स्मृति शेष : प्रो. प्रकाश दीक्षित
राकेश अचल
तीन महीने पहले जब मैंने अमेरिका आने से पहले प्रो. प्रकाश दीक्षित से विदा मांगी थी, तब उन्होंने पूछा था-‘कब तक लौटोगे राकेश?’ ‘छह महीने बाद ‘मैंने कहा’’ ‘ओह! इतने लम्बे समय तक मैं ज़िंदा रहूंगा या नहीं! तुम जल्दी वापस आना’ उन्होंने निश्वास छोड़ते हुए मुझे आशीर्वाद दिया था। मैं जब भी अपने बेटे के पास अमेरिका आता था दीक्षित जी से आशीर्वाद लेकर ही निकलता था। वे ही सबसे बड़े थे मेरे लिए। लौटते में उनके लिए एक अंग्रेजी का उपन्यास खरीदना और वापसी में उन्हें भेंट करना मेरा नियम था। दो दिन पहले ही उनके लिए एक उपन्यास खरीद कर रखा था, लेकिन अब दीक्षित जी इसे स्वीकार करने के लिए उपलब्ध नहीं होंगे। कोरोना ने हमसे हमारा शक्तिपुंज छीन लिया।
प्रकाश जी से अंतिम वार्ता पिछली 26 फरवरी को उनके जन्मदिन पर हुई थी। हर जन्मदिन पर उनसे मिलना, बतियाना, उन्हें मिठाई खिलाना वर्षों से चल रहा था, इस साल ये नहीं हो पाया क्योंकि मैं वहां नहीं था। बातचीत में प्रकाश जी ने फिर दोहराया था- जल्दी लौट आओ राकेश, मन नहीं लगता। बीते 26 फरवरी को उन्होंने अपने जीवन के 83 साल पूरे कर लिए थे। मेरा कहना था कि वे पूरे 90 साल जियेंगे, लेकिन उनके लिए तो जिंदगी जैसे पल-पल भारी हो चुकी थी।
अपनी विचारधारा के लिए प्रतिबद्ध प्रकाश जी के बारे में लिखने बैठो तो बहुत कुछ लिखा जा सकता है लेकिन दुर्भाग्य ये कि हिंदी साहित्य में उनके योगदान का मूल्यांकन ईमानदारी से किया ही नहीं गया, क्योंकि वे न किसी गुट के साथ थे और न उन्हें इसके लिए गुणा भाग करना आता था। उनके साथ हुए अन्याय के लिए वे खुद जिम्मेदार रहे। हमेशा अंतर्मुखी रहने वाले प्रो. प्रकाश दीक्षित चलता-फिरता कोश थे। धुरंधर पढ़ाका लेकिन बहुत कंजूसी से लिखने वाले। उन्हें अपने प्रगतिशील होने पर गर्व भी था और क्षोभ भी। क्षोभ इसलिए कि वे जो करना चाहते थे सो कर नहीं पाए।
मेरा उनका सम्पर्क ये ही कोई चार दशक पुराना था, जो पहले एक पाठक और लेखक का था और बाद में एक अनाम पारिवारिकता में बदल गया। उनके लिए मैं जरूरी था और वे मेरे लिए अनिवार्य। मैं कभी दावा नहीं कर सकता कि मैं उनका शिष्य था, लेकिन मैं दावा कर सकता हूँ कि उन्हें भीतर तक खंगालने में समर्थ एक आदमी मैं भी था। प्रकाश जी ने बहुत कम लिखा, कोई आधा दर्जन किताबें, जिनमें नाटक, उपन्यास और कविता संग्रह शामिल हैं। उनके नाटक और उपन्यास जीवाजी विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों का हिस्सा भी रहे, वे प्रकांड अनुवादक थे और उन्होंने विश्व हिंदी साहित्य की अनगिनत पुस्तकों का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद किया। नेशनल बुक ट्रस्ट समेत देश के अनेक प्रकाशकों ने इन अनुवादित पुस्तकों को छापा।
प्रकाश जी ने खुद पीएचडी नहीं की किन्तु न जाने कितने छात्रों को डॉक्टर ऑफ फिलासफी की उपाधि दिला दी। वे न जाने कितनों के अघोषित गाइड थे, न जाने कितनों की जिंदगी उनकी कृपा से बन गयी, लेकिन उन्होंने कभी इस बारे में कोई जिक्र किसी से नहीं किया इसलिए मैं भी इस विषय में मौन ही रहना चाहूंगा। वे साहित्यकार से पहले एक सक्रिय एक्टिविस्ट थे। उन्होंने राजनीति में हाथ आजमाना चाहा लेकिन नाकाम रहे। पत्रकार बनना चाहा, एक अखबार भी निकाला किन्तु कामयाबी नहीं मिली। क्योंकि वे अंतत: एक लेखक थे और ऐसे लेखक जिनका कोई मुकाबला नहीं कर सकता। क्योंकि वे हर मुकाबले से दूर रहे।
पिछले दिनों दीपावली पर अपनी लायब्रेरी की साफ़-सफाई में उन्हें उनकी 35 कविताओं की एक डायरी मिली तो उन्होंने उत्साहपूर्वक मुझे इसकी जानकारी दी। मैंने कहा- लाइए इसका संग्रह छपवा देते हैं, तो बोले- रहने दो यार! आजकल कविताएं कौन पढता है?’ कविता को लेकर उनकी अपनी परिभाषा थी। वे कहते थे कि कविता लिखना इतना आसान तो नहीं, जितना सुबह-सुबह सूरज का उगना।
एक असुरक्षित जिंदगी जीने वाले प्रो. प्रकाश जी का इकलौता पुत्र आकाश भी एक चर्चित लेखक और निर्देशक है। वे अपने इसी बेटे आकाश की स्थापना को लेकर बहुत चिंतित रहते थे। बेटी डॉ. सोनल भी प्राध्यापक है उसकी ओर से वे निश्चिंत थे लेकिन उनकी सबसे बड़ी चिंता उनकी धर्मपत्नी श्रीमती कुसुम थीं, जिनके लिए वे कभी नहीं मरना चाहते थे। मैं अक्सर उनसे कहता था- ‘आप मरने से मत डरा करो! आपके जीवन में ऐसा क्या है जो सिद्ध नहीं हुआ? मौत को जब आना होगा तब आएगी, उसके आने तक एकदम मस्त रहिये।’ मेरी बात सुनकर वे ठठाकर हंस देते, फिर कहते- ‘इतना आसान नहीं होता मौत के भय से मुक्त होना राकेश!’
प्रो. प्रकाश दीक्षित के साहित्य के बारे में उनके ख्यातिनाम शिष्य अधिकारपूर्वक लिख सकते हैं, मैं तो केवल इतना कह सकता हूँ कि उनके जाने से ग्वालियर, मध्यप्रदेश और देश ने एक ऐसी विभूति खो दी जिसे विभूति मानने में हमेशा कोताही की गयी। वे कला समूह के संरक्षक थे, लेकिन कला समूह की राजनीति से एकदम दूर रहे। वे वामपंथी थे लेकिन आजीविका के लिए उन्होंने संघ द्वारा संचालित माधव महाविद्यालय में प्राध्यापक के रूप में नौकरी की। वे स्वाभिमानी थे इसलिए किसी से स्थायी नौकरी मांगने नहीं गए, अर्थाभाव था इसलिए पीएचडी की उपाधि हासिल नहीं की। बावजूद इसके उनका सामन न कोई पीएचडी धारक कर सकता था और न कोई और दिग्गज। उनका साहित्यकार सामने वाले को आतंकित करने में समर्थ था।
देश के तमाम नामचीन्ह साहित्यकारों से उनका सीधा सम्पर्क था लेकिन मजाल कि कभी अपनी तरफ से किसी को फोन कर किसी इमदाद की बात कर लें। नामवर सिंह हों या विश्वनाथ तिवारी, प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल हों या अशोक वाजपेयी या कोई और, सब उनके मुरीद थे। स्वर्गीय रमानाथ अवस्थी प्रो. दीक्षित पर फ़िदा थे। प्रो. कमलाप्रसाद जैसे समर्पित प्रगतिशीलों के लिए वे अग्रज भी थे और मार्गदर्शक भी। एक जमाने में डॉ. केशव पांडेय के पाक्षिक अख़बार केशव प्रयास में हम लोगों ने प्रो. प्रकाश दीक्षित पर एक विशेषांक निकाला था, उसके बाद जनधर्म में भी ऐसा ही प्रयास किया। इसके बाद उनके बारे में न किसी ने लिखा, न सोचा। शहर के प्रगतिशीलों के लिए भी वे बेगाने से हो गए थे। कोई उनका हालचाल पूछने तक नहीं आता था।
बीते अनेक वर्षों से प्रो. प्रकाश दीक्षित ने कहीं भी आना जाना छोड़ दिया था। ललितपुर कॉलोनी में उनका पांच सौ वर्गफीट का घर ही उनकी दुनिया थी। घर में मैं, डॉ. केशव पाण्डे और उनके एक-दो और शिष्य नियमित आते-जाते थे। डॉ. केशव पांडेय ने उनकी अंतिम सांस तक जो सेवा की, वो कोई सगा पुत्र भी नहीं कर सकता। प्रो. प्रकाश दीक्षित अंतिम समय तक अनुवाद कार्य में सक्रिय थे, मौलिक लेखन उन्होंने लगभग छोड़ दिया था। डॉ. पांडेय के सांध्य दैनिक सांध्य समाचार के लिए एक दशक तक उन्होंने सम्पादकीय और एक स्तम्भ रामझरोखा लिखा था। इस अख़बार का सम्पादक मैं था और सम्पादकीय प्रो. दीक्षित लिखते थे। उनके सम्पदकीय जेएनयू तक में पढ़े जाते थे। उनके लिखे सम्पादकीय के कारण अनेक अवसरों पर विद्वानों के बीच मैं अक्सर फंस जाता था, क्योंकि वे जिन संदर्भों का इस्तेमाल करते थे, उनके बारे में मै जानता तक नहीं था। ऐसे में मुझे या तो अपनी पोल खुद खोलना पड़ती थी या दूसरे दिन जाकर उनसे पूरा संदर्भ समझना पड़ता था।
पिछले कुछ वर्षों से वे अपनी जान से प्रिय पुस्तकों के प्रति उदासीन हो चले थे। हर दीपावली पर वे अपने संग्रह की अनेक पुस्तकें मुझे भेंट करते थे, कहते थे मेरे बाद ये तमाम पुस्तकें तुम्हारी होंगी। तब तक जितनी दे रहा हूँ उन्हें पढ़ो। वे जब भी मिलते तो दी हुई पुस्तकों के बारे में पूछते-‘पढ़ ली।’ उनके तमाम निजी कार्य मेरे बिना सम्पन्न नहीं होते थे। आखरी के वर्षों में उन्होंने एक बोझिल जिंदगी जी, लेकिन जब वे खुश होते थे तो मुझे अपनी एक न एक कविता या कोई किस्सा जरूर सुनते थे। मैं उनके संस्मरणों पर काम करना चाहता था लेकिन ये साध अधूरी रह गयी। उनके जीवन पर श्री मदन मोहन मिश्र ने आकाशवाणी के लिए एक तीन घंटे की रिकार्डिंग जरूर की थी। चूंकि श्री मिश्र भी सेवानिवृत्त हो गए हैं, इसलिए मुझे नहीं पता की उस रिकार्डिंग का क्या हुआ।
मेरे लिए प्रो. प्रकाश दीक्षित कभी नश्वर नहीं होंगे, क्योंकि मैंने उन्हें अनंत की ओर जाते अपनी आँखों से नहीं देखा। मैं उनके प्रति श्रद्धा से भरा हुआ था, और आजीवन भरा रहूंगा। उनके लिए मेरी श्रद्धांजलि हमेशा भारी ही रहेगी। एक ही अफ़सोस है कि उन्हें उपहार के रूप में अमेरिका में खरीदी गयी पुस्तक भेंट नहीं कर सका। (मध्यमत)
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उपरोक्त शब्द आदरणीय गिरीश उपाध्याय जी के संकलन में से मैंने लिए हैं