राकेश अचल
भ्रष्टाचार पर अंकुश रखने के लिए बनाये गए लोकायुक्त को मध्यप्रदेश सरकार की नैकरशाही ‘टेसू’ से ज्यादा नहीं समझती। मध्यप्रदेश में लोकायुक्त के अधिकार कब बढ़ जाते हैं और कब उनमें कटौती कर दी जाती है, किसी को पता ही नहीं चलता। मप्र में लोकायुक्त संगठन की स्थापना 1981 में विधानसभा द्वारा पारित एक कानून के तहत की गयी थी।
प्रदेश की नौकरशाही की धृष्ट्ता देखिये की उसने लोकायुक्त को भरोसे में लिए बिना ही उसके अधिकार क्षेत्र में कटौती कर डाली। मामला बीते साल का है, लेकिन प्रकाश में आया है अब और जैसे ही लोकायुक्त को इस बात की खबर लगी उन्होंने पत्र लिखकर अपना विरोध दर्ज कराया, लेकिन उनका खत नक्कारखाने में तूती की आवाज की तरह दबकर रह गया।
भ्र्ष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए बनाई गयी लोकपाल की व्यवस्था को कानों-कान खबर तक नहीं हुई और मध्यप्रदेश सरकार ने धारा 17 में मदाखलत करते हुए धारा 17 -ए और जोड़ दी। इस नए प्रावधान के तहत अब न केवल लोकायुक्त को बल्कि अन्य सभी जांच एजेंसियों को आरोपी के खिलाफ प्रकरण दर्ज करने या जांच शुरू करने से पहले विभागीय अनुमति लेना पड़ेगी। इस नए प्रावधान से लोकायुक्त के दोनों हाथ बांध गए हैं अब लोकायुक्त विभागीय अनुमति मिलने तक न तो किसी के खिलाफ जांच संस्थापित कर सकता है और न ही उसे पूछताछ के लिए तलब कर सकता है।
मध्यप्रदेश में पटवारी से लेकर ऊपर तक के लोग भ्र्ष्टाचार के मामलों में फंसे हुए हैं, लेकिन अब उनका भय कम हो गया है। लोकायुक्त का कहना है कि ये गलत है और लोकायुक्त की अवमानना है। सरकार का दावा है कि जो भी किया गया वो सब केंद्र सरकार के निर्देश पर किया गया है। मप्र के लोकायुक्त जस्टिस एन के गुप्ता ने सामान्य विभाग के अपर मुख्य सचिव और सचिव को नोटिस देकर जवाब माँगा है लेकिन अब तक लोकायुक्त के नोटिस का जवाब नहीं दिया गया है।
सामान्य प्रशासन विभाग के सचिव श्रीनिवास शर्मा का कहना है कि भ्रष्टाचार अधिनियम केंद्र सरकार का है। केंद्र ने जो कानूनी संशोधन किये सो हमने भी कर दिए, हम समय पर लोकायुक्त महोदय को अपना जबाब दे देंगे। गौरतलब है कि मध्यप्रदेश में भ्र्ष्टाचार की शिकायतें बीते दो साल में लगातार बढ़ी हैं। यदि आप 2018 के आंकड़ों पार ही नजर डालें तो पाएंगे कि मध्यप्रदेश में इस साल भ्र्ष्टाचार की करीब डेढ़ लाख शिकायतें की गईं लेकिन प्राथमिक जांच के बाद कोई 31350 मामले ही दर्ज किये गए। अधिकाँश मामलों में शासन ने कार्रवाई की अनुमति दी भी लेकिन 171 मामलों में लोकायुक्त को जांच की अनुमति नहीं दी गयी, क्यों नहीं दी गयी, इसकी अलग कहानी है। ।
मध्यप्रदेश में भ्रष्टाचार ने शिष्टाचार का रूप ले लिया है। प्रदेश की कोई भी सरकार रही हो, भ्रष्टाचार पर रोक नहीं लगा सकी। क्योंकि नीयत ही नहीं है लोकायुक्त के पास न पर्याप्त स्टाफ है और न बजट, जैसे-तैसे बस काम चल रहा है। लेकिन नए प्रावधान से ये काम भी अब धीरे-धीरे ठहरता जा रहा है कहने को महाराष्ट्र के लोकायुक्त देश के सबसे कमजोर लोकपाल हैं जबकि कर्नाटक के सबसे ज्यादा मजबूत। हमारे यहां के लोकपाल के बारे में लिखकर अपनी ही जांघ खोलकर क्या दिखाएँ?
मध्यप्रदेश में जो कुछ होता है अजब ही होता है। यहां पटवारी से लेकर शीर्ष अफसरों तक को भ्र्ष्टाचार के मामलों में पकड़ा, जांच की, प्रकरण भी दर्ज किये लेकिन सजा ज्यादा आरोपियों को नहीं दिला सके। कारण एक ये है कि लोकपालों की नियुक्तियां आरम्भ से ही विवादास्पद रही है। एक समय लगभग सवा साल के इंतजार के बाद मध्यप्रदेश सरकार ने लोकायुक्त की नियुक्ति की थी। हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश नरेश गुप्ता को मध्यप्रदेश का नया लोकायुक्त नियुक्त किया गया था। लोकायुक्त की चयन प्रक्रिया को छोड़ भी दें तो नरेश गुप्ता को लोकायुक्त बनाने के फैसले में सबसे बड़ी गड़बड़ यह रही कि वह वर्तमान उपलोकायुक्त जस्टिस यू. सी. माहेश्वरी से 6 साल जूनियर थे इस वजह से उप लोकायुक्त भी नाराज रहे। इस तरह की नियुक्ति देश में अपने आप में पहला मामला था ।
आरोप यह भी था कि विधिसम्मत प्रक्रिया का पालन भी नहीं किया गया। सूचना अधिकार कार्यकर्ता अजय दुबे और आनंद राय के मुताबिक लोकायुक्त की नियुक्ति को पहले कैबिनेट को मंजूरी देनी थी। बाद में इसे राज्यपाल के पास भेजा जाना था। लेकिन सरकार ने प्रस्ताव को सीधे राज्यपाल के पास भेज दिया। उनका सवाल है कि सरकार यह बताए कि आखिर ऐसी कौन सी जल्दी थी जो सरकार ने नियुक्ति का प्रस्ताव सीधे राज्यपाल को भेज दिया। जब सवा साल से पद खाली था तो कुछ दिन और इंतजार किया जा सकता था।
बहरहाल बात ये है कि क्या नयी परिस्थितियों में लोकपाल सरकार से निर्णायक लड़ाई लड़ सकते हैं? जवाब है शायद नहीं, क्योंकि यदि लोकायुक्त संगठन पर सरकार की नजर टेढ़ी है तो कुछ होना ही नहीं है। स्थिति ये है कि अब कोई लोकपाल से भी कोई अपेक्षा नहीं रखता, क्योंकि भ्र्ष्टाचार के तालाब की सारी मछलियां और मगरमच्छ एक जैसे हैं। जब उनमें आपस में भाईचारा है तो आप लाख शिकायत कर लीजिये औपचारिक कार्रवाई से ज्यादा कुछ हो नहीं सकता। हमें एक भ्रष्ट सिस्टम के साथ ही अपना जीवन निर्वाह करना है।
आपको याद दिला दें कि मध्यप्रदेश देश के उन चुनिंदा राज्यों में से हैं जहां करोड़पति सरपंच से लेकर मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक स्तर के अधिकारी लोकायुक्त जांच के घेरे में आ चुके हैं लेकिन नख-दंतहीन लोकायुक्त किसी भी मामले को अंजाम तक नहीं ले जा पाता और जो गए भी वे अपवाद हैं या उनमें बड़ी अदालतों ने अपना छाता तानकर दिखा दिया। उदाहरण के लिए मध्यप्रदेश के एक आईपीएस अधिकारी डॉ. मयंक कुमार जैन के घर जब लोकायुक्त का छापा पड़ा तो जैन साहब की सम्पत्ति का आकलन 200 करोड़ का हुआ था, वहीं एक पंचायत सचिव भी एक करोड़ रूपये से अधिक का आसामी निकला था, लेकिन ये सब आज भी चैन से हैं, भ्रष्टाचार का नाला अबाध गति से बह रहा है क्योंकि लोकायुक्त अधिकारयुक्त नहीं हैं। लोकायुक्त से भारी नौकरशाही है।(मध्यमत)
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं।
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