उत्तम खेती! आखिर ऐसा क्‍यों कहा गया होगा?

कोरोना के सबक- 2
प्रमोद शर्मा 
दुनिया में कौन सा व्यवसाय सबसे अच्छा है इस संबंध में एक कहावत आपमें से सबने सुनी होगी-
‘उत्तम खेती, मध्यम बान। कठिन चाकरी, भीख निदान।।‘
हमारी चिंतन पद्धति में खेती या कास्तकारी को सबसे श्रेष्ठ व्यवसाय माना गया, जबकि व्यापार को मध्यम और नौकरी को सबसे कठिन और निकृष्ट श्रेणी में रखा गया। मेरा पुस्तैनी व्यवसाय खेती ही रहा है। बचपन से ही मैंने अपने दादाजी और पिताजी को दिन-रात बिना थके हाड़तोड़ परिश्रम करने के बावजूद कभी पेटभर रुचिपूर्ण भोजन, तनभर कपड़ा पहने हुए नहीं देखा। घर में कभी किसी भी चीज की आलूदी नहीं रही, इसके बावजूद वे सदैव अलमस्त और प्रसन्न रहते थे। उन्हें कभी इस बात का मलाल भी नहीं रहा कि उनके पास बहुत अधिक धन-दौलत नहीं है।

कई बार प्राकृतिक आपदाओं से सर्वस्व स्वाहा होने के बाजवूद परिश्रम करने से न तो मैंने उन्हें कभी उकताते हुए देखा और न ही कभी खेती के प्रति उनके मन में कोई अवसाद या निराशा का भाव। ऐसी स्थिति में मेरे मन में यह प्रश्न कई बार उठा कि खेती सबसे उत्तम कार्य कैसे हो सकता है? जिस व्यवसाय में दिन-रात बिना थके परिश्रम करना पड़ता हो, मौसम की मार बरहमेश अपने सिर पर झेलनी हो, उसके बावजूद आमदनी पल्ले पड़ ही जाएगी, इसकी कोई गारंटी न हो, वह व्यवसाय उत्तम या श्रेष्ठ कैसे हो सकता है?

जहां एक व्यवसायी का अठन्नी का नौन भी ताले में होता है, वहीं कास्तकार की कठिन परिश्रम की कमाई सालभर खुले आसमान के नीचे पड़ी होती है। उसपर आसमानी के अलावा मानव और पशु के खतरे सदैव मंडराते रहते हो, ऐसे में इसे ही उत्तम क्यों कहा गया होगा? आखिर किस दृष्टि से यह व्यवसाय उत्तम कहा गया होगा?

थोड़ी समझ आई और इस कहावत का टूटा-फूटा मतलब यह निकाला कि ऐसा इसलिए होगा क्योंकि इसमें व्यक्ति स्वयं ही स्वामी होता है, वह किसी का गुलाम या नौकर नहीं होता। हालांकि जिज्ञासु मन शांत नहीं हुआ, इस कहावत का वास्तविक और गूढ़ अर्थ खोजने के लिए बेचैन ही रहा। जो कहावत मेरी समझ में सालों तक नहीं आई, उसका अर्थ कोरोना महामारी के दौरान आया। इस विभीषिका के दौरान जब सालभर घर में बैठना पड़ा और नए नजरिए से सोचने का अवसर मिला तो इस सत्य तक कुछ हद तक पहुंच पाया कि कास्तकारी ही उत्तम व्यवसाय है। वाकई, इससे श्रेष्ठ व्यवसाय में कोई हो ही नहीं सकता।

ऐसा इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि दुनिया में जितने भी व्यवसाय या जीविकोपार्जन के लिए धन कमाने के साधन हैं, उनमें कास्तकारी ही एक ऐसा साधन रहा है, जो प्रकृति को किसी भी प्रकार का नुकसान पहुंचाए बिना मानव का पेट भरता है। किसान ही एक ऐसा व्यापारी है, जो ईश्वर की बनाई इस प्रकृति में मौजूद कण-कण को अपनी मां की भांति पूजता है और उससे उतना ही लेता है, जितनी उसकी आवश्यकता होती है और वह भी प्रकृति की अनुमति लेकर। प्रकृति का पालन-पोषण करना, उससे अपने परिजन की भांति प्रेम करना किसान की सांसों में बसा होता है। वह प्रकृति से किसी भी प्रकार विलग नहीं है। मानवों में संभवतः किसान ही एक ऐसी प्रजाति है, जो प्रकृति का सम्मान करती है और उसे ही ईश्वर मानती है और उसे सजाती-संवारती रहती है।

किसान और प्रकृति एक-दूसरे के सहचर हैं। एक समय था जब किसान के काम की शुरुआत आखातीज यानी अक्षय तृतीया के शुभ दिन से होती थी। इस दिन सभी किसान अपने बखर लेकर खेतों में जाते, सबसे पहले किसान अपना माथा टेककर ‘मछंदरी माई‘ को प्रणाम करके घी-गुड़, नारियल से पूजा-अर्चना करते। उससे खेती करने की अनुमति मांगते, उसके बाद खेत में बखर चलाते। इसी प्रकार बारिश शुरू होने पर खरीफ की बोवनी के दौरान सबसे पहले मछंदरी माई की पूजा और अनुमति के बाद ही पहली मुठी छोड़ने की परंपरा रही है।

बारिश के दौरान हरियाली अमावस्या और पोला अमावस्या जैसे अनेक त्योहार आते हैं, जब किसान प्रकृति देवी की पूजा करते हैं। मुझे खूब याद है जिस दिन बोवनी का समापन होता था, उस दिन नाड़ी यानी हल पूजन का विधान था। यह किसान के लिए बड़ा भारी उत्सव होता था। इस दिन किसान बैलों की पूजा करके एक प्रकार से उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते थे कि उनकी सहायता से बोवनी का कार्य पूरा हो गया। इस दिन बैलों को अनाज खिलाया जाता था। साथ ही मछंदरी माई की पूजा करके यह प्रार्थना की जाती थी कि- ‘हे माई हमने तेरा पेट भर दिया है, जब तू हमारा पेट भरना।‘

किसान और मछंदरी माई का पुत्र-माता का नाता देखिए कि दोनों एक-दूसरे से कभी रूठे नहीं। मछंदरी माई ने किसान और उसके परिवार का पेट हमेशा ही भरा। किसी साल यदि पैदावार नहीं हुई तब भी किसान न तो मछंदरी माई से गुस्सा हुआ और न ही निराश। ऐसे में किसान यह कहकर हिम्मत बांधता कि- ‘साल हारी है, साहस नहीं। इस साल चैगुनी पैदावार होगी‘ और उनका विश्वास और प्रकृति की उदारता देखिए कि कई बार ऐसा हुआ भी।

अनुमति लेकर ही सारे काम
मैंने इस सत्य को देखा और जिया भी है कि खेती में हर काम प्रकृति से अनुमति लेकर ही किया जाता था। किसान ने प्रकृति में मौजूद हरेक तत्व पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, नदी, मिट्टी नहीं मानते हुए उसे अपनी ही तरह एक जीवंत इकाई माना। उसने सबमें उस परम सत्ता को देखा। फसल कटाई के दौरान सबसे पहले मछंदरी माई से अनुमति लेकर ही खेती में दरांती डाली जाती थी। इतना ही नहीं यदि हल-बक्खर बनाने के लिए कभी कोई पेड़ काटना हो तो एक दिन पहले उस पेड़ की पूजा की जाती और उससे अनुमति लेने के लिए साथ ही उसे न्‍योता दिया जाता कि हमें आपकी जरूरत है, कल हम लेने आएंगे। इसके बाद ही कोई किसान पेड़ की डाली पर कुल्हाड़ी चलाता था।

पेड़ों से उतना ही लिया जाता था, जितनी आवश्यकता हो। हालांकि आधुनिकता और तथाकथित शिक्षा के प्रसार ने हमारी इस व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिया है, लेकिन फिर भी कई गांवों में इसके भग्नावशेष अभी भी मिल ही जाएंगे। गांव के किसी पीपल में हनुमान बब्बा, किसी नीम में बंजारी माई, किसी बेल में भीलट बाबा और चिरौल में भैंरों बाबा मिल ही जाएंगे।

किसान को सबकी चिंता
किसान ने प्रकृति में मौजूद हर जड़-चेतन की चिंता की। शहर में भले ही चिड़िया न हों, लेकिन चैत-बैखास में चिड़ियों को पानी रखने का फैशन चलन में है। मैंने देखा है हमारे घर में एक बोरे में समां (एक मोटा अनाज) भरकर पहले ही अलग रख दिया जाता था। दादाजी कहते थे कि यह बारिश के दौरान विशेषकर सावन-भादौ के महीने में चिड़ियों को चुगाने के लिए है। कुछ समझदार होने पर मैंने पूछा तो दादाजी ने बताया था कि सावन-भादौ में बारिश अधिक होती है। इस दौरान खेतों में चिड़ियों को खाने के लिए कुछ नहीं होता, इसलिए उन्हें भोजन देना हमारी जिम्मेदारी है।

बारिश के दौरान हम छानी के नीचे थाली में समां लेकर बैठ जाते और सुबह से लेकर दोपहर तक उन्हें चुगाते रहते। पूरा आंगन चिड़ियों से भर जाता था। जब कभी हम किसी काम में उलझ जाते तो अपने निश्चित समय पर चिड़िया आकर आंगन में शोर मचाने लगती तो अम्मा कहती- ‘जाओ, सब काम छोड़ो, पहले उन्हें खाना दो।‘ मन में आज यह मलाल जरूर है कि उन दिनों न तो कैमरा था और न ही मोबाइल कि चिड़ियों से भरे उस आंगन की फोटो ले पाते।

कहने का तात्पर्य मात्र इतना ही है कि प्रकृति के साथ तादात्म्य किसान की रग-रग में बसा था। यह काम उसके लिए ठीक उसी तरह सहज था, जैसा कि सांस लेना। जरा सोचिए, प्रकृति की इतनी चिंता, इतना आदर, इतना अपनापन कोई दूसरा व्यवसायी कर सकता है? कदापि नहीं कर सकता। इसीलिए ‘खेती को उत्तम‘ कहा गया होगा। आधुनिकता की चपेट में आने के बाद यह तादात्म्य टूटता ही जा रहा है। कोरोना के इस प्रकोप को प्रकृति से इस तादात्म्य के टूटने का ही नतीजा भी कहा जा सकता है। मेरी राय में कोरोना का एक सबक यह है कि हमें प्रकृति के साथ तादात्मय बिठाने, उसके साथ समरस होने की दिशा में न केवल विचार करना चाहिए, अपितु बिना विलंब किए चल देना चाहिए।

हमें आज नहीं तो कल विकास का ऐसा मार्ग खोजना ही पड़ेगा, जिसमें प्रकृति को हानि पहुँचाए बिना हम उन्नति के मार्ग की ओर अग्रसर हो सकें। प्रकृति से होड़ करके, उसे नुकसान पहुंचाकर अपने घर भरने, प्रकृति को नष्ट करके सड़क, कारखाने, महल खड़े करने, बांध बनाने और धरती से इतन मंगल पर घर बनाने की बात सोचने को वास्तविक विकास तो कदापि नहीं कहा सकता। वास्तविक विकास तो वही कहलाएगा, जब हमारे साथ इस प्रकृति में मौजूद समस्त जीव-जंतु, पेड़-पौध, नदी-तालाब, पहाड़, झरने खिलखिलाते रहें। प्रकृति प्रसन्न रहेगी तो ही हम भी प्रसन्न रहेंगे। अस्तु! (क्रमशः)
(मध्‍यमत)
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नोट- मध्‍यमत में प्रकाशित आलेखों का आप उपयोग कर सकते हैं। आग्रह यही है कि प्रकाशन के दौरान लेखक का नाम और अंत में मध्‍यमत की क्रेडिट लाइन अवश्‍य दें और प्रकाशित सामग्री की एक प्रति/लिंक हमें [email protected] पर प्रेषित कर दें।संपादक

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