यह सप्ताह केंद्रीय बजट के हैंगओवर से शुरू हो रहा है। शनिवार से ही देश के तमाम अखबार और बाकी मीडिया बजट संबंधी खबरों और उसके विश्लेषण से भरा पड़ा है। यह सिलसिला आने वाले कुछ और दिनों तक यूं ही जारी रहने वाला है। लेकिन इसी बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने संसदीय क्षेत्र बनारस में शनिवार को एक कार्यक्रम में बजट को लेकर जो टिप्पणी की है, उसने बजट पर होने वाले विमर्श और प्रतिक्रियाओं का रुख मोड़ दिया है।
प्रधानमंत्री ने शनिवार को बनारस में पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की प्रतिमा का अनावरण किया और भाजपा के सदस्यता अभियान की शुरुआत की। यहां उन्होंने बाकी बातें तो की हीं, लेकिन ज्यादातर उनका जोर एक दिन पहले यानी शुक्रवार को संसद में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन द्वारा प्रस्तुत बजट पर रहा। इसी दौरान उन्होंने बजट की आलोचना करने वालों को आड़े हाथों लेते हुए कहा- ‘’एक राष्ट्र के तौर पर हमारे सामूहिक प्रयास हमें 5 वर्ष में 5 ट्रिलियन डॉलर के आर्थिक पड़ाव तक जरूर पहुंचाएंगे। लेकिन कुछ लोग कहते हैं कि इसकी क्या जरूरत है। ये सब क्यों किया जा रहा है। ये वो वर्ग है जिन्हें हम ‘पेशेवर निराशावादी’ भी कह सकते हैं।‘’
नरेंद्र मोदी की खासियत है कि वे राजनीति में शब्दों और मुहावरों से बहुत शानदार तरीके से खेलते हैं। इस मायने में उन्हें आप, उन्हीं की तर्ज पर नया शब्द गढ़ते हुए ‘शब्दों का पेशेवर खिलाड़ी’ भी कह सकते हैं। मोदी के पहले कार्यकाल में देश ने कुछ ‘पेशेवर असहिष्णुतावादी’ देखे थे और अभी-अभी 17 वीं लोकसभा का चुनाव बीत जाने के बाद, 24 मई को भाजपा मुख्यालय में अपने अभिनंदन कार्यक्रम में नरेंद्र मोदी ने ऐसे ही ‘पेशेवर धर्मनिरपेक्षतावादियों’ को आड़े हाथों लिया था।
उन्होंने कहा था- ‘’30 साल तक लगातार देश में एक ऐसा प्रिंट आउट, एक ऐसा टैग, फैशन बन गया था कि कुछ भी करो और उसे लगा लो तो आपको गंगास्नान जैसा पुण्य मिल जाता था, वह भी नकली टैग पर। वह टैग था ‘सेक्युलरिजम।‘ आपने देखा होगा कि 2014 आते-आते उस पूरी जमात ने इस शब्द को बोलना ही छोड़ दिया। इस चुनाव में कोई भी दल ‘सेक्युलरिजम’ का नकाब पहन देश को गुमराह करने की कोशिश नहीं कर पाया।‘’
इसी श्रृंखला में अब प्रधानमंत्री की तरफ से एक नया शब्द आया है, ‘पेशेवर निराशावादी’। बनारस के भाषण में अपने दूसरे कार्यकाल के पहले बजट पर मोदी बोले- ‘’आप किसी सामान्य व्यक्ति के पास समस्या लेकर जाएंगे तो वो आपको समाधान देगा। लेकिन ‘पेशेवर निराशावादियों’ के पास आप समाधान लेकर जाएंगे तो वो उसे समस्या में बदल देंगे। देश को ऐसे नकारात्मक लोगों से सतर्क रहने की जरूरत है।‘’
उन्होंने कहा- ‘’एक राष्ट्र के तौर पर हमारे सामूहिक प्रयास हमें 5 वर्ष में 5 ट्रिलियन डॉलर के आर्थिक पड़ाव तक जरूर पहुंचाएंगे। आखिर 5 ट्रिलियन डॉलर इकोनॉमी के लक्ष्य का मतलब क्या है, एक आम भारतीय की जिंदगी का इससे क्या लेना-देना है, ये आपके लिए, सबके लिए जानना बहुत जरूरी है। …अंग्रेजी में एक कहावत है कि size of the cake matters यानी जितना बड़ा केक होगा उसका उतना ही बड़ा हिस्सा लोगों को मिलेगा। अर्थव्यवस्था का लक्ष्य भी जितना बड़ा होगा, देश की समृद्धि उतनी ही ज्यादा होगी।‘’
निश्चित रूप से किसी भी देश को सपना भी बड़ा देखना चाहिए और लक्ष्य भी बड़ा रखना चाहिए। यह बात भी सही है कि जनता के द्वारा चुनी हुई सरकार देश के विकास का, उसे आगे ले जाने का यदि कोई लक्ष्य तय करती है तो वह सिर्फ सरकार का ही लक्ष्य नहीं होता, पूरे देश का होता है और उसे पूरा करने की जिम्मेदारी भी पूरे देश की होती है। यह भी ठीक है कि कोई भी सपना आशावादी होकर साकार किया जा सकता है निराशावादी होकर नहीं।
इसलिए किसी भी सूरत में यह मानकर नहीं चला जाना चाहिए कि देश की जनता देश को आगे बढ़ता देखना नहीं चाहती या कि वह प्रगति को लेकर कोई प्रतिगामी नजरिया रखती है। बात सिर्फ यह है कि सरकार जो भी कदम उठा रही है, उसके तमाम पहलुओं पर व्यापक विमर्श हो। इस विमर्श को न तो नकारात्मक समझा जाना चाहिए न ही उसे किसी निराशावादी दृष्टिकोण का परिचायक।
दरअसल देश में जो आर्थिक हालत हैं या बना दिए गए हैं, उनसे हरेक भारतीय के मन में चिंता होना स्वाभाविक है। यह भी सच है कि ये हालात कोई एक दिन में नहीं बने हैं। इनके लिए सभी सरकारें और उनकी नीतियां समान रूप से सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरीके से जिम्मेदार हैं। लेकिन 1991 के बाद से भारत ने अपनी आर्थिकी को जिस रास्ते पर चलाया है, उस रास्ते पर चलने का हमारे पास अब तक 28 साल का यानी लगभग तीन दशक का अनुभव हो चुका है।
इस तीन दशक के अनुभव को देखते हुए, हम कम से कम यह तो तय कर ही सकते हैं कि देश की आर्थिकी की दशा और दिशा क्या हो? हमारी नीतियां कैसी हों? हमारे निर्णय देश को कर्ज के दलदल में फंसाकर खोखला करने वाले होने के बजाय आर्थिक रूप से और अधिक मजबूती के रास्ते पर ले जाने वाले हों। और यह काम अकेले सरकार में बैठे लोगों का ही नहीं है।
कौन नहीं चाहेगा कि भारत पांच लाख ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बने। हम पांच क्या, दस लाख ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था का सपना भी देखें, लेकिन इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए कौनसे तरीके, कौनसी नीतियां और कौनसा रास्ता अख्तियार किया जाए इस पर तो बात होनी ही चाहिए। और यदि कुछ बातों को लेकर दूसरी राय या दूसरा मत सामने आता है तो उसे भी सुना तो जाना ही चाहिए। इस प्रक्रिया में हम ‘पेशेवर निराशावादियों’ की बात भले न सुनें, लेकिन ‘पेशेवर चिंतकों’ की बात को तो तवज्जो देना ही चाहिए।