शुक्रवार को एक खबर पढ़कर मजा आ गया। वास्तव में लगा कि मध्यप्रदेश में गजब का नवाचार हो रहा है। खबर यह है कि प्रदेश में पहली बार सरकार ने ढोल बजाने वालों के लिए एक ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट खोलने का फैसला किया है। अपनी किस्म का यह अनोखा इंस्टीट्यूट मुख्यमंत्री कमलनाथ के संसदीय क्षेत्र छिंदवाड़ा में खोला जाएगा।
योजना यह है कि इस इंस्टीट्यूट के जरिये इलाके के ढोल वालों को ढोल बजाने के नए-नए तरीके सिखाए जाएंगे ताकि वे ‘लेटेस्ट टिप्स‘ लेकर खुद को जरूरत के हिसाब से ‘अपडेट’ कर सकें। जमाने के हिसाब से खुद को बदलकर वे शादी-ब्याह, अलग-अलग तरह की पार्टियों और राजनीतिक कार्यक्रमों में अवसर के अनुकूल धुनें बजा सकें।
ढोल वालों को नए तरीके सिखाने के लिए विवाह समारोह आदि के बदलते स्वरूप और लेटेस्ट ट्रेंड्स का भी अध्ययन किया जा रहा है। यह भी पता लगाया जा रहा है कि प्रदेश में साल भर में कितने विवाह समारोह होते हैं और वहां कितने ढोल बजाने वालों की जरूरत होती है। इसके लिए जिला, ब्लॉक और तहसील स्तर पर ढोल बजाने वालों की उपलब्धता का भी आकलन किया जाएगा।
सरकार का मानना है कि ढोल बजाने के काम में रोजगार की बहुत संभावनाएं हैं क्योंकि अलग-अलग तरह की पार्टियों, क्लबों आदि में आयोजित समारोह की प्रकृति के हिसाब से ढोल बजाने वालों की जरूरत होती है। पिछले दिनों मुख्यमंत्री कमलनाथ के सलाहकार बनाए गए, उनके वर्षों पुराने सहयोगी आर.के. मिगलानी कहते हैं कि इसी सप्ताह हम इस मामले में कुछ विशेषज्ञों से बात कर रहे हैं और छिंदवाड़ा में ढोलवालों के लिए इंस्टीट्यूट खोलने की बात अंतिम चरण में है।
ढोल बजाने वाले ज्यादातर अनुसूचित जाति के होते हैं। प्रदेश में विधानसभा चुनाव से पहले वंशकार (बसोड़) और धानुक समाज के लोगों ने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ से मुलाकात की थी और चर्चा के दौरान ही यह सुझाव आया था कि ढोल वालों के लिए कोई संस्थान होना चाहिए। कमलनाथ ने उसी समय इस सुझाव को मान लिया था।
स्थापित होने वाले संस्थान के जरिए युवाओं को ढोल बजाने के नए नए तरीके सिखाकर उन्हें रोजगार उपलब्ध कराने के प्रयास किए जाएंगे। उन्हें इस तरह ट्रेनिंग दी जाएगी कि वे भविष्य में अपना खुद का ढोल ग्रुप या बैंड भी तैयार कर सकें। मामले से जुड़े अफसरों का कहना है कि मध्यप्रदेश के ही अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग तरीके से ढोल बजाया जाता है। वहां के कुशल ढोलवादकों को इस संस्थान में शिक्षक के तौर पर रखा जाएगा।
ढोल वादन के प्रादेशिक या आंचलिक तौर तरीके सिखाने के अलावा नवोदित ढोल वादकों को और अधिक पारंगत बनाने के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में बजाए जाने वाले ढोल भी संस्थान में लाए जाएंगे ताकि संस्थान के छात्रों का राष्ट्रीय ‘एक्सपोजर’ हो सके। इसके अलावा महिलाओं और लड़कियों को भी इस गतिविधि से जोड़ा जाएगा। संभावना जताई जा रही है कि आने वाले छह माह में यह संस्थान शुरू हो जाएगा।
आप ढोल संस्थान के इस विचार को चाहे जिस रूप में लें लेकिन इतना तो मानना ही पड़ेगा कि यह आइडिया बहुत ही उपजाऊ दिमाग वाले की उपज है। वरना अपना-अपना ढोल पीटने और ढोल की पोल सामने लाने वाले इस ‘ढोला-ढोली’ समय में ढोलवालों को ढोल बजाने के नए तरीके सिखाने और उसके जरिए रोजगार की संभावना तलाशने के बारे में भला कौन सोचता है।
ढोल दरअसल दुनिया के सबसे प्राचीनतम वाद्यों में से एक है। अपने भारत में ही अलग-अलग प्रांतों में इसके कई आकार प्रकार आपको देखने को मिल सकते हैं। पंजाब जैसे राज्य में तो ढोल वहां के प्रसिद्ध नृत्य भंगड़ा की जान है। बगैर ढोल के आप भंगड़ा की कल्पना तक नहीं कर सकते। इसी तरह गुजरात का डांडिया हो या फिर महाराष्ट्र का गणेशोत्सव, असम का बिहू हो या बस्तर का लोकनृत्य… ढोल की मौजूदगी हर जगह अनिवार्य है।
पीट कर बजाए जाने वाले वाद्य यंत्रों में ढोल सबसे पुराना कहा जा सकता है। सिंधु घाटी की सभ्यता में भी इसकी मौजूदगी के प्रमाण मिलते हैं। भारत के प्राचीन स्थापत्य और शिल्प में दो वाद्यों ढोल और तबला की मौजूदगी प्रमुखता से दिखाई देती है। आइने अकबरी में इस बात का जिक्र है कि अकबर के दरबार के संगीत वाद्यों में ढोल प्रमुख वाद्य था।
कुछ वर्ष पहले तक ढोल लकड़ी के गोलाकार खोल के दोनों तरफ चमड़ा चढ़ाकर बनाया जाता था, लेकिन अब चमड़े का स्थान सिंथेटिक चादर ने ले लिया है। अलबत्ता इसे पहले भी बांस की खपच्ची या केन से बजाया जाता था और आज भी उससे ही बजाया जाता है। बजाने वाली यह लकड़ी भी दो प्रकार की होती है। एक तरफ उसकी मोटाई अधिक होती है तो दूसरी तरफ पतली। इससे अलग अलग तरह की धुनें निकालने में मदद मिलती है। लेकिन घरेलू आयोजनों में महिलाएं अकसर हाथ से ही ढोल बजाती हैं।
हिन्दी साहित्य में ढोल को लेकर कई मुहावरे प्रचलित हैं। इनमें एक है ढोल की पोल। यह मुहावरा किसी व्यक्ति के बाहर से कुछ और अंदर से कुछ और होने के संदर्भ में इस्तेमाल होता है। पर मध्यप्रदेश में जो प्रयोग होने जा रहा है उसमें ढोल में से पोल नहीं बल्कि रोजगार निकलने की आस है। रोजगार के सिलसिले में एक समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह वाक्य बहुत चर्चित हुआ था कि पकोड़े तलने वाला भी रोजगार तो पाता ही है। इस लिहाज से अब मध्यप्रदेश में युवाओं के लिए रोजगार का एक नया विकल्प तैयार होने जा रहा है।
कहने वाले कहते हैं कि दूर के ढोल सुहावने, लेकिन ऐसा लगता है कि मध्यप्रदेश सरकार पास के ढोल भी सुहावने बनाने की कोशिश कर रही है। देखना यही होगा कि जिस ढोल को गले में डाला जा रहा है वह युवाओं को थिरकने का मौका देता है या फिर यह कोशिश सिर्फ अपना ढोल पीटने वाली साबित होती है।
अंजाम कुछ भी हो फिलहाल तो आप ढोल-ढमाके से प्रदेश में स्थापित होने जा रहे ‘ढोल संस्थान’ का स्वागत कीजिए…