है, स्‍वास्‍थ्‍य विभाग में बैठे लोगों से लेकर कोरोना इंतजाम में लगी पूरी मशीनरी में यह संदेश जाना चाहिए कि हर बार मुख्‍यमंत्री को फ्रंटफुट या सड़क पर आकर मोर्चा संभालना पड़े यह प्रशासन तंत्र के नाकारा और लापरवाह होने की निशानी है। ऐसा नाकारापन और लापरवाही किसी भी सूरत में बर्दाश्‍त करने योग्‍य नहीं है। सरकार को कुछ जगह ताले लगाने पड़ेंगे तो अफसरशाही के दिमाग में लगे ताले और जाले खोलना भी पड़ेंगे, वो भी तत्‍काल।

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