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गिरीश उपाध्‍याय  

कहानी बहुत पुरानी है। यात्रा से थका एक व्‍यापारी रेगिस्‍तान में रात को अपने तंबू में सो रहा था। उसका ऊंट बाहर था। आधी रात को ऊंट ने तंबू में अपनी गर्दन घुसाकर व्‍यापारी से कहा- मालिक मुझे भी ठंड लग रही है क्‍या मैं अपनी गर्दन अंदर कर लूं। व्‍यापारी ने इजाजत दे दी। उसके बाद धीरे-धीरे ऊंट ने पहले अपनी टांगें, फिर अपना कूबड़ सब तंबू के अंदर कर लिए। सुबह हुई तो व्‍यापारी तंबू के बाहर था और ऊंट तंबू के अंदर।

ऐसा लगता है कि मध्‍यप्रदेश में भाजपा की हालत भी धीरे धीरे उस व्‍यापारी जैसी होती जा रही है। उसके लिए यह तय करना मुश्किल हो रहा है कि अपने तंबू को बचाए या फिर ऊंट को माथे पर बिठाए। मध्‍यप्रदेश में सरकार बनाने और बचाने के लिए उसने कांग्रेस के जिन ऊंटों को अपने तंबू में गर्दन घुसाने की इजाजत दी थी वे ऊंट अब भाजपा के तंबू में घुस कर वहां बरसों से मौजूद लोगों को ही बाहर करने और करवाने पर तुले हैं। दमोह उपचुनाव के नतीजे आने के बाद तंबू के पुराने रहवासियों और मेहमान ऊंटों के बीच घमासान चरम पर है।

तंबू में ऊंट घुसाने का यह किस्‍सा 2020 में उस समय शुरू हुआ था जब प्रदेश में कमलनाथ के नेतृत्‍व वाली कांग्रेस सरकार से बगावत कर ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया अपने 22 समर्थकों के साथ अलग हो गए थे। और बाद में इन सभी ने भाजपा का दामन थाम लिया था। उनके देखा देखी कांग्रेस के कुछ और विधायक और नेता भी भाजपा के तंबू में चले आए थे और उन सभी को पार्टी ने सिर माथे ले लिया था। लेकिन भाजपा के तंबू में घुसने का दमोह के कांग्रेस विधायक राहुल लोधी का मामला तो बहुत ही निराला था।

राहुल लोधी 2018 के चुनाव में दमोह से कांग्रेस के टिकट पर विधायक चुने गए थे और उन्‍होंने भाजपा के दिग्‍गज नेता और पूर्व मंत्री जयंत मलैया को हराया था। लेकिन कांग्रेस से भाजपा में आने की भगदड़ और पार्टी बदलने पर भारी पुरस्‍कार मिलने की संभावना को देखते हुए लोधी ने अचानक विधायकी से इस्‍तीफा दे दिया। जाहिर तौर पर कारण यह बताया कि भाजपा ही उनके विधानसभा क्षेत्र का विकास कर सकती है। और पहले से ही लिखी जा चुकी स्क्रिप्‍ट के तहत  लोधी को न सिर्फ मध्‍यप्रदेश वेयरहाउसिंग और लॉजिस्टिक कॉरपोरेशन का अध्‍यक्ष बनाया गया बल्कि उन्‍हें केबिनेट मंत्री का दर्जा भी दे दिया गया। बाद में लोधी के ही इस्‍तीफे से खाली हुई दमोह सीट पर पूर्व कांग्रेसी लोधी को भाजपाई लोधी के रूप में उपचुनाव में उम्‍मीदवार बना कर उतारा गया।

लोधी यह उपचुनाव कांग्रेस के अजय टंडन से हार गए। और यह हार भी कोई छोटीमोटी नहीं सत्रह हजार से अधिक वोटों से हुई। हार के बाद लोधी ने अपनी शिकस्‍त का ठीकरा उन्‍हीं जयंत मलैया के सिर फोड़ा जिन्‍हें हजार से भी कम वोटों से हराकर वे 2018 में विधानसभा पहुंचे थे। उन्‍होंने मलैया पर भितरघात का आरोप लगाते हुए उनके खिलाफ कार्रवाई की मांग कर डाली। पार्टी ने भी न सिर्फ लोधी की सुनी बल्कि आनन फानन में मलैया को कारण बताओ नोटिस जारी करते हुए दमोह में मलैया के पुत्र सिद्घार्थ मलैया सहित पांच मंडल अध्‍यक्षों को पार्टी से निलंबित कर दिया।

जाहिर है यह बात दमोह में भाजपा का पर्याय बन चुके दिग्‍गज नेता जयंत मलैया को खलनी ही थी। पार्टी में अपनी खास पहचान और पकड़ रखने वाले मलैया 2018 का चुनाव राहुल लोधी से मात्र 798 वोटों से हारे थे। दमोह सीट पर मलैया की पकड़ और रसूख का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे इस सीट पर 1984 से 2013 तक, सिर्फ 1985 का चुनाव छोड़, बाकी सारे (सात) चुनाव जीते। 1990 के बाद से 2013 तक तो वे लगातार छह बार यहां के विधायक रहे।

पार्टी की ओर से की गई अनुशासनात्‍मक कार्रवाई के बाद मलैया सवाल उठा रहे हैं कि हार के लिए सिर्फ वे ही जिम्‍मेदार कैसे हैं जबकि विधानसभा उपचुनाव के लिए प्रचार की कमान खुद मुख्‍यमंत्री शिवराजसिंह चौहान और प्रदेश भाजपा अध्‍यक्ष वीडी शर्मा ने संभाल रखी थी। उन्‍होंने यह भी सवाल किया है कि राहुल लोधी जब खुद अपने ही वार्ड में हारे, वे केंद्रीय मंत्री प्रहलाद पटेल के वार्ड में भी हारे, तो फिर अकेले मैं ही हार के लिए कैसे जिम्‍मेदार हुआ? यहां यह जानना भी जरूरी है कि राहुल लोधी और उनसे पहले उनके रिश्‍तेदार प्रद्युम्‍न लोधी को कांग्रेस से भाजपा में लाने के पीछे पूर्व मुख्‍यमंत्री उमा भारती और वर्तमान केंद्रीय मंत्री प्रहलाद पटेल का हाथ माना जाता है। इस हिसाब से यह मामला लोधी समुदाय की जातिगत राजनीति से भी जुड़ा है। उधर दमोह की राजनीति में मलैया और प्रहलाद पटेल के बीच राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता की बात भी किसी से छिपी नहीं है।

नई परिस्थिति में पार्टी के लिए दिक्‍कत यह हो गई है कि बाहर से आने वालों के लिए अपनों को धकियाने के चलन के खिलाफ अब नेता मुंह खोलने लगे हैं। दमोह मामले में भी यही हुआ। पूर्व मंत्री और जबलपुर से विधायक अजय विश्‍नोई ने भी यह सवाल पूछते हुए ट्वीट किया कि क्‍या टिकट बांटने वाले और चुनाव प्रभारी भी जिम्‍मेदारी लेंगे? दमोह मामले में पार्टी के ही कई नेता इस राय के हैं कि सिंधिया प्रकरण के समय तो कांग्रेसी विधायकों को सिर पर बैठाना, सरकार बनाने के लिए, पार्टी की मजबूरी थी, लेकिन दमोह में तो ऐसा कुछ नहीं था। राहुल लोधी के भाजपा में आने या न आने से सरकार की सेहत पर कोई फर्क पड़ने वाला नहीं था फिर यह फैसला क्‍यों किया गया?

दरअसल पार्टी में बाहरी बनाम भीतरी का टकराव अब भाजपा के लिए बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। भाजपा की असली ताकत उसका संगठन और कार्यकर्ताओं का अनुशासन है। पार्टी प्रदेश अध्‍यक्ष वीडी शर्मा की मजबूरी यह है कि उन्‍हें सभी को साधना भी है और पार्टी के सांगठनिक और अनुशासन वाले चरित्र की रक्षा भी करनी है। भाजपा में कार्यकर्ता नहीं संगठन सर्वोपरि होता है और अब तक होता भी यही आया है कि संगठन ने जो फैसला कर लिया, कार्यकओं या नेताओं की भले ही उससे कोई राजी नाराजी रही भी हो तो भी वे पार्टी को समग्रता में नुकसान पहुंचाने की हद तक नहीं जाते।

सिंधिया प्रकरण के बाद नवंबर 2020 में हुए विधानसभा उपचुनाव में यह बात देखने को भी मिली थी जब सिंधिया समर्थक 22 विधायकों में से अधिकांश दुबारा जीत कर आ गए थे। तमाम आशंकाओं के बावजूद मोटे तौर पर भाजपा कार्यकर्ताओं ने उनका वैसा विरोध नहीं किया था और वैसा भितरघात भी नहीं हुआ था जैसा सब सोच रहे थे। तब उस जीत का श्रेय कार्यकर्ताओं की पार्टी के प्रति निष्‍ठा और पार्टी को ही सर्वोपरि मानने की भावना को दिया गया था।

हालांकि उस समय भी भाजपा ने अनुशासन पर कोई समझौता नहीं किया था। उस समय भी पार्टी ने कई दिग्‍गज नेताओं के खिलाफ इसी तरह की कार्रवाई की थी। दिग्‍गज नेता, पूर्व मंत्री और प्रतिपक्ष के नेता रह चुके डॉ. गौरीशंकर शेजवार और उनके बेटे मुदित शेजवार को पार्टी विरोधी गतिविधियों पर नोटिस जारी किया गया था, जबकि उनके विधानसभा क्षेत्र सांची से तो भाजपा जीत गई थी। इसी तरह मुरैना जिले में पूर्व विधायक गजराजसिंह सिकरवार और उनके बेटे एवं पूर्व विधायक को भी ऐसे ही नोटिस दिए गए थे।

जहां तक दमोह का सवाल है वहां का उपचुनाव शुरू से ही भाजपा के पक्ष में दिखाई नहीं दे रहा था। अंदरूनी खबरें कह रही थीं कि इस बार भाजपा के लिए वहां मुश्किल होगी। ऐन वक्‍त पर कोरोना की लहर तो एक कारण थी ही लेकिन अंदर ही अंदर इस तरह के दलबदल के प्रति मतदाताओं के मन में उपजी नाराजी भी थी। जातिगत समीकरण ने भी वहां बड़ा काम किया और स्‍थानीय लोगों के अनुसार यह चुनाव लोधी बनाम अन्‍य समुदाय हो गया था। दमोह में जैन समुदाय बड़ी संख्‍या में है, जयंत मलैया इसी समाज का प्रतिनिधित्‍व करते हैं, मलैया की नाराजी का असर इस समाज के वोटों पर भी हुआ।

कुल मिलाकर अभी भले ही भाजपा ने दल के प्रति निष्‍ठा और अनुशासन को सर्वोपरि मानते हुए मलैया और उनके समर्थकों के खिलाफ कार्रवाई की हो, लेकिन आने वाले दिनों में यह मुद्दा पार्टी के भीतर मंथन का सबब जरूर बनेगा। इस सवाल को नेतृत्‍व ज्‍यादा दिन तक टाल नहीं पाएगा कि बाहर से आने वाले लोगों की कीमत पार्टी में बरसों बरस काम करने वाले लोगों को कितनी और कब तक चुकानी पड़ेगी।(मध्‍यमत)
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नोट- मध्‍यमत में प्रकाशित आलेखों का आप उपयोग कर सकते हैं। आग्रह यही है कि प्रकाशन के दौरान लेखक का नाम और अंत में मध्‍यमत की क्रेडिट लाइन अवश्‍य दें और प्रकाशित सामग्री की एक प्रति/लिंक हमें [email protected] पर प्रेषित कर दें।संपादक

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