बीएसएनएल की खस्ता हालत को सुधारने के लिहाज से मनमोहनसिंह सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में सैम पित्रोदा कमेटी का गठन किया था। इस कमेटी की सिफारिशों और उन पर अमल के बारे में 7 दिसंबर 2012 को राज्यसभा में एक सवाल पूछा गया था। इसके जवाब में तत्कालीन संचार और सूचना प्रौद्योगिकी राज्य मंत्री मिलिंद देवड़ा ने क्या बताया था उसे जानना बहुत जरूरी है।
देवड़ा के मुताबिक कमेटी की पहली ही सिफारिश यह थी कि बीएसएनएल के कामकाज में सुधार के लिए बाजार से ‘बेस्ट प्रोफेशनल्स’ को ‘मार्केट रेट’ पर लाया जाए। दूसरी सिफारिश थी- कंपनी के चेयरमैन पद पर प्राइवेट सेक्टर के प्रतिष्ठित व्यक्ति को बैठाया जाए। इसके अलावा अन्य सिफारिशों में जो बातें नोट करने वाली हैं वो थीं- ‘’कंपनी के एक लाख कर्मचारियों को या तो रिटायर किया जाए या उनका तबादला किया जाए। इसके लिए वीआरएस जैसी स्कीम का सहारा लिया जा सकता है।‘’
यानी अरविंद पनगडि़या भारतीय सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण की जो बात आज कर रहे हैं और जिस तरह वे सरकारी तंत्र में लेटरल एंट्री के जरिये प्रोफेशनल्स को बिठाने का सुझाव दे रहे हैं, ठीक वही बात आज से करीब दस साल पहले यूपीए शासनकाल में सैम पित्रोदा भी कर रहे थे। वे भी तो यही कह रहे थे ना कि कंपनी में प्राइवेट सेक्टर के किसी व्यक्ति को चेयरमैन बनाया जाए और कर्मचारियों के वर्तमान ढांचे में करीब एक लाख लोगों की परोक्ष रूप से छुट्टी करते हुए मार्केट से, मार्केट रेट पर प्रोफेशनल्स को लाया जाए।
पित्रोदा ने यह भी सुझाया था कि बीएसएनएल में भारतीय रणनीतिक निवेशक (स्ट्रेटेजिक इन्वेस्टर) के माध्यम से 30 फीसदी का विनिवेश किया जाए और आरंभिक सार्वजनिक पेशकश (आईपीओ) के जरिये मिलने वाली राशि में से 10 फीसदी सरकार को लौटाएं और बाकी 20 प्रतिशत राशि कंपनी के विस्तार और संचालन के अलावा कर्मचारियों के वीआरएस में इस्तेमाल की जाए।
मतलब पित्रोदा ने कंपनी में निजी क्षेत्र के दखल और उसके विनिवेश की आधार भूमि करीब दस साल पहले ही तैयार कर दी थी। सरकारों के स्तर पर खेल कैसे होता है जरा देखिए। पित्रोदा ने अपनी सिफारिशों में कहा कि बीएसएनएल को ग्रामीण क्षेत्र में संचार सुविधाओं का विस्तार करते हुए ढाई लाख पंचायतों में कनेक्टिविटी उपलब्ध करानी चाहिए।
सुनने में यह सुझाव बहुत ही ‘परोपकारी टाइप’ का लगता है। सभी इस बात पर हामी भरेंगे कि हां, जरूर, ग्रामीण क्षेत्र को और हमारी पंचायतों को बेहतर संचार सुविधाएं और कनेक्टिविटी मिलनी चाहिए। यह बात राजनीति और बाजार दोनों को समान रूप से सूट भी करती है क्योंकि इसके केंद्र में ‘जन-कल्याण’ दिखता है। कोई इसका विरोध नहीं करता।
पर जैसाकि मैंने पहले कहा सरकारें सार्वजनिक उपक्रमों का या तो कथित विनिवेश के नाम पर सत्यानाश करती हैं या फिर जहरीली नीतियां बनाकर। इस नजर से पित्रोदा कमेटी की सिफारिशों को देखिये। उसने जब बीएसएनएल के जरिये ढाई लाख पंचायतों तक कनेक्टिविटी की सुविधा पहुंचाने का सुझाव दिया, उससे ठीक पहले वह एक सुझाव और देती है कि बीएसएनएल के सक्रिय और असक्रिय ढांचे को बाकी ऑपरेटर्स के साथ शेयर करने के मामले में भी सक्रिय पहल की जाए।
और यही असली खेल है। एक तरफ पित्रोदा सुझाव देते हैं कि बीएसएनएल ढाई लाख पंचायतों तक कनेक्टिविटी और सुविधाएं खड़ी करे वहीं वे यह भी कह रहे हैं कि इस ढांचे को बाकी कंपनियों के साथ शेयर किया जाए। मतलब ढांचा खड़ा करने का भारीभरकम खर्च बीएसएनएल उठाए और आगे चलकर बाकी ऑपरेटर (यहां अनिवार्य रूप से निजी ऑपरेटर ही पढ़ा जाए) उसका फायदा उठाएं।
कहने को कहा जा सकता है कि इससे बीएसएनएल को अपने ढांचे के किराये के रूप में नियमित आय होगी। लेकिन यह बात सामान्य बुद्धि वाला व्यक्ति भी जानता है कि मकान बनाने में खर्च की जाने वाली राशि और उसे किराये पर देने से मिलने वाली राशि में कितना अंतर होता है। 50 लाख का मकान यदि 25 हजार रुपए महीने के किराये पर भी दिया जाए तो मकान की लागत वसूलने में 16 साल से ज्यादा का समय लगेगा। और यदि मकान बनाने की राशि के लिए लोन लिया गया हो तो मामला और जटिल हो जाएगा।
तो बीएसएनएल को ऐसी ही भट्ठा बैठाने वाली सलाह दी गई कि करोड़ों रुपए खर्च करके ढांचा वह खड़ा करे और उस ढांचे को बाकी ऑपरेटरों के साथ शेयर करे। यानी पहले से ही झुकी हुई कमर पर दो चार बोरे और लाद दिए गए। ऐसे में कमर टूटेगी नहीं तो क्या होगा? और सार्वजनिक उपक्रम ऐसा न करे तो भी उसका मरण है। जिस तरह खरबूजे और चाकू वाला मामला होता है, कटना अंतत: खरबूजे को ही है। यदि बीएसएनएल यह ढांचा खड़ा न करे तो उस पर अक्षमता का आरोप मढ़ते हुए निजी क्षेत्र के घुसने का रास्ता बना दिया जाएगा।
अच्छा, फिर सरकारें खुद भी सार्वजनिक उपक्रमों के साथ सहयोग नहीं करतीं। जरा सोचिए ना, एक तरफ बीएसएनएल की हालत खस्ता हो रही है, बाजार में प्रतिस्पर्धा बढ़ती जा रही है। बाकी ऑपरेटर 3जी से 4जी पर चले गए हैं और इधर बीएसएनएल के सीएमडी खुद कह रहे हैं कि उनकी कंपनी को 4जी की अनुमति वाली फाइल सरकार की टेबल पर दो साल से लटकी पड़ी है। यानी आप भाप के इंजन से कह रहे हैं कि वह बुलेट ट्रेन का मुकाबला करे और स्टेशन भी समय पर पहुंचे।
मैं मानता हूं कि सरकारी या सार्वजनिक उपक्रमों की छतरी के नीचे आ जाने के बाद ज्यादातर मामलों में कर्मचारियों की मानसिकता भी सरकारी या सार्वजनिक ढर्रे वाली ही हो जाती है। वे एक लीक पर चलने के आदी हो जाते हैं और उनमें प्रतिस्पर्धा का भाव बहुत कम होता है। चूंकि वे अपनी मोनोपॉली वाला समय देख चुके होते हैं, इसलिए उसी कालखंड में जीते हैं। जरूरत इस बात की भी है कि यदि बीएसएनएल जैसी कंपनियों को मरने से बचना है तो इसका बीड़ा खुद उसके कर्मचारियों और अधिकारियों को भी उठाना होगा। वरना तो सरकार और बाजार दोनों उसे खाने को तैयार बैठे हैं।