इस प्रतिबंध का हल निकालने मीडिया को भी आगे आना होगा

पिछले दिनों मध्‍यप्रदेश बजट की प्रस्‍तुति के दिन विधानसभा जाना हुआ। एक समय था जब विधानसभा की रिपोर्टिंग के लिए हाड़तोड़ मेहनत करना पड़ती थी। लेकिन अब संचार के संसाधनों ने मामला बहुत आसान कर दिया है। इस आसानी ने सुविधा तो दी है लेकिन कई सारी समस्‍याएं भी खड़ी कर दी हैं जिनके लिए सरकारी और विधायी तंत्र अभी तक न तो खुद को तैयार कर पाए हैं और न ही उनका कोई ठोस समाधान सोच पाए हैं।

उस दिन विधानसभा की प्रेस गैलरी में मीडिया के लोगों की संख्‍या को देखकर घबराहट होने लगी। लगा, यदि कोई अनहोनी हो जाए और भगदड़ की स्थिति बने तो पता नहीं क्‍या हो। राज्‍य की पुरानी विधानसभा की प्रेस गैलरी में पत्रकारों के लिए करीब 25-30 सीटें ही रही होंगी। लेकिन नई विधानसभा में दो गैलरियां हैं और पत्रकारों के लिए बैठने की जगह तिगुनी हो चुकी है। इसके बावजूद ऐसा लगता है कि वहां चार गैलरियां और बना दी जाएं तो भी पत्रकार उनमें नहीं समा पाएंगे।

बजट प्रस्‍तुति से पहले प्रेस गैलरी में पत्रकारों की भारी भीड़ देखकर मैंने मजाक में अपने एक पुराने सहयोगी से कहा कि बेहतर होगा विधानसभा प्रशासन नीचे विधानसभा के विशाल परिसर में सत्र के दौरान बड़ा सा पंडाल लगा दे और वहां अस्‍थायी कुर्सियां लगाकर पत्रकारों के बैठने की व्‍यवस्‍था कर दे। कवरेज के लिए एक विशाल स्‍क्रीन लगा दिया जाए जिसमें कार्यवाही का टेलीकास्‍ट होता रहे। कवरेज भी हो जाएगा और जितने चाहे उतने पत्रकार एडजस्‍ट किए जा सकेंगे।

इस पर मुझसे कहा गया कि विधानसभा अध्‍यक्ष, मुख्‍यमंत्री, नेता प्रतिपक्ष आदि के कक्षों में पत्रकारों के प्रवेश पर तो पहले ही रोक लगा दी गई है, अब आप उन्‍हें भवन से ही बाहर करवा देना चाहते हैं। यह सुनकर मुझे ऐसी ही कुछ और घटनाएं याद आ गईं। पिछले दिनों राजस्‍थान विधानसभा में भी इसी तरह का फैसला करते हुए पत्रकार दीर्घा के अलावा अन्‍य जगहों पर पत्रकारों के प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई थी। एक समय केजरीवाल सरकार ने तो राज्‍य के सचिवालय में भी मीडिया का प्रवेश वर्जित कर दिया था।

एक और ताजा मामला वित्‍त मंत्री निर्मला सीतारमन के मंत्रालय का है। वित्‍त मंत्रालय ने नया आदेश निकालते हुए मंत्रालय भवन में प्रवेश के लिए यह शर्त लगा दी है कि पीआईबी से अधिमान्‍यता प्राप्‍त पत्रकारों को भी प्रवेश की अनुमति तभी मिलेगी जब उन्होंने किसी अधिकारी या मंत्री से पहले से अपॉइंटमेंट लिया हो। अब तक ऐसा साल में सिर्फ दो महीनों के लिए होता था जब बजट तैयार किए जाने के दौरान वित्‍त मंत्रालय में पत्रकारों का प्रवेश वर्जित रहता था।

जाहिर है सरकारों और विधानसभाओं के ये फैसले पत्रकारों को रास नहीं आए हैं। उनमें इन फैसलों को लेकर विरोध और गुस्‍सा है। विरोध को देखते हुए वित्‍त मंत्रालय की ओर से एक सुझाव यह भी दिया गया कि क्यों न रोज ‘प्रेस ब्रीफिंग’ रख दी जाए। लेकिन पत्रकारों ने इसे यह कहते हुए नामंजूर कर दिया कि वो ज्यादातर एकतरफा होती है।

दरअसल यह मामला बहुत पेचीदा है और इससे दोनों पक्षों के अपने अपने हित-अहित जुड़े हैं। एक तरफ जहां यह बात सच है कि सरकार चाहे किसी भी दल की हो, अब उसका रवैया यह होता जा रहा है कि मीडिया को जितना दूर रखा जा सके, रखा जाए। सवाल पूछने के काम में जितनी अड़चनें डाली जा सकें डाली जाएं, क्‍योंकि सवाल पूछा जाना अब किसी को पसंद नहीं। और सवाल यदि अनुकूल नहीं है तो यह नापसंदगी हिकारत और हड़काने की हद तक चली जाती है।

लेकिन हद मीडिया ने भी तोड़ी है। समस्‍या उसके साथ भी है। सबसे बड़ी परेशानी मीडिया के लोगों की लगातार बढ़ती संख्‍या है। अभिव्‍यक्ति की आजादी की आड़ में और संचार या अभिव्‍यक्ति के कई प्‍लेटफार्म आ जाने का फायदा उठाते हुए अब हर कोई खुद को पत्रकार या मीडिया से जुड़ा बताकर हर जगह न सिर्फ प्रवेश पाना चाहता है बल्कि उसने अपनी इस चाहत को अधिकार मान लिया है। पत्रकारिता के नाम पर अड़ीबाजी होने लगी है।

अब सवाल पूछे नहीं जाते, आपके मुंह में ठूंसे जाते हैं। पहले एक मान्‍य परंपरा या आचरण था कि पत्रकार सवाल पूछता और सामने वाला चाहता तो उसका जवाब देने से इनकार कर देता या टाल देता। लेकिन अब ऐसा नहीं होता। जिद यह होती है कि आपको सवाल का जवाब देना ही होगा। कोई माफी मांगकर या हाथ जोड़कर निकलना भी चाहे तो उसे ऐसे रोक लिया जाता है मानो कहा जा रहा हो, तू ऐसे कैसे जा सकता है?

अच्‍छा, इसके साथ एक बात और हुई है, वो यह कि आप सिर्फ सवाल पूछने की अड़ी ही नहीं डालते, अपने हिसाब से जवाब देने की अड़ीबाजी भी करते हैं। किसी ने यदि सवाल का कोई जवाब दे भी दिया तो आप उसके गले से तब तक झूमते रहेंगे, तब तक उसके मुंह में सवाल ठूंसते रहेंगे, जब तक कि वो आपके टीआरपी लक्ष्‍य के अनुरूप जवाब नहीं दे देता या वैसा जवाब देकर फंस नहीं जाता। मीडिया सवाल का जवाब ढूंढने नहीं निकलता वह कांटा डालकर मछली फांसने निकलता है।

ऐसे में सरकारें हों या विधानसभाएं, उन्‍हें एक ही रास्‍ता सूझता है कि पत्रकारों के प्रवेश को प्रतिबंधित या सीमित कर दिया जाए। और ऐसा ही वे कर रहे हैं। इस मामले का हल तभी निकलेगा जब दोनों पक्ष पूरी समझदारी और विवेक के साथ बैठकर बात करें और एक दूसरे की परेशानियों को समझते हुए रास्‍ता निकालें।

जैसे विधानसभा का ही मामला ले लें। इसमें एक पहल तो यही होनी चाहिए कि प्रेस गैलरी में उन्‍हीं लोगों को प्रवेश मिले जो उसकी नियमित रिपोर्टिंग कर रहे हों। इसके लिए एक आधार तो यही बनाया जा सकता है कि संबंधित पत्रकार ने एक निश्चित संख्‍या में विधानसभा के सत्र कवर किए हों। प्रेस गैलरी की कुल सीटों की संख्‍या का एक निश्चित प्रतिशत नए सीखने वाले लोगों के लिए भी रखा जाए ताकि विधानसभा रिपोर्टिंग की नई पीढ़ी भी तैयार हो सके।

बाकी लोगों को यदि पास देना ही है तो उनके लिए प्रेस गैलरी से बाहर ऐसा इंतजाम कर दिया जाए जिससे वे सदन के अंदर हो रही कार्यवाही को देख-सुन सकें। जहां तब मंत्रियों से बात करने या उन तक पहुंच का सवाल है, यह मंत्री के कक्ष या नियत स्‍थान तक ही सीमित होना चाहिए। ऐसा नहीं कि परिसर में कहीं भी रस्‍ते चलते आप किसी को भी रोक लें और उसके मुंह में सवाल घुसेड़ने लगें। देखना तो यह भी होगा कि पास मांगने वाले का उद्देश्‍य खालिस रिपोर्टिंग ही है या कुछ और…

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