पिछले चार पांच दिनों से मीडिया, खासकर सोशल मीडिया में उत्तरप्रदेश के एक विधायक की बेटी के अंतरजातीय विवाह से जुड़ा मामला बहुत चर्चा में है। इस मामले को लेकर अनेक मंचों से अलग-अलग तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। इन प्रतिक्रियाओं में उम्र और सामाजिक परिवेश के हिसाब से सोच और अभिव्यक्ति में भी बड़ा अंतर दिखाई दे रहा है, वहीं मीडिया की भूमिका को लेकर एक बार फिर नए सिरे से बहस छिड़ गई है।
मैंने सबसे पहले यह मामला एनडीटीवी के प्राइम टाइम में रवीश कुमार के मुंह से सुना था। रवीश ने उत्तरप्रदेश के बरेली के भाजपा विधायक राजेश मिश्रा की बेटी साक्षी मिश्रा द्वारा सोशल मीडिया पर पोस्ट किया गया एक वीडियो मैसेज दिखाया था जिसमें साक्षी के हवाल से बताया गया था कि- ‘’उसके पिता ने गुंडे भेजे। वह भागते भागते थक गई है। जिस लड़के से शादी की है उसके साथ खुश है। वे अच्छे लोग हैं, वे जानवर नहीं हैं।‘’
इस मुद्दे ने दो तीन कारणों से तूल पकड़ा। सबसे पहला साक्षी के वीडियो के कारण, दूसरा साक्षी ब्राह्मण परिवार से है और उसने जिस अजितेश नाम के लड़के से शादी की है वह अनुसूचित जाति का है। तीसरा बकौल साक्षी, परिवार से छुपकर शादी करने के बाद उन लोगों को मारने के लिए गुंडे भेजे गए जिनसे जान बचाने के लिए वे भागे भागे फिर रहे हैं और इसी क्रम में उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट से पुलिस सुरक्षा देने की भी मांग की है।
रवीश ने मोटे तौर पर इस प्रसंग को एक सामाजिक समस्या की तरह उठाते हुए कहा था कि ‘’अब जब समाज साक्षी और अजितेश के वीडियो पर हैरान टाइप संवेदनशील है, तो यकीन ही नहीं होता कि उसकी संवेदनशीलता पार्टटाइम है या आज शहर में डिबेट करने लायक कोई इंट्रेस्टिंग खबर ही नहीं है।‘’
दरअसल यह रवीश का ताना था जो उन्होंने उन सारे चैनलों को चुनौती की तरह दिया था जो ऐसे सामाजिक विषयों को उठाने के बजाय रोज फालतू टाइप के विषयों पर डिबेट के नाम पर चीखते चिल्लाते रहते हैं। लेकिन इस ताने की प्रतिक्रिया बहुत अलग ढंग से हुई। बाकी चैनलों के कान खड़े हुए और उन्होंने एक प्रतिद्वंद्वी चैनल द्वारा सामाजिक समस्या के तौर पर उठाए गए मुद्दे में छिपी टीआरपी की अपार संभावनाओ को देखा।
उसके बाद तो यह मुद्दा ऐसे लपका गया कि उसमें चंद मिनिटों की नहीं घंटों की संभावनाएं निकल आईं। देश के एक सबसे बड़े कहलाने वाले चैनल को तो दो ढाई घंटे तक भारत में और कोई समस्या ही नहीं दिखी। इस अवधि में देश के सामने था तो एक सामजिक मुद्दे को मसाला फिल्म या एकता कपूर के टीवी सीरियल की तर्ज पर बना दिया गया ‘मेलोड्रामा।‘ और जब एक को टीआरपी मिली तो दूसरे पीछे क्यों रहते, हरेक चैनल ने साक्षी के आंसुओं और हिचकियों से जितना बटोरा जा सकता था बटोरा…
ऐसा नहीं कि चैनलों ने केवल साक्षी के आंसू ही दिखाए। उन्होंने साक्षी के पिता को भी लाइन पर लिया और उस कथित धमकीबाज को भी, जिसका साक्षी ने अपने वायरल हुए वीडियो मैसेज में जिक्र किया था। साक्षी के पिता मीडिया के इस जंजाल से पिंड छुड़ाने की तर्ज पर हर जगह कह रहे थे- ‘’वो बालिग है और उसे अपना फैसला करने का अधिकार है। हमें कोई शिकायत नहीं।‘’ लेकिन चैनल वाले कुरेद कुरेद कर साक्षी और उसके पिता को मानो जलील करने पर आमादा थे।
प्रेम प्रसंगों या मर्जी से विवाह करने के मामलों में मनमाने और बर्बर फैसले करने के लिए हम खाप पंचायतों को दोष देते हैं लेकिन मुझे लगता है कि आज का टीवी मीडिया खाप पंचायतों का इलेक्ट्रानिक संस्करण बन गया है। और खाप पंचायतें यदि अपने आदिम रवैये से सामाजिक ताने बाने को नुकसान पहुंचा रही हैं, तो इन ‘इलेक्ट्रानिक खाप पंचायतों’ का व्यवहार भी समाज को कोई मजबूती नहीं दे रहा।
दरअसल यहां फिर वही बात सामने आती है कि इस तरह के मुद्दों को रिपोर्ट करने या उन्हें समाज के सामने प्रस्तुत करने की ट्रेनिंग आज के मीडियाकारों के पास या तो बिलकुल नहीं है और है भी तो बहुत कम। उन्हें उस लक्ष्मण रेखा का पता ही नहीं है जो ऐसे सामाजिक मुद्दों को कवर करते या दिखाते समय, प्रकरण की गंभीरता और संवेदनशीलता के लिहाज से जरूरी होती है।
अपनी मर्जी से विवाह करने पर किसी लड़के या लड़की को कोई मार डाले या उनका जीना हराम कर दे, इस बात को कौन सा सभ्य समाज स्वीकार करेगा। लेकिन इसके साथ ही यह देखना भी जरूरी है कि ऐसे मामलों को उठाते समय क्या हम समग्रता में समाज पर उसके असर का आकलन कर पा रहे हैं? यदि हमारी जिम्मेदारी उन बच्चों का जीवन बचाने के प्रति है, तो हमारी जिम्मेदारी यह भी है कि हम परिवार नाम की इकाई और रिश्तों के धागों को भी बरकरार रखें।
इस मामले में ऐसा लगा मानो मीडिया माता-पिता की छवि को ही खलनायक बनाने पर उतर आया है। ऐसा नहीं है कि घटनाएं नहीं होतीं, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि हर मां-बाप ऐसे होते हैं। और फिर आज तो इस केस में मीडिया के सामने सिर्फ साक्षी का गुहार लगाता वीडियो है। उसके पीछे की कहानी में कौन-कौन से पात्र और घटनाएं छुपी होंगी किसी को अंदाज नहीं।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि सामाजिक रिश्ते बहुत महीन धागों या रेशों से बुने होते हैं। अपनी या चैनल की छवि चमकाने अथवा कथित टीआरपी हासिल करने के चक्कर में हम यह न भूलें कि कहीं हम इस बुनावट को तो नुकसान नहीं पहुंचा रहे। साक्षी मामले की रिपोर्टिंग पर जिस तरह की प्रतिक्रिया हुई है उसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि बेटी बचाने के नाम पर जो ‘खेल’ हमने शुरू किया है, वह बेटियों के लिए और बड़ा खतरा पैदा कर दे। ऐसा नहीं कि समाज नहीं बदल रहा, यदि नहीं बदल रहा होता तो आज टीवी चैनलों की डिबेट में अंजनाएं, रुबिकाएं आदि अच्छे अच्छों के धुर्रे नहीं बिखेर रही होतीं।
इस घटनाक्रम में, दूसरा बड़ा खतरा मैं खुद मीडिया के लिए भी देखता हूं। जब आप दिल्ली में एक बहुत बड़े मीडिया बैनर की छतरी के नीचे बैठकर, किसी भी ‘राजेश मिश्रा’ को जलील करते हैं, तो आप दूर बरेली, सरगुजा, बड़वानी, मुंगेर या ऐसे ही किसी शहर अथवा छोटे कस्बों में काम कर रहे पत्रकारों के लिए कांटे बो रहे होते हैं। आपका तो कुछ नहीं बिगड़ता क्योंकि आपकी राहों में हथेली बिछाने वाले बहुत हैं, पर आपकी ऐसी हरकतों से राजनेताओं और प्रशासन में मीडिया के प्रति जो गुस्सा पैदा होता है, उसका शिकार सुदूर इलाकों में बैठा पत्रकार बनता है। आप तो सुर्खियां बटोर कर अगली सुर्खी के लिए निकल पड़ते हैं, लेकिन खून उसे अपना बहाना पड़ता है।