नोबल कथा-5
इसे आप भारत का सौभाग्य मानें कि हमारे यहां दुनिया के जाने माने अर्थशास्त्री हुए हैं। कौटिल्य या चाणक्य से लेकर अभिजीत बनर्जी तक इसकी बहुत लंबी परंपरा है। भारत उन गिने चुने देशों में शुमार है जिसके दो लोगों को अर्थशास्त्र का नोबल सम्मान मिला है। 1998 में यह अमर्त्य सेन को मिला था और अब 2019 में अभिजीत बनर्जी को। आधुनिक संदर्भों में बात करें तो अर्थशास्त्र की समझ और ज्ञान को लेकर डॉ. मनमोहनसिंह, विमल जालान, रघुराम राजन, सी. रंगराजन, राजा चेलैया, कौशिक बसु, वीकेआरवी राव, जैसे कई नाम गिनाए जा सकते हैं।
कुल मिलाकर भारत में आर्थिक चिंतकों और अर्थशास्त्रियों की लंबी परंपरा रही है। अर्थ हमारे दर्शन का हिस्सा रहा है। हमारी आध्यात्मिक परंपरा में भी जिन चार पुरुषार्थों का जिक्र आया है उनमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष शामिल हैं। आज हम धर्म और अर्थ का जो संघर्ष देख रहे है यह संघर्ष भी नया नहीं है। जिस चार्वाक दर्शन को “यावज्जीवेत सुखं जीवेद ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत, भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः“ श्लोक से जाना जाता है उसमें भी मूल संघर्ष धर्म और अर्थ का ही है।
कहने का तात्पर्य यह कि अर्थ का महत्व हमेशा से ही रहा है और इसीलिए हमारे मनीषियों ने जितना विचार धर्म पर किया उतना ही अर्थ पर भी किया है। इसीलिए हम भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिकता और भौतिकवाद का अद्भुत समन्वय देखते हैं। कौटिल्य ने ‘’मनुष्याणां वृत्तिः अर्थः’’ कहकर अर्थ को मनुष्य की वृत्ति बताया है। चाणक्य अर्थ की मीमांसा में और आगे जाकर अर्थ को धर्म का मूल तक बताते हैं। अर्थ की प्रधानता भी इसलिए है क्योंकि वह मनुष्य की सभी कामनाओं और इच्छाओं की पूर्ति का साधन है।
लेकिन आधुनिक काल में यह सारी बहस अमीर और गरीब पर केंद्रित हो गई है। जिसके पास अपनी आवश्यकताओं और इच्छाओं की पूर्ति करने लायक पर्याप्त धन है वह अमीर और जो धन के अभाव में मानवीय गरिमा के साथ जीने की स्थिति में भी न हो वह गरीब। इसीलिए आधुनिक अर्थशास्त्री ज्यादातर इन्हीं दो शब्दों अमीर और गरीब को केंद्र में रखकर अपनी अर्थनीतियों या अर्थ संबंधी अवधारणाओं को प्रस्तुत करते रहे हैं। कालांतर में इस बहस को मनुष्यों के बीच समानता पर केंद्रित करने की भी कोशिश हुई, लेकिन अमीर और गरीब का प्रचलित मुहावरा नहीं टूट पाया।
विडंबना यह है कि अनेक अर्थशास्त्रियों और विशेषज्ञों के होने के बावजूद आज भी हम आजाद भारत में आर्थिक मसलों और नीतियों को लेकर कोई निश्चित मार्ग नहीं चुन सके हैं। यह बात ठीक है कि जैसे राजनीति देश-काल-परिस्थिति के अनुसार बदलती है, वैसे ही आर्थिकी भी बदलती रहती है। लेकिन दोनों का मूल धरातल समाज और व्यक्ति का कल्याण है। जब राजा हुआ करते थे तो उन्हें प्रजा का पालनकर्ता माना जाता था और अब लोकतांत्रिक व्यवस्था में जब चुनी हुई सरकारें हैं तो उन्हें देश और समाज का अभिभावक होना चाहिए।
लेकिन होता यह है कि सरकारें अलग अलग क्षेत्रों के लोगों की राय जुटाती तो रहती है पर उसके फैसले सारे राजनीतिक दृष्टिकोण से ही होते हैं। शायद इसीलिये अर्थशास्त्री भी कभी रियायती या अनुदानी अर्थव्यवस्था की वकालत करते हैं तो कभी वे इसे स्वस्थ एवं प्रतिस्पर्धात्मक विकास में बाधा के रूप में देखते हैं। पिछले तीन चार दशकों में ही हमें ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे जिनमें पहले मुफ्त या रियायती प्रणाली की हिमायत की गई और कुछ समय बाद कहा गया कि नहीं इससे अर्थव्यवस्था की बुनियाद खोखली हो रही है।
ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। हम किसानों की कर्ज माफी का उदाहरण ही ले लें। राजनीतिक क्षेत्र से लेकर अर्थ जगत तक में इस बात के दर्जनों पैरोकार मिल जाएंगे जो कहते हैं कि किसानों को कर्ज के दलदल से मुक्त कराने के लिए जरूरी है कि उन पर चढ़े कर्ज को सरकार माफ करे। दूसरा पक्ष कहता है कि यह कदम कभी भी किसानों को सक्षम नहीं बना सकता। कर्ज माफी के पक्ष में तर्क देते समय अकसर कृषि के बरक्स कॉरपोरेट या उद्योग को खड़ा कर दिया जाता है। कहा जाता है कि सरकार जब कॉरपोरेट का लाखों करोड़ का कर्ज माफ कर सकती है तो कृषि क्षेत्र का क्यों नहीं। दूसरी तरफ कॉरपोरेट अपनी मजबूरियों (?) का हवाला देते हुए ऐसी ही रियायतों की मांग उठाने लगता है। और इस तरह माफी या मुफ्त का एक ऐसा सिलसिला शुरू हो जाता है जो अंतत: अर्थव्यवस्था के क्षरण के रूप में सामने आता है।
निश्चित रूप से जो कमजोर है या जो अपने बूते खड़ा नहीं हो सकता, उसे खड़ा करने की जिम्मेदारी समाज और लोक द्वारा चुनी गई सरकारों की है। ऐसा किया भी जाना चाहिए ताकि हम अवसरों की समानता वाले लक्ष्य को हासिल करने से पहले कम से कम उन अवसरों को हासिल कर सकने लायक योग्यता और क्षमता वाला समान समाज तो बनाएं। पर ऐसा करने के दौरान मुश्किल तब होती है जब मुफ्त सुविधा या रियायती सुविधा के तौर पर दी जाने वाली मदद एक अधिकार मान ली जाती है। क्योंकि एक बार जब आप किसी चीज को मुफ्त या रियायती तौर पर उपलब्ध कराते हैं तो फिर वह संक्रमण के तौर पर प्रवृत्ति बनकर फैल जाती है और फिर कई अन्य जरूरतों और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी अधिकार मानकर वैसी ही सुविधाओं की अपेक्षा की जाने लगती है।
शिक्षा या स्वास्थ्य के क्षेत्र में गरीबों अथवा कमजोर वर्ग के लोगों को बुनियादी रूप से प्रतिस्पर्धात्मक स्तर के लिए तैयार करने की दृष्टि से ऐसी सुविधाओं का दिया जाना ठीक भी है और जायज भी। लेकिन इसके साथ ही इस बात की भी स्पष्टता होनी चाहिए कि इन सुविधाओं को ग्रहण करने या उनसे लाभ लेने वाला व्यक्ति साध्य का महत्व समझे, साधन का नहीं। जैसे यदि मध्याह्न भोजन को लेकर बच्चों को यह सोचते हुए स्कूल भेजा जाए कि वहां बच्चों का पेट भर जाएगा तो हम उद्देश्य से ही भटक जाएंगे। क्योंकि असली मकसद बच्चों को भोजन कराना नहीं बल्कि उन्हें स्कूल में आने और शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरित करना है।
इसी तरह संपूर्ण टीकाकरण के लिए एक किलो दाल देने के पीछे भी उद्देश्य गरीबों में दाल का वितरण करना नहीं है। लक्ष्य बच्चों को जानलेवा बीमारी से बचाना और उनके स्वास्थ्य को सुरक्षित बनाना है। अब इसमें यदि यह भाव आ जाए कि एक सुई लगवाने से एक किलो दाल मिलती है तो यह गलत होगा। भाव यह बनना चाहिए कि यह जो सुई लग रही है वह बच्चे की जान बचाएगी। इसलिए महत्व उस सुई और दवाई का है दाल का नहीं।
हालांकि इस सारी धमाचौकड़ी में इस बात की ओर तो कोई ध्यान ही नहीं दे रहा कि इस तरह की सुविधाएं या रियायतें समाज में एक अलग तरह के ‘वर्ग वैमनस्य’ को जन्म दे रही हैं…