तो 10 मार्च को उस तारीख का ऐलान हो ही गया जिसका राजनीतिक दलों को सबसे अधिक इंतजार रहता है। इसमें भी सत्तारूढ़ दल से ज्यादा उत्सुकता विपक्षी दलों को होती है, वे उम्मीद बांधे रहते हैं कि जो पिछली बार नहीं हो सकता शायद वो इस बार हो जाए। शायद इस बार उनकी लाटरी लग जाए। पिछली बार नाराज बैठे मतदाता इस बार मान जाएं और अपने बैलेट को उनके खिलाफ बुलेट के रूप में इस्तेमाल न करें।
वैसे तो हर बार का चुनाव पिछली बार के चुनावों से कई मायनों में अलग होता है लेकिन इस बार का चुनाव अलग होने के मामले में भी थोड़ा विशेष है। ऐसा इसलिए क्योंकि अब तक होता यह रहा है कि चुनाव के प्रति उत्सुकता का या राजनीति का माहौल चुनाव की तारीखें नजदीक आने के चंद महीनों पहले बनता था। लेकिन इस बार पिछले पांच सालों में कभी ऐसा लगा ही नहीं कि देश कभी चुनावों से अलग हुआ हो।
पिछले पांच सालों में कोई दिन ऐसा नहीं रहा जिस दिन सत्ता पक्ष और विपक्ष में चुनावी माहौल से अलग कुछ दिखाई दिया हो। सत्तारूढ़ भाजपा तो अपने पूरे शासनकाल में चुनावी मोड में ही दिखी। चुनाव के दौरान चले जाने वाले सारे पैंतरे पूरे पांच साल चलते रहे। पूरे समय आरोप-प्रत्यारोप की झड़ी लगी रही तो एक दूसरे पर उछालने के लिए कीचड़ की बाल्टियां भी पूरे पांच साल तैयार रहीं।
इसलिए अब चुनाव के दौरान आप जो दृश्य देखेंगे उनमें शायद आपको कुछ नयापन न लगे। क्योंकि चुनाव के दौरान की जाने वाली तमाम हरकतें और सारी टुच्चाइयां पहले से ही चल रही हैं। और इसमें कोई भी कम ज्यादा नहीं है, इस गटर में सभी ने बराबरी से स्नान किया है। या तो खुद के शरीर पर मलारोपण किया है या फिर दूसरे के शरीर पर।
कुछ नादान बुद्धिजीवियों और डस्टबिन में डाल दिए गए मीडियाकारों को लगा कि इस अवधि में भाषा का बहुत अवमूल्यन हुआ, नैतिक मूल्यों का बहुत पतन हुआ, शिष्टाचार शब्द राजनीति से गायब हो गया, सद्भाव और सौहार्द शब्द पराए हो गए। आलोचना विरोध में और विरोध दुश्मनी में तब्दील हो गया… लेकिन ये सारे आकलन कबाड़ हो गए हैं और इसलिए मायने नहीं रखते क्योंकि राजनीति ने खुद की तासीर भी बदल ली है और समाज की भी बदल दी है…
अब लोगों को गालीगलौज पर गुस्सा नहीं आता, कीचड़ उछाले जाने पर वे उत्तेजित नहीं होते, मान और अपमान का अंतर मिट गया है… इसके बजाय अब लोग खुद गाली गलौज में शामिल होते हैं, उसके मजे लेते हैं, उन्हें कीचड़ उछालने में ही नहीं दूसरों को कीचड़ से सराबोर करने में आनंद आने लगा है और दूसरों की तो छोडि़ए,इन हरकतों के कारण होने वाले खुद के मान अपमान की भी उन्हें चिंता नहीं है।
यकीन न आए तो हजारो लाखों गालियां पड़ने के बावजूद सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर डटे रहने वाले राजनीतिक शूरवीरों की ओर एक बार निगाह भर डाल लीजिए। ऐसे माहौल में आपको ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं है कि चुनाव इस बार कैसे लड़े जाएंगे। वैसे तो मीडिया में चुनाव के ऐलान को युद्ध का बिगुल या रणभेरी बजने, शंखनाद होने, दंगल और घमासान होने जैसे विशेषणों से नवाजा जाता है लेकिन इस बार आपको सचमुच युद्ध ही देखने को मिलेगा।
भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएस कृष्णमूर्ति ने कहा है कि जिस तरह से राजनीतिक दल आपस में लड़ रहे हैं, ऐसी स्थिति में निर्वाचन आयोग के लिए सबसे बड़ी चुनौती चुनाव आचार संहिता लागू करने की होगी। लोकसभा चुनावों में कहीं अधिक ‘धनबल के इस्तेमाल, हिंसा और नफरत’ का बोलबाला होगा।
2004 का लोकसभा चुनाव अपनी निगरानी में करवाने वाले कृष्णमूर्ति की राय है कि‘जिस तरह से राजनीतिक दल आपस में लड़ रहे हैं, ऐसा लगता है कि हर तरह की संभावित जटिलताएं पैदा होंगी।’ देखने वाली बात यह होगी कि आयोग चुनावों के सुचारू संचालन के लिए बनाई गई आचार संहिता को कैसे लागू करवा पाता है।
ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। चुनाव से ऐन पहले भारत पाकिस्तान के बीच जो तनाव बना है उसने सारे राजनीतिक दलों को चुनाव का एक बड़ा मुद्दा दे दिया है। चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों से अपेक्षा की है कि वे पिछले दिनों हुई घटनाओं में शहीद हुए जवानों के चित्रों का उपयोग चुनावी गतिविधि में बिलकुल न करें। लेकिन क्या आपको लगता है कि यह संभव हो पाएगा?
पिछले पांच सालों में देश में कई तरह के ध्रुवीकरण हुए हैं। प्रधानमंत्री ने पिछले दिनों कहा कि वे देश का शीश नहीं झुकने देंगे। देश का शीश भले ही न झुका हो, लेकिन देश के भीतर ही देश को नुकसान पहुंचाने वाली कई ताकतों ने जो सिर उठाया है उनका क्या? क्या वे ताकतें चुनाव के दौरान चुप बैठेंगी?
लंबे समय से देश की संवैधानिक संस्थाएं अपनी साख के संकट से जूझ रही हैं। ऐसी संस्थाओं में खुद चुनाव आयोग भी शामिल है। फिर चाहे उसकी कार्यप्रणाली का सवाल हो या चुनाव के दौरान इस्तेमाल की जाने वाली ईवीएम मशीनों का। तमाम तरह के स्पष्टीकरण और डिमॉन्स्ट्रेशन दिखाए जाने के बावजूद राजनीतिक हलकों में ईवीएम को संदिग्ध मानना या उस पर शंका जाहिर करना बंद नहीं हुआ है।
सोशल मीडिया के असीमित और निरंकुश प्रसार ने चुनाव प्रक्रिया के दौरान आयोग के समक्ष पहुंचने वाली चुनावी शिकायतों का अंबार लगा दिया है। सीमित संसाधनों वाली चुनाव मशीनरी के लिए एक बड़ी चुनौती ऐसी शिकायतों की सुनवाई और उनका निराकरण करने की भी होगी।
ऐसे में सारी उम्मीदें मतदाताओं की समझ और विवेक पर टिकी हैं। आशा की जानी चाहिए कि नासमझ और निरंकुश राजनीतिक तंत्र को वोट के जरिए नाथने में मतदाता सफल होंगे और भारत के लोकतंत्र की चमक को फीका नहीं पड़ने देंगे। राजनीति और मीडिया भले ही चुनाव में ‘युद्ध निनाद’ सुन रहे हों लेकिन देश का मतदाता अपने ‘लोक-संगीत’ से इसे रणक्षेत्र नहीं बनने देगा।