नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष अरविंद पनगडि़या का केंद्र में नई सरकार बनने से पहले सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण को लेकर आया बयान और मोदी02 सरकार के पहले बजट से चंद रोज पहले वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन और यूपीए सरकार के पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह के बीच मुलाकात में क्या कनेक्शन हो सकता है? इस सवाल का जवाब ढूंढने के लिए आपको इतिहास में जाना होगा।
याद कीजिए पीवी नरसिंहराव सरकार का कार्यकाल जब पूरे विश्व में उदारीकरण को लेकर भारी गहमागहमी मची हुई थी। उस समय भारत कौनसी दिशा ले यह जिम्मा प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव ने वित्त मंत्री के नाते 1991 में डॉ. मनमोहनसिंह को सौंपा था। ख्यात अर्थशास्त्री मनमोहनसिंह उससे पहले रिजर्व बैंक के गवर्नर और योजना आयोग के उपाध्यक्ष जैसे कई महत्वपूर्ण पदों पर रह चुके थे। इतिहास गवाह है कि मनमोहनसिंह ने भारत में उदारीकरण और वैश्वीकरण की जमीन तैयार की और उसके बाद भारत भी खुले बाजार की अर्थव्यवस्था और निजीकरण को बढ़ावा देने वाली नीतियों पर चल पड़ा।
दिलचस्प बात यह है कि सत्ता में आने से पहले जोर शोर से स्वदेशी की बात करने वाली भाजपा ने भी सत्ता में आने के बाद इस चाल को ही पकड़े रखा। जो सलाह पनगडि़या अभी दे रहे हैं, सरकारी विभागों में पेशेवरों की लेटरल एंट्री का वह फैसला तो मोदी सरकार अपना पहला कार्यकाल पूरा करने से करीब एक साल पहले 2018 में ही कर चुकी थी। ऐसा ही उसने सार्वजनिक उपक्रमों के विनिवेश मामले में किया था जिसकी शुरुआत भी मनमोहनसिंह सरकार के समय हुई थी।
यानी मोदी सरकार कहने को भले ही यूपीए सरकारों को अन्यान्य कारणों से कोसती रही हो, लेकिन बुनियादी रूप से वह मनमोहनसिंह सरकार की आर्थिक नीतियों को ही नए सिरे से आगे बढ़ा रही है। निजीकरण को बढ़ावा देने और सार्वजनिक उपक्रमों को खुद की मौत मर जाने के लिए छोड़ देने का सबसे ताजा उदाहरण दूरसंचार क्षेत्र के दिग्गज उपक्रम भारत संचार निगम लिमिटेड यानी बीएसएनएल का है।
बीएसएनएल की हालत यह हो गई है कि उसके सामने अपने कर्मचारियों को वेतन देने के भी लाले पड़ रहे हैं। 24 जून को खबर आई कि कंपनी के पास जून माह का वेतन देने के भी पैसे नहीं है और उसके कर्मचारी संगठनों ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर हस्तक्षेप करने और कंपनी को वित्तीय मदद देने का अनुरोध किया है ताकि वेंटिलेटर पर जा चुकी इस कंपनी का बचाया जा सके।
मीडिया रिपोर्ट्स कहती हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र की दोनों दूरसंचार कंपनियां बीएसएनएल और एमटीएनएल 2010 से ही वित्तीय संकट में चल रही हैं। एमटीएनएल के पास दिल्ली और मुंबई का क्षेत्र है जबकि बीएसएनएल देश के बाकी 20 सर्किल में दूरसंचार सेवाओं का संचालन करती है। 2017 में बीएसएनएल को 4786 करोड़ रुपए का घाटा हुआ था जो 2018 में बढ़कर 8000 करोड़ हो गया। चालू वर्ष में यह और ज्यादा होने की आशंका है।
4 अप्रैल को यानी चुनाव पूरे होने व सरकार बनने से पहले ‘मनीभास्कर’ ने खबर दी थी कि लोकसभा चुनाव के बाद बीएसएनएल के 54 हजार कर्मचारियों की नौकरी जा सकती है। कंपनी को बचाने के लिए इसके बोर्ड ने वीआरएस जैसे विकल्प पर भी विचार किया है लेकिन उसके लिए भी करीब 6500 करोड़ रुपए की जरूरत होगी।
एक तरफ किसी जमाने में ‘नवरत्न’ कंपनी रही बीएसएनएल डूबने की कगार पर आ गई है और दूसरी तरफ इसी धंधे में ताजा ताजा उतरी कंपनियों के क्या हाल हैं जरा यह भी जान लीजिये। बीएसएनएल का कंपनी के रूप में गठन 2000 में हुआ था, जबकि रिलायंस जियो 2007 में लांच हुई। और आज दूरसंचार नियामक आयोग यानी ट्राई की अप्रैल 2019 की रिपोर्ट कहती है कि ब्रॉडबैंड सेवाओं के मामले में रिलायंस जियो का मार्केट शेयर 55.04 प्रतिशत है जबकि बीएसएनएल का मात्र 3.90 प्रतिशत।
इकॉनामिक टाइम्स ने 18 अप्रैल 2019 को एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसमें दूरसंचार सेवाओं के जनवरी फरवरी 2019 के तुलनात्मक आंकड़ों को लेकर ट्राई की रिपोर्ट का संदर्भ देते हुए बीएसएनएल के सीएमडी अनुपम श्रीवास्तव के हवाले से कहा गया था कि इस अवधि में जियो के अलावा सिर्फ बीएसएनएल ही एकमात्र ऐसा सेवा प्रदाता है जिसके उपभोक्ताओं की संख्या में बढ़ोतरी हुई है।
श्रीवास्तव का कहना था कि हमारे प्रतिद्वंद्वी 4जी सेवाओं से लैस हैं जबकि हम 3जी सेवाओं के बूते पर ही उनका मुकाबला कर रहे हैं। उनका दावा था कि हम में क्षमता है और हम परफार्म करके दिखा सकते हैं। हमने सरकार से आग्रह किया है हमें आवश्यक पूंजी उपलब्ध कराते हुए 4जी सेवाओं का स्पेक्ट्रम आवंटित किया जाए लेकिन वह फाइल 2017 से लंबित है।
यदि आप दस्तावेज देखें तो पिछले दो दशकों में हर सरकार का रवैया सार्वजनिक उपक्रमों के प्रति या तो उदासीन रहा है या फिर उन्हें खत्म करने की मंशा लिए हुए। कई बार इन्हें विनिवेश के नाम पर बाजार के हवाले किया गया तो कई बार जहरीली नीतियां बनाकर। विसंगति देखिए कि, हर सरकार लगभग यही कर रही है लेकिन राजनीति करने के लिए आरोप प्रतिद्वंद्वी पार्टी पर लगाए जा रहे हैं। अप्रैल 2019 में तत्कालीन दूरसंचार राज्य मंत्री मनोज सिन्हा का वह बयान याद रखना चाहिए जिसमें उन्होंने बीएसएनएल और एमटीएनएल की दुर्दशा के लिए यूपीए सरकार की नीतियों को जिम्मेदार ठहराया था।
एक तरफ बीएसएनएल को 4 जी से लैस करने की फाइल सिन्हा की टेबल पर थी पर वे बजाय उस पर फैसला करवाने के यूपीए सरकार पर उंगली उठा रहे थे। वैसे एक लिहाज से सिन्हा गलत भी नहीं कह रहे थे। खुद यूपीए सरकार ने 2010 में बीएसएनएल की स्थिति को लेकर सैम पित्रोदा की अगुवाई में एक कमेटी बनाई जिसने सरकारी क्षेत्र की दूरसंचार कंपनियों का और ज्यादा बंटाढार होने के संकेत पहले ही दे दिए थे।
आखिर ऐसा क्या कहा गया था सैम पित्रोदा की रिपोर्ट में? आगे बात करेंगे…