डॉ. आशीष द्विवेदी
फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह हाल ही में लंबी रेस पर चले गए पर उनके अवदान की वैसी चर्चा हुई नहीं जिसके वो हकदार थे। भारतीय खेल जगत की एक किवदंती। तप के कुंदन कैसे बना जाता है? संघर्ष के अग्निपथ को कैसे पार किया जाता है? कैसे अपनी ऊर्जा को एकाकार कर लक्ष्य को भेदा जाता है? कैसे अपने ऊपर छाने वाले हताशा, निराशा के बादलों के पार जाया जाता है? और कैसे एक अनुशासित, मर्यादित, उल्लास से भरा जीवन जिया जाता है? इस सबकी जीती-जागती मिसाल थे मिल्खा सिंह।
हॉकी के जादूगर दादा ध्यानचंद के बाद वे भारतीय खेलों के सबसे प्रेरक और लोकप्रिय चेहरे थे। उनका पूरा जीवन संघर्ष और प्रेरणा की एक ऐसी कहानी है जिस पर ‘मोटिवेशन‘ का एक अच्छा-खासा प्रमाणिक शोध ग्रंथ तैयार हो सकता है। जो देश के उन हजारों-हजार बेजार युवाओं के लिए संजीवनी का काम करेगा जिन्होंने जीवन संग्राम में बगैर लड़े ही हथियार डाल दिए हैं। जिनके पास अपनी नाकामियों के लिए बहानों की एक पूरी लिस्ट तैयार है।
मिल्खा ने सिखाया प्रतिकूल हालात में भी कैसे अपनी जिजीविषा और जीवटता के दम पर युद्धक्षेत्र जीता जाता है। जरा पल भर को विचारिए बंटवारे के भीषण जख्मों से छलनी एक नवयुवक कैसे एक दिन राष्ट्रीय स्वाभिमान का प्रतीक बन जाता है। एक समय ऐसा भी था जब मिल्खा ने अपनी रोजी-रोटी के लिए ट्रेन में छोटे-मोटे अपराधों का भी सहारा भी लिया, जूते भी पॉलिश करने पड़े। जाने कितने दिनों तक वे शरणार्थी शिविरों में फाके की जिंदगी काटते रहे। दंगों ने माता-पिता का साया भी छीन लिया था।
हमारे जीवन में इतनी विपदाएं आतीं तो न जाने क्या कर बैठते लेकिन मिल्खा किसी और ही मिट्टी के बने थे। एक ऐसा शख्स जिसने जीवन की कुल 80 प्रतियोगिताओं में सिर्फ तीन बार ही मात खाई हो वह विलक्षण ही रहा होगा। जिस पाकिस्तान के नाम पर उनके अंदर बेपनाह आक्रोश भरा हुआ था, इसी से हुए दंगों ने मां-बाप जो छीन लिए, वे वहीं अपने देश का तिरंगा बुलंद करके आते हैं।
पाकिस्तान के धुरंधर धावक अब्दुल खालिद को उसी के देश में हराकर एक तरह से अपना प्रतिशोध भी पूरा कर लिया। वहीं से ‘उड़न सिख‘ का ऐसा अमर सम्मान ले आए जो जीवन भर उनके साथ रहा। जब 1965 के युद्ध में वही अब्दुल खालिद जेल में युद्ध बंदी के तौर पर आए तो उनसे मिलने पहुँच गए। लिपटकर खूब रोए। जैसे दो प्रतिद्वंदी नहीं सच्चे दोस्त मिल रहे हों। खेल भावना का अप्रतिम उदाहरण।
अभ्यास कितना कठोर हो सकता है। उसकी भी एक पूरी कसौटी बना गए। दौड़ने का जुनून बचपन से ही था। दस किलोमीटर दूर स्कूल तो दौड़कर ही जाते। कई बार ट्रेन के बराबर दौड़ने की रेस लगाते। अपने शरीर का पसीना बहाने में जरा भी कंजूसी नहीं की। पहले लक्ष्य बनाया कि मग भर पसीना बहाऊंगा, फिर बाल्टी भर का प्रण लिया। बताइए जरा जब कोई इस स्तर तक जाकर अपने को समर्पित कर दे तो सफलता आखिर कहां जाएगी? कभी इसलिए दौड़े कि ईनाम में दूध का गिलास मिलेगा, कभी इसलिए कि इंडिया की जैकेट। फोकस इतना कि दिमाग में 45.9 सेकंड हमेशा झूलता था।(उस वक्त 400 मीटर दौड़ की समय सीमा) जिनके कंधे पर चढ़कर आप ने आसमान के तारों को छुआ, जिन्होंने आपकी राहें रोशन कीं सफलता के नशे में उनको कभी भूलना नहीं चाहिए। मिल्खा ने यही किया जीवन के आखिरी पड़ाव तक अपने कोच और गाइड को नहीं छोड़ा।
जब मिल्खा ने कॉमनवेल्थ में गोल्ड जीता तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा- बोलो मिल्खा तुम्हें क्या चाहिए, तो उन्होंने सिर्फ एक दिन की छुट्टी मांगी। इस मासूमियत पर भला कौन न बलिहारी हो जाए। यह दर्शाता है उनके अंदर एक नेकदिल इंसान रहता था। जीवन में किसी तरह की मोह-माया में नहीं रहे। तभी तो भारत के इस शिखर खिलाड़ी ने जो कई मायनों में भारत रत्न है, पद्मश्री जैसे चौथे नंबर के पुरस्कार से ही तसल्ली कर ली।
अपने जीवन साथी के प्रति अंत तक वफादार रहे। कभी शोहरत की बुलंदियों पर रहकर भी फिसले नहीं, बहके नहीं। शायद उनका यही अद्वितीय प्रेम था इसलिए पत्नी की मौत के ठीक पांच दिन बाद उन्होंने भी अपने जीवन से मोह छोड़ दिया। आज डेटिंग, चेटिंग में फंसे युवाओं को यह भी तो एक बड़ी सीख हो सकती है।
इन सब प्रेरणा सूत्र के साथ कुछ ऐसी नसीहतें भी हैं जिनके सबक भी इन्हीं मिल्खा सिंह के जीवन से मिलते हैं। पहला वाकया आस्ट्रेलिया में क्वालीफाइंग रेस के वक्त का है। पहली बार विदेश यात्रा, ग्लैमर और चकाचौंध में मिल्खा ने सारी रात क्लब में बिताई। नाच-गाकर अपनी ऊर्जा को गलत दिशा में रूपांतरित कर दिया। नतीजा क्या हुआ सबने देखा। मुकाबले में वे बुरी तरह हार गए। संदेश यह है कि जब जीवन में आप राज-रंग में डूबेंगे तो नतीजा क्या आएगा जरा सोच लीजिए।
दूसरा वाकया 1960 के रोम ओलंपिक का था। वे इस रेस में चौथे नंबर पर रहे, लेकिन उनकी पदक चूकने की कहानी को आज भी रोमांच के साथ याद किया जाता है। रोम में वे सबकी नजरों के केंद्र में थे। सभी आश्वस्त थे कि पदक तो मिल्खा ही जीतेंगे। ऐसा हो नहीं पाया। वे सेकंड के सौवें हिस्से से मात खा गए। उस दिन शायद उनकी किस्मत ने साथ नहीं दिया। उन्हें रेस के दौरान पांचवीं लेन मिली, बाजू वाली लेन में एक जर्मन एथलीट था जो सबसे कमजोर था, जिसे वे कई बार हरा चुके थे। वे सारी दौड़ उसी एक प्रतियोगी के साथ करते रहे। सबक यह है यदि आपको जीवन में कमजोर प्रतिद्वंद्वी मिला तो फिर आप कीर्तिमान नहीं रच सकते। और अंततः हुआ भी यही, मिल्खा रेस हार गए।
इसी रेस का दूसरा सबक यह भी है कि मिल्खा दौड़ते वक्त अक्सर अपने आजू-बाजू वाले धावक पर नजर रखते थे। कई बार पीछे मुड़कर भी देखते कि कौन कहां है, इस फेर में उनका ध्यान भटक जाता, गति भी प्रभावित होती। यदि आप भी अपने ध्येय को मछली की आंख की तरह फोकस नहीं करेंगे तो यही होगा। हमारे आस-पास क्या हो रहा है उसे पूरी तरह नजरअंदाज करते हुए सिर्फ और सिर्फ अपने प्रदर्शन पर ही ध्यान दें तभी विजयश्री हासिल होती है।
एक सच्चे साधक की तरह ट्रेक उनके लिए हमेशा एक मंदिर रहा। उस आसन की तरह जहां देवता विराजमान होता है। जबकि दौड़ना उनके लिए ईश्वर से प्रेम करने जैसा ही था। ऐसे अद्भुत युग पुरुष के बारे में चर्चाएं न सिर्फ खेल के मैदानों, संस्थानों में होनी चाहिए वरन स्कूली बच्चों को भी उनकी कहानी पढ़ाना होगी ताकि उन्हें पता चल सके कि सिर्फ पांचवीं क्लास पढ़ने के बाद भी जीवन की अनगिनत राहें आपकी प्रतीक्षा कर रही हैं।
(लेखक ‘खेल पत्रकारिता के आयाम‘ पुस्तक के लेखक हैं।)