नोबल कथा-6
भारत में रियायतों और प्रोत्साहनों का भी बड़ा खेल है। इसका जितना संबंध गरीबों और वंचितों को मदद पहुंचाने से नहीं है उससे ज्यादा संबंध राजनीति और भ्रष्टाचार से है। फिर चाहे आप पोषण आहार की बात ले लें या फिर मध्याह्न भोजन की, चाहे स्कूल जाने वाली बच्चियों को बांटी जाने वाली साइकलों की बात हो या फिर उन्हें दी जाने वाली छात्रवृत्ति की। कोई बरस ऐसा नहीं छूटता होगा जब इन योजनाओं की रिपोर्ट में घपलों, घोटालों या भ्रष्टाचार की खबरें न आती हों।
इसलिए जब भी किसी प्रोत्साहन या रियायत से जुड़ी योजना की बात होती है, सरकारी सिस्टम के लोगों की बांछें खिल जाती हैं। वे खुलकर ऐसी योजनाओं का समर्थन करने लगते हैं, उसकी पैरवी में जमीन आसमान एक कर देते हैं। और यह सब इसलिए नहीं कि उन्हें गरीबों या वंचितों की चिंता होती है, बल्कि इसलिए कि उन्हें इनमें अपार संभावनाएं नजर आती हैं। आजादी के बाद से देश में जरूरतमंदों को सबसिडी या प्रोत्साहन के नाम पर खरबों रुपए खर्च किए जा चुके होंगे लेकिन खर्च की गई राशि के मुकाबले हालात बदलने का अनुपात बहुत कम है।
एक और बात जो ऐसे मामलों में अब चिंता में डालने लगी है और वह है ऐसी रियायतों एवं प्रोत्साहनों को लेकर बाकी लोगों का रवैया। राजनीति ने पूरे माहौल को जहरीला बना दिया है। एक तरफ तो ऐसी योजनाओं का मुख्य लक्ष्य वोट बटोरना हो गया है और दूसरी तरफ इनके क्रियान्वयन में लगने वाली राशि जुटाने के लिए सरकारें तरह तरह के टैक्स और शुल्क लगाती रहती है। पहले गरीबों के लिए चलने वाली योजनाओं पर दी जाने वाली ऐसी रियायतों को समाज इस भावना के साथ स्वीकार कर लेता था कि यह जरूरतमंदों की मदद का मामला है। लेकिन अब ऐसी हर मदद को लोग अपनी जेब से पैसा छीने जाने के रूप में देख रहे हैं।
इस भावना के पनपने का असर यह हुआ है कि लोग अंदर ही अंदर उस वर्ग के प्रति अजीब किस्म की हिकारत या वैर भाव पाल रहे हैं जो ऐसी रियायतों या प्रोत्साहनों से लाभान्वित हो रहा है। करदाता वर्ग समझता है कि उसकी गाढ़ी कमाई का पैसा छीना जाकर दूसरों पर लुटाया जा रहा है और वह भी वोट बैंक तैयार करने के लिए। राजनीति तो चाहेगी कि यह माहौल बना रहे, लेकिन अर्थशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों को इस दृष्टिकोण से भी सोचना होगा। यह बहुत गंभीर मामला है।
एक और बात जो नोबल सम्मान को लेकर लिखते समय मेरे ध्यान में आई वो यह है कि अमीर-गरीब की परंपरागत आर्थिक अवधारणा के बीच एक कालखंड ऐसा था जिसमें ‘समानता और असमानता’ जैसे शब्दों की चर्चा होती थी। ‘अमीर और गरीब’ की शब्दावली मोटे तौर पर आर्थिक स्थिति से जुड़ी है लेकिन ‘समानता और असमानता’ की शब्दावली बहुत व्यापक है। विडंबना है कि हमारी आर्थिक चिंताएं आज भी गरीबी के इर्दगिर्द घूम रही हैं, उससे आगे बढ़कर और व्यापक अर्थों में हम समानता पर उतना जोर नहीं दे रहे।
और अब तो अमीर और गरीब का डिस्कोर्स भी बदला जा रहा है। 2019 का चुनाव जीतने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाजपा के मुख्यालय में अपने स्वागत के दौरान जो भाषण दिया उसे याद रखा जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि 21वीं सदी में भारत में दो ही जातियां रहेंगी, एक गरीब और दूसरी गरीबी हटाने वाली। वे बोले- “भारत के उज्ज्वल भविष्य, एकता-अखंडता के लिए जनता ने इस चुनाव में एक नई तस्वीर सामने रखी है। सारे समाजशास्त्रियों को अपनी सोच पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर कर दिया है। अब इस देश में दो जातियां बची हैं और वही रहने वाली हैं। देश इन दो जातियों पर ही केंद्रित होने वाला है। ये जाति के नाम पर खेल खेलने वालों पर बहुत बड़ा प्रहार हुआ है। हमें 21वीं सदी में इन दोनों को सशक्त करना है। ये दो शक्तियां देश से गरीबी का कलंक मिटा सकती हैं।”
यानी आज के भारत की शासन व्यवस्था देश के सामाजिक और आर्थिक परिदृश्य को अमीर-गरीब अथवा समानता-असमानता जैसे दायरे में रखकर नहीं देखती। अब हम आर्थिक तुलना करते हुए यह नहीं कहेंगे कि फलां लोग गरीब हैं और फलां लोग अमीर। अब संसाधनों से लेकर सुविधाओं तक के असमान वितरण की बात भी नहीं होगी। अब गरीबों के इतर जो भी लोग हैं वे सबके सब गरीबी को मिटाने वाले हैं। लेकिन क्या सचमुच ऐसा है? क्या गरीबों से इतर, सारे लोग गरीबी मिटाने का काम कर रहे हैं?
जमीनी हालात तो कुछ और ही कहानी बयां कर रहे हैं। खबरें बता रही हैं कि ग्लोबल हंगर इंडेक्स यानी विश्व भूख सूचकांक में भारत 117 देशों की सूची में 102 वें नबर पर है। आतंकवाद और कंगाली के संदर्भ में जिस पाकिस्तान को हम दिनरात कोसते रहते हैं उस पाकिस्तान सहित, नेपाल और बांग्लादेश जैसे देश भी इस सूचकांक में हमसे ऊपर हैं।
दूसरी तरफ भारत के भीतर आर्थिक असमानता की स्थिति यह है कि देश की शीर्ष 10 प्रतिशत आबादी के पास भारत की कुल संपत्ति का 77.4 प्रतिशत हिस्सा है। एनडीटीवी ने 14 अगस्त 2019 को दावोस में विश्व आर्थिक मंच (WEF) की सालाना बैठक से पहले जारी ऑक्सफेम रिपोर्ट के हवाले से बताया था कि करीब 130 करोड़ की आबादी वाले भारत में उच्चतम आर्थिक स्तर वाली ‘’सिर्फ एक प्रतिशत आबादी के पास देश की कुल संपत्ति का 51.53 प्रतिशत हिस्सा है। वहीं, करीब 60 प्रतिशत आबादी के पास देश की सिर्फ 4.8 प्रतिशत संपत्ति है। देश के शीर्ष नौ अमीरों की संपत्ति पचास प्रतिशत गरीब आबादी की संपत्ति के बराबर है।‘’
रिपोर्ट जारी करते हुए ऑक्सफैम इंटरनेशनल की कार्यकारी निदेशक विनी ब्यानिमा ने कहा था कि ‘’यह ‘नैतिक रूप से क्रूर’ है कि भारत में जहां गरीब दो वक्त की रोटी और बच्चों की दवाओं के लिए जूझ रहे हैं, वहीं कुछ अमीरों की संपत्ति लगातार बढ़ती जा रही है। यदि एक प्रतिशत अमीरों और देश के अन्य लोगों की संपत्ति में यह अंतर बढ़ता गया तो इससे देश की सामाजिक और लोकतांत्रिक व्यवस्था पूरी तरह चरमरा जाएगी।’’
प्रचलित मान्यता है, और अर्थशास्त्री भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि गरीबों के पास जब भी थोड़ा बहुत पैसा आता है तो वे उसे सहेजकर तिजोरी में नहीं रखते बल्कि खर्च करते हैं। यह बात स्वयं अभिजीत बनर्जी ने मोरक्को और चीन के अपने प्रायोगिक अनुभव के आधार पर स्वीकार की है। (इसकी चर्चा आगे करेंगे) अब यदि ऐसा ही है तो क्या इसे यूं भी नहीं समझा जाना चाहिए कि गरीबों को सीधे आर्थिक मदद की वकालत के पीछे वही लॉबी तो नहीं जो पहले सरकारी खजाने से पैसा निकलवाकर गरीबों को दिलवाती है और फिर गरीबों की खर्च करने की मानसिकता का फायदा उठाकर बाजार के जरिये उसी पैसे को चूस लेती है।