जान है आपकी, और गंवाने का फैसला भी आपका ही है…

अमिताभ बच्‍चन द्वारा प्रस्‍तुत चर्चित कार्यक्रम ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में हर शुक्रवार को ऐसे लोग बुलाए जाते हैं जिन्‍होंने व्‍यक्तिगत या सामूहिक रूप से समाज के लिए कुछ न कुछ सकारात्‍मक योगदान किया हो। इसी श्रृंखला में 30 अगस्‍त को राष्‍ट्रीय आपदा मोचन बल एनडीआरएफ की टीम कार्यक्रम में शामिल हुई थी। इसमें एनडीआरएफ के महानिदेशक एस.एन. प्रधान सहित कई बड़े अधिकारी मौजूद थे।

कार्यक्रम का समापन हो चुकने के बाद अमिताभ बच्‍चन ने प्रधान से अनुरोध किया कि वे दर्शकों को कुछ ऐसे टिप्‍स दें, जो किसी भी आपदा के समय उनके काम आएं और जिनकी मदद से संकट के समय में वे खुद की हिफाजत कर सकें। प्रसाद ने इस पर तीन बातें कहीं जो ध्‍यान देने योग्‍य हैं।

उन्‍होंने कहा- ‘’मैं तीन बातें बताऊंगा और ये टिप्‍स नहीं हैं बल्कि एक सामान्‍य व्‍यवहार वाली बात है। पहला यह कि आपदा की स्थिति किसी के भी साथ हो सकती है और कभी भी हो सकती है। यह मान लेना गलत है कि हमारे साथ तो ऐसा हो ही नहीं सकता। दूसरा, जब आप यह मान लें कि आपके साथ ऐसा हो सकता है, तो उससे निपटने की तैयारी करिये। जहां कहीं भी इस तरह का कोई ट्रेनिंग कार्यक्रम चलता हो वहां से उसे सीखें। और तीसरा अपने घर में मौजूद चीजों को आपदा के समय जीवन रक्षा के लिए कैसे इस्‍तेमाल करें यह भी जानें। जैसे बाढ़ के समय प्‍लास्टिक की खाली बोतलें, नारियल का खोल और गेंद आदि ‘लाइफ जैकेट’ के रूप में इस्‍तेमाल की जा सकती हैं।‘’

मुझे बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि मैंने केबीसी के उस कार्यक्रम का जिक्र आज यहां क्‍यों किया। जी हां, भोपाल में 13 सितंबर को तड़के गणेश विसर्जन के दौरान जो हादसा हुआ और जिसमें 11 लोग असमय मौत के मुंह में चले गए, उसने फिर हमें चेताया है कि हम किसी भी सूरत में खुद को अनहोनी या आपदा से निरापद मानकर न चलें। इस वाक्‍य को गांठ बांध लें कि आपदा कभी भी, किसी पर भी आ सकती है।

लेकिन ऐसा लगता है कि जो लोग 13 सितंबर को राजधानी के खटलापुरा घाट पर विशाल और वजनी गणेश प्रतिमा का विसर्जन करने गए थे, उन्‍होंने यह मान लिया था कि वे किसी भी अनहोनी या आपदा से रक्षा का कवच पहने हुए हैं। उनके इसी अतिविश्‍वास या लापरवाही ने उनकी जान ले ली। घटना का जो वीडियो वायरल हो रहा है वह साफ बताता है कि यदि उस भारी भरकम गणेश प्रतिमा को विसर्जित करने वाले युवा यदि अपनी जान की थोड़ी सी भी परवाह करते और इस बात से डरते कि, वे जो करने जा रहे हैं उसमें खतरा है और यह खतरा उनकी जान भी ले सकता है, तो शायद उनमें से अधिकांश की या सभी की जान बच सकती थी।

मैंने देखा है कि जब भी ऐसी घटनाएं होती हैं उसे प्रमुख रूप से दो ही रंगों में दिखाया जाता है। पहला प्रशासनिक लापरवाही का और दूसरा राजनीतिक आरोप-प्रत्‍यारोप का। मीडिया को यह रुचता भी है और उसके लिए ऐसा कहना कई तरह से ‘सुविधाजनक’ भी है कि प्रशासनिक लापरवाही के कारण यह हादसा हुआ। लेकिन ऐसा करके हम समाज का दोहरा नुकसान कर रहे होते हैं। क्‍योंकि ऐसा करने से एक तो हम घटना का शिकार हुए लोगों की खुद की लापरवाही पर बात न कर, एक तरह से उस पर परदा डाल रहे होते हैं और दूसरे समाज को जाग्रत करने और उसे यह बताने सबसे सही मौका खो देते हैं कि आपदा किसी के भी साथ कहीं भी हो सकती है, इसलिए खुद को उससे दूर रखने या जान को जोखिम में डालने से बचें।

दूसरा मामला राजनीतिक होता है। एक पक्ष जो सरकार में होता है वह रक्षात्‍मक हो जाता है और जो विपक्ष में होता है वह आक्रामक। और सत्‍ता में कोई भी हो उसे मामले को ठंडा करने या अपनी जान छुड़ाने के परंपरागत तरीके ही अपनाने पड़ते हैं, इनमें सबसे पहला होता है मृतकों के परिजनों को मुआवजा देना और दूसरा घटना की जांच करवाने की घोषणा करते हुए दोषियों को कड़ा दंड देने की बात करना। लेकिन न तो मुआवजा इस समस्‍या का हल है और न ही जांच और अभियोजन की वर्षों चलने वाली प्रक्रिया।

हल यदि है तो आपकी खुद की जाग्रति, आपकी समझ और लोगों को समझा पाने की कूवत और इच्‍छाशक्ति। यह कोई पहली बार नहीं है कि ऐसी दुर्घटना हुई हो। गणेश विसर्जन या दुर्गा विसर्जन पर ऐसे छोटे बड़े हादसे वर्षों से होते रहे हैं। हर हादसे के बाद एक स्‍यापा-अवधि होती है जिसमें चारों तरफ स्‍यापा पसरा दिया जाता है, लेकिन वह अवधि बीत जाने के बाद समाज, सरकार और प्रशासन मानो फिर अगले हादसे का इंतजार करने लगता है। संवेदनाओं के बुलबुले मौके की नजाकत से पैदा होते हैं और उसी तरह नष्‍ट भी हो जाते हैं। सिवाय पीडि़त परिवार के, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता।

भोपाल हादसे के बाद भी यही सब हो रहा है। चूंकि हादसा बड़ा है इसलिए ‘स्‍यापा-अवधि’ हो सकता है कुछ ज्‍यादा दिन चले और संवेदनाओं के बुलबुले भी कुछ दिन उठते रहें। पर यकीन रखिये जल्‍दी ही सब कुछ सामान्‍य हो जाना है। और हो क्‍या जाना है, हो भी चला है। जिस समय पिपलानी की बस्‍ती में 11 अर्थियां उठ रही थीं, ठीक उसी समय उस बस्‍ती से चंद किलोमीटर दूर, मेरे घर के ठीक सामने वाली सड़क पर बच्‍चों और युवाओं का हुजूम डीजे पर बजती- ‘लड़की आंख मारे’- की धुन पर डांस और मस्‍ती करता हुआ गणेश विसर्जन के लिए जा रहा था।

सरकार, प्रशासन और समाज को सचमुच यदि ऐसे हादसे रोकना हैं तो 15 दिन बाद फिर से एक अवसर उनके पास आने वाला है। हो हिम्‍मत तो करके दिखाइए कि दुर्गा की कोई भी प्रतिमा चार फुट ऊंची और 50 किलो से ज्‍यादा वजनी नहीं होगी। (यह आकार और वजन और भी कम हो सकता है) मिट्टी की प्रतिमा के अलावा कोई भी प्रतिमा स्‍थापित करने की अनुमति नहीं होगी, ऐसी सारी प्रतिमाएं जब्‍त कर ली जाएंगी। प्रतिमा विसर्जन सिर्फ दिन में ही होगा। प्रतिमा लाते समय और विसर्जन के लिए ले जाते समय कोई डीजे नहीं बजेगा। प्रतिमा स्‍थापना स्‍थलों के लिए सड़कों और सार्वजनिक स्‍थलों का अतिक्रमण नहीं होगा, वहां बजने वाला गीत संगीत निर्धारित डेसीबल सीमा से अधिक नहीं होगा…।

इनमें से कोई बात ऐसी नहीं है जो नामुमकिन हो, लेकिन मुझे पता है, ऐसा कुछ नहीं होने वाला। और जब आप हादसे को रोकने के उपाय करना ही नहीं चाहते तो खुद ही सोचिए कि क्‍या हादसे के बाद उस पर आंसू बहाने का हक भी है आपको?

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