गिरीश उपाध्याय
उत्तरप्रदेश में जनसंख्या नियंत्रण नीति का ऐलान किए जाने के बाद मध्यप्रदेश में इस विषय पर कानून बनाने की मांग उठी है। उत्तरप्रदेश ने जनसंख्या नियंत्रण की दृष्टि से अगले दस सालों यानी 2021 से 2030 तक के लिए जो नीतिगत दस्तावेज जारी किया है, उसमें कही गई कई बातों को लेकर भले ही अलग-अलग राय सामने आ रही हो लेकिन उसके बावजूद मध्यप्रदेश में सत्तारूढ़ दल के ही नेताओं का मानना है कि राज्य में भी बढ़ती आबादी पर काबू पाने और उपलब्ध संसाधनों के समुचित वितरण के लिए जरूरी है कि कोई कानूनी कदम उठाया जाए।
मध्यप्रदेश में जनसंख्या नियंत्रण कानून लागू किए जाने को लेकर भाजपा के ही विधायक और विधानसभा के प्रोटेम स्पीकर रह चुके रामेश्वर शर्मा ने मुख्यमंत्री को एक पत्र लिखा है। इसमें शर्मा ने कहा है कि राज्य में जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाकर बढ़ती आबादी को रोकना जरूरी है क्योंकि बढ़ती आबादी प्रदेश के विकास, सुशासन और सुरक्षा के लिए चुनौती बन रही है। 2011 की जनगणना के हिसाब से प्रदेश की आबादी लगभग 7 करोड़ 25 लाख थी जो 2021 में बढ़कर 8 करोड़ 75 लाख हो जाने का अनुमान है। यानी पिछले दस सालों में प्रदेश की जनसंख्या में डेढ़ करोढ़ से भी ज्यादा की बढ़ोतरी हुई है जो कई पश्चिमी देशों की जनसंख्या से भी अधिक है।
शर्मा के इस सुझाव पर बहस भी शुरू हो गई है और सरकार के साथ साथ समाज के कुछ वर्गों ने भी जनसंख्या नियंत्रण के उपाय किए जाने की जरूरत को रेखांकित किया है। दरअसल लगातार बढ़ती आबादी ने मध्यप्रदेश के संसाधनों पर भारी दबाव बनाया है और उसके चलते सरकार को बुनियादी सुविधाओं के साथ-साथ अन्य बातों पर भी अधिक खर्च करना पड़ रहा है। चूंकि मध्यप्रदेश में औद्योगिक विकास की गति बहुत धीमी है और रोजगार के अन्य साधन भी बहुत उपलब्ध नहीं है इसलिए राज्य के सामाजिक और आर्थिक ढांचे पर दोहरी मार पड़ रही है। अन्य रोजगार में संभावनाएं कम होने पर राज्य की काफी बड़ी आबादी आज भी खेती और उससे जुड़ी अर्थव्यवस्था पर ही निर्भर है। ऐसे में सरकार के लिए बुनियादी सुविधाएं विकसित करना, उपलब्ध सुविधाओं का रखरखाव करना और कल्याणकारी योजनाओं के लिए पूंजी जुटाना और अधिक मुश्किल होता जा रहा है।
इन परिस्थितियों में आबादी का लगातार बढ़ते रहना और उसका अनुत्पादक होते जाना भविष्य के लिए बहुत बड़े खतरे का संकेत है। नीति की यदि बात करें तो मध्यप्रदेश में जनसंख्या नीति वर्ष 2000 में दिग्विजयसिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार के समय बनी थी। संयोग से यह वही साल था जब मध्यप्रदेश का विभाजन हुआ था और उसके पूर्वी एवं दक्षिण पूर्वी हिस्से को अलग कर छत्तीसगढ़ राज्य का गठन किया गया था। जिस समय ये राज्य अलग हुए थे उसके ठीक एक साल बाद 2001 में आए जनगणना के आंकड़ों के हिसाब से 1991-2001 के दशक में मध्यप्रदेश की आबादी में 11781781 लोगों की वृद्धि हुई थी। 2001-2011 के दशक में यह संख्या करीब पांच लाख की अतिरिक्त वृद्धि के साथ बढ़कर 12249542 हो गई थी।
मध्यप्रदेश से अलग हुए छत्तीसगढ़ की बता करें तो वहां 1991-2001 के दशक में जनसंख्या वृद्धि का आंकड़ा 3218875 था जो 2001-2011 में बढ़कर 4706393 हो गया था। इस हिसाब से 2001 में जहां मध्यप्रदेश में भारत की कुल आबादी का 6.46 फीसदी हिस्सा था तो 2011 में यह बढ़कर 6.75 फीसदी हो गया। इसी तरह छत्तीसगढ़ की हिस्सेदारी भी इन दो जनगणनाओं के दौरान 1.77 से बढ़कर 2.59 फीसदी हो गई। यानी अविभाजित मध्यप्रदेश की दृष्टि से देखा जाए तो भारत की कुल आबादी का लगभग दस फीसदी हिस्सा तो इन दोनों राज्यों में ही था। चूंकि दोनों ही राज्य उस समय बीमारू राज्य की श्रेणी में आते थे इसलिए यह अनुमान लगाना कोई मुश्किल नहीं है कि उस बढ़ती आबादी ने इन राज्यों की विकास गतिविधियों और राज्य के संसाधनों पर कितना अधिक दबाव डाला होगा।
ऐसा नहीं है कि मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ ने बढ़ती आबादी को काबू करने के प्रयास नहीं किए। सरकार के प्रयास, समाज की बढ़ती जागरूकता और रोजगार के घटते अवसरों के साथ-साथ संसाधनों की कमी ने लोगों को भी परिवार छोटे रखने पर मजबूर किया। नीति आयोग की रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2000 में मध्यप्रदेश में जहां प्रति महिला प्रजनन दर 4 थी वहीं 2016 तक आते आते यह घटकर 2.8 रह गई। छत्तीसगढ़ की यदि बात करें तो वहां 2004 में जो प्रति महिला प्रजनन दर 3.3 थी वह 2016 में घटकर 2.5 हो गई है। यानी जनसंख्या नियंत्रण के उपाय कहीं न कहीं असर तो डाल रहे हैं। लेकिन संख्यात्मक दृष्टि से देखें तो मध्यप्रदेश की आबादी अब भी औसतन 20 फीसदी प्रति दशक की रफ्तार से ही बढ़ रही है। मतलब अब एक ठहराव की स्थिति बन रही है।
इसका एक प्रमाण नीति आयोग की रिपोर्ट में ही मिलता है जो कहती है कि मध्यप्रदेश में 2014 से 2016 तक के तीन सालों में प्रति महिला प्रजनन दर लगातार 2.8 रही है। और उसके पहले वाले दो सालों यानी 2012 और 2013 में यह लगातार 2.9 रही थी। मतलब प्रजनन दर घट तो रही है लेकिन उसकी गति बहुत ही धीमी है। और हालांकि इस बात के आधिकारिक आंकड़े तो उपलब्ध नहीं हैं लेकिन बढ़ती हुई कुल आबादी और उसमें महिलाओं की बढ़ी हुई संख्या के लिहाज से इस कमी को देखें तो यह कमी और भी नगण्य या फिर लगभग शून्य ही हो जाती है।
मध्यप्रदेश की वर्ष 2000 की जनसंख्या नियंत्रण नीति में वर्ष 2011 तक प्रदेश में महिलाओं की प्रजनन दर 2.1 तक लाने का लक्ष्य रखा गया था और आंकड़े खुद बता रहे हैं कि इस मामले में प्रदेश अपने लक्ष्य से कितना पीछे है। क्योंकि 2011 तक प्रदेश में प्रति महिला प्रजनन वर्ष 2000 के 4 के आंकड़े की तुलना में घटकर सिर्फ 3.1 ही हो सकी थी। यानी इच्छित लक्ष्य से पूरे एक प्रतिशत कम। इस बीच सरकारों ने उपाय तो बहुत किए लेकिन मैदानी स्तर पर उनके प्रभावी अमल में कमी और पर्याप्त जनजागरूकता न पैदा किए जाने के कारण अपेक्षित परिणाम हासिल नहीं हो सके।
जनसंख्या नियंत्रण के अपेक्षित परिणाम न मिल पाने का एक और बड़ा कारण बाल और शिशु मृत्यु दर को अपेक्षित मात्रा में कम न किया जाना भी रहा है। मध्यप्रदेश आज भी शिशु मत्यु दर के मामले में देश का अग्रणी राज्य है। नवजात शिशुओं या पांच साल से कम आयु के बच्चों की असमय मृत्यु के आंकड़ों ने खासतौर से ग्रामीण आबादी में जनसंख्या नियंत्रण या परिवार नियोजन के अभियान को बहुत धक्का पहुंचाया है। बच्चे के दीर्घ जीवन के प्रति आशंका के चलते भी प्रजनन दर में अपेक्षित कमी नहीं आ सकी होगी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता।
तो अब जब एक बार फिर से मध्यप्रदेश में जनसंख्या नियंत्रण को लेकर बहस उठी है तब सरकार को उसके लिए पूरे चिंतन और मनन के साथ ऐसे उपायों को लेकर आगे आना होगा जिनसे इस मामले में लोगों की रुचि बढ़े और वे इस समस्या की गंभीरता और इसके कारण उनके समग्र जीवन पर पड़ने वाले असर को समझें। यह बात याद रखनी होगी कि सिर्फ कानून बना लेने से ही इस तरह की समस्या कभी हल नहीं हो सकती। यह व्यक्ति और परिवार नामक इकाई का बहुत ही निजी मामला है इसमें कानून की दखल नई समस्याएं पैदा कर सकती है। जरूरत इस बात की है कि जनजागरूकता और जनसहयोग से उद्देश्य को हासिल करने वाला कोई मैकेनिज्म खड़ा किया जाए। और हां, एक बात खासतौर से ध्यान में रखी जाए कि ऐसे मामलों में राजनीति का हस्तक्षेप कतई न हो और न ही कोई फैसला राजनीतिक हानि-लाभ की दृष्टि से किया जाए।(मध्यमत)
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