नोबल कथा-7
आप पिछले कुछ दिनों के अखबार पढ़ें, आर्थिक जगत, कॉरपोरेट जगत और अर्थशास्त्रियों की ओर से लगातार इस बात का दबाव बनाया जा रहा है कि लोगों की क्रय शक्ति बढ़ाई जानी चाहिए। जहां बेरोजगारी अपने चरम पर हो, जहां आर्थिक मंदी का दौर चल रहा हो, जहां जीडीपी ग्रोथ रेट में लगातार गिरावट के नित नए अनुमान सामने आ रहे हों वहां आखिर क्रय शक्ति बढ़ाने की सूरत क्या हो सकती है?
दरअसल खुद अर्थशास्त्री ही कहते हैं कि खर्च जो करता है वह तबका गरीब है और वे ही यह भी कहते हैं कि गरीबी मिटाने के लिए गरीब के पास पैसा भेजना होगा। कल्याणकारी योजनाओं का लक्ष्य पूरा करने के लिए लोगों को ‘इन्सेंटिव’ देना होगा। कर्ज के रूप में ही सही लोगों को खर्च करने के लिए पैसा मुहैया कराना होगा। और यह पैसा या इस तरह का कोई भी ‘इन्सेंटिव’ न तो वह एक प्रतिशत शीर्ष अमीर देंगे जो देश की 50 फीसदी से अधिक की संपत्ति पर काबिज हैं और न वे लोग जो बाजार के हिमायती हैं। पैसा देगी सरकार।
और सरकार पैसा कहां से लाएगी, वह लाएगी लोगों पर और अधिक टैक्स लगाकर। ऐसे में ‘वर्ग वैमनस्य’ की वह भावना और दिन पर दिन बलवती होती जाएगी जिसका जिक्र मैं पहले कर चुका हूं। लोग करेंगे भले ही कुछ नहीं, लेकिन मन में इस बात की गांठ बांध लेंगे कि इन लोगों (गरीबों) के लिए हमारा गला रेता जा रहा है, हमारी जेब काटी जा रही है।
गरीब के पास जब पैसा आता है जो कतई जरूरी नहीं कि वह अपनी बुनियादी जरूरतों जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य आदि पर ही उसे खर्च करे। यह बात मैं नहीं कह रहा, यह बात खुद नोबल विजेता अभिजीत बनर्जी के ऑब्जर्वेशन में कही गई है। भारत के एक चर्चित अर्थशास्त्री हैं विवेक कौल। कौल ने ‘ईजी मनी’ नाम से तीन किताबों की श्रृंखला लिखी है। इन्हीं विवेक कौल ने अभिजीत बनर्जी को नोबल सम्मान मिलने के बाद एक आलेख लिखा।
इस आलेख में कौल कहते हैं- ‘’वर्ष 2011 की बात है। अभिजीत बनर्जी मुंबई आए हुए थे और मुझे उनका साक्षात्कार करना था। साक्षात्कार के दौरान उन्होंने मोरक्को से जुड़ा एक दिलचस्प प्रसंग बयान किया। अपने मोरक्को दौरे में बनर्जी जब एक गरीब आदमी से मिले तो उन्होंने उससे पूछा कि अगर तुम्हे थोड़े और पैसे मिलें तो तुम उन पैसों का क्या करोगे? उस आदमी ने कहा कि वह उन पैसों से भोजन खरीदेगा। इस पर बनर्जी ने उससे पूछा कि अगर और भी पैसा मिले तो वह उन पैसों का क्या करेगा? आदमी ने फिर जवाब दिया कि वह और भी भोजन खरीदेगा।‘’
‘’बनर्जी को यह सुनकर काफी अजीब लगा, पर जब वह उस आदमी के घर पहुंचे तो हक्के-बक्के रह गए। उस आदमी के घर में टीवी और डीवीडी प्लेयर भी था। यह देखने के बाद बनर्जी ने उससे कहा कि अगर तुम्हारे पास खाने के लिए पर्याप्त आहार नहीं है तो फिर टीवी कैसे है? इस पर उसने जवाब दिया कि जिंदगी में टीवी होना खाने से अधिक जरूरी है। बनर्जी के लिए यह काफी चौंकाने वाली बात थी।‘’
कौल लिखते हैं कि मोरक्को वाले उदहारण के आधार पर बनर्जी ने चीन में एक प्रयोग किया। उन्होंने चीन में कुछ लोगों को सस्ते चावल खरीदने के लिए वाउचर दिए। उनका अनुमान था कि इससे पोषण में सुधार होगा। चूंकि यह एक प्रयोग के रूप में किया गया था, इसलिए कुछ लोगों को वाउचर दिए गए थे और कुछ को नहीं। इस प्रयोग का परिणाम उम्मीद से बहुत अलग निकला।
आशा यह की जा रही थी कि लोगों का पोषण सुधरेगा, पर ऐसा हुआ नहीं। बनर्जी ने बताया, वाउचर वाले लोग पोषण में बदतर निकले। दरअसल उन्हें लगा कि अब उनके पास वाउचर है सो वे पहले से ज्यादा अमीर हैं और अब उन्हें चावल खाने की जरूरत नहीं है। वे पोर्क, झींगा आदि खा सकते हैं। उन्होंने पोर्क और झींगा खरीदा और परिणामस्वरूप उनके शुद्ध कैलोरी ग्रहण में कमी हो गई।
इस घटना की व्याख्या करते हुए विवेक कौल कहते हैं ‘’भले ही यह बात सुनने में थोड़ी अजीब लगे, पर बनर्जी इसे पूरी तरह तर्कसंगत मानते हैं। उनका (बनर्जी) कहना है कि वे लोग आनंद की प्रतीक्षा कर रहे थे। आनंद न केवल हमारे जीने के लिए, बल्कि हमारे भाग्य को नियंत्रित करने के संदर्भ में भी बहुत महत्वपूर्ण है। अगर किसी को लगता है कि उसे शेष जीवन दब्बू होकर जीना होगा तो इसका मतलब है कि उसका जीना बहुत मुश्किल हो गया है।‘’
‘’बनर्जी के अनुसार, चीन के वे लोग अपने पोषण में सुधार कर सकते थे या अगले दस दिनों के लिए थोड़ा बेहतर खा सकते थे, लेकिन आनंद एक ऐसी चीज है जिसके बारे में हम भूल जाते हैं। दुनिया भर के विभिन्न देशों ने भोजन के अधिकार को इसी विचार के साथ लागू किया है कि अगर गरीब लोगों को रियायती भोजन दिया जाएगा तो उनके पोषण में सुधार होगा। जब खाद्य सुरक्षा नीतियां तैयार की जाती हैं तो उन्हें तैयार करने वाले जीवन के आनंद के बारे में नहीं सोचते। वे यह मानकर चलते हैं कि अगर भोजन रियायती दरों पर उपलब्ध कराया जाएगा तो लोग स्वाभाविक रूप से पोषण के बारे में ही सोचेंगे, लेकिन ऐसा नहीं है।‘’
यानी बनर्जी खुद अपने प्रयोगों में यह बात मान रहे हैं कि गरीबों को यदि कुछ ‘इंसेंटिव’ दिया जाए तो जरूरी नहीं कि वे हमारी अपेक्षाओं के अनुरूप या फिर उन नीतियों का लक्ष्य पूरा करने की दृष्टि से व्यवहार करें जिन नीतियों को सफल बनाने के लिए उन्हें वह ‘इंसेंटिव’ दिया जा रहा है। आप सोच भी नहीं सकते कि गरीब से गरीब व्यक्ति तक उस ‘इंसेंटिव’ की राशि को किस बात के लिए खर्च करेगा। जैसाकि मोरक्को के उस व्यक्ति ने बनर्जी से कहा कि भोजन अपनी जगह जरूरी है लेकिन ‘’जिंदगी में टीवी होना खाने से अधिक जरूरी है।‘’
यह है बाजार का वह पहलू जिसका जिक्र मैं इस श्रृंखला में लगातार कर रहा हूं। बाजार लोगों की इसी मानसिकता का फायदा उठाता है। कॉरपोरेट और अर्थजगत के विशेषज्ञ मिलकर ऐसा माहौल बनाते हैं कि योजनाओं को सफल बनाने के लिए कुछ ‘इंसेटिव’ देना जरूरी है और फिर उस इंसेटिव को लोगों से अपने हिसाब से खर्च करवाकर अपनी झोलियां भर ली जाती हैं। गरीब वहीं का वहीं रहता है और अमीर या कॉरपोरेट के बारे में रिपोर्ट आती है कि ‘भयानक मंदी’ की चर्चाओं के बीच भारत के टॉप पांच अरबपतियों ने 2019 के पहले छह माह में अपनी संपत्ति (मार्केट वैल्यू) में एक लाख करोड़ रुपये का इजाफा कर लिया। (संदर्भ- इकॉनामिक टाइम्स में 2 जुलाई 2019 को अमित मुद्गिल की रिपोर्ट)