अच्छा हुआ यह बात सुप्रीम कोर्ट की ओर से कही गई है, वरना यदि ऐसा ही बयान किसी सामाजिक, जातीय या धार्मिक संगठन की ओर से आता तो देश में बवाल मच जाता। निश्चित रूप से मामले को लेकर दो पक्ष बनते और फिर दोनों ओर से सरकार और विपक्ष को दोषी ठहराते हुए बयान दिए जाते। इन बयानों पर कई ऐसे नामचीन लोगों के दस्तखत होते, जो मुझे लगता है, इन दिनों दस्तखत करने के लिए उधार ही बैठे रहते हैं।
मामला छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले का है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार वहां 33 साल के एक मुस्लिम युवक ने 23 साल की एक हिन्दू युवती से शादी की। शादी के लिए युवक ने अपना धर्म बदला यानी वह हिन्दू बना और फिर दोनों ने आर्य समाज मंदिर में फेरे लिए। बीच में क्या हुआ इसका ब्योरा मीडिया रिपोर्ट्स में नहीं है लेकिन खबरों में जिक्र आया है कि छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने युवती को उस युवक के साथ रहने की इजाजत दे दी।
इसका मतलब यह हुआ कि शायद लड़की पक्ष के लोगों ने शादी का विरोध किया होगा और उनके विरोध के चलते ही मामला हाईकोर्ट तक पहुंचा होगा। बुधवार को देश के संज्ञान में यह मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचने के बाद सामने आया। दरअसल वहां लड़की पक्ष की ओर से हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती दी गई थी।
इस मामले का एक पक्ष मीडिया की रिपोर्टिंग से जुड़ा है और दूसरा कोर्ट के ऑब्जर्वेशन से। मैंने इस खबर को जिस अखबार में देखा उसके प्रिंट संस्करण में खबर का विवरण कुछ और है और डिजिटल संस्करण में कुछ अलग। प्रिंट संस्करण कहता है कि लड़की पक्ष के वकील मुकुल रोहतगी ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि ‘’लड़की अपने पिता के साथ रह रही थी। एक दिन 70 पुलिसवाले उनके घर आए और युवती को जबरन अपने साथ ले गए।‘’ जबकि डिजिटल संस्करण में लिखा गया है कि ‘’पिछली बार सुप्रीम कोर्ट के समक्ष पिता के साथ रहने की इच्छा जता चुकी हिंदू लड़की अब अपने मुस्लिम पति के साथ रहना चाहती है।‘’
लेकिन मामले का असल पेंच दूसरा है। सुप्रीम कोर्ट को जानकारी दी गई है कि लड़के ने लड़की से शादी करने के लिए अपना धर्म बदला था और शादी के बाद वह फिर मुस्लिम हो गया है। रोहतगी का कहना था कि ऐसे व्यक्ति पर एक पिता कैसे भरोसा कर सकता है जो एक हिंदू लड़की से शादी करने के लिए पहले अपना धर्म बदलकर हिंदू बनता है और शादी के बाद फिर से अपने धर्म में लौट जाता है। यह एक हिंदू लड़की को फंसाने का रैकेट है। उधर लड़के के पक्ष के वकील गोपाल शंकरनारायण ने लड़की पक्ष की तमाम दलीलों को नकारते हुए उन पर आपत्ति भी जताई।
अब जरा वो सुनिये जो सुप्रीम कोर्ट ने कहा। मामले की सुनवाई कर रही जस्टिस अरुण मिश्रा और जस्टिस एम.आर. शाह की बेंच ने इस मामले में लड़की के पति और छत्तीसगढ़ सरकार से जवाब तलब किया। लेकिन इससे पहले पक्ष और विपक्ष की दलीलों को सुनने के दौरान जस्टिस अरुण मिश्रा ने बहुत मार्के की बात कही। खबरों के मुताबिक उन्होंने हिंदू लड़की से शादी करने वाले मुस्लिम लड़के से कहा- ‘’महान प्रेमी नहीं निष्ठावान पति बनो।‘’
मामले को हिंदू मुस्लिम मोड़ दिए जाने की संभावनाओं को परे रखते हुए जस्टिस मिश्रा बोले- ‘’हम इस तरह के रिश्तों के खिलाफ नहीं हैं। हमारी चिंता इस बात को लेकर है कि लड़की को सुरक्षा कैसे दी जाए। हम अंतरजातीय विवाह के विरोध में नहीं, बल्कि लड़की की सुरक्षा चाहते हैं। क्या होगा यदि पति इस युवती को छोड़ दे? कई बार गलत इरादों के चलते किए गए विवाह में पुरुषों द्वारा महिलाओं को छोड़ दिया जाता है हम उस बात को लेकर चिंतित हैं।‘’
दरअसल यही वह पक्ष है जिस पर ऐसे मामलों में सबसे ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए। जब भी अंतरजातीय या अंतरधार्मिक विवाहों की बात आती है, उन्हें या तो जातिगत विवादों में उलझा दिया जाता है या फिर धार्मिक विवादों में। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि समाज बदल रहा है और बदलते समाज में अनेक रूढि़यों और मान्यताओं को दरकिनार करते हुए युवा पीढ़ी अपने हिसाब से फैसले कर रही है। ऐसे फैसलों में शादी के फैसले सबसे ज्यादा हैं जो जातीय और धार्मिक बंधनों को तोड़ते हुए किए जा रहे हैं।
पिछले दिनों उत्तरप्रदेश के एक विधायक की बेटी के अंतरजातीय विवाह का मसला बहुत जोर शोर से उठा था और उस समय भी यह बहस खड़ी की गई थी कि माता पिता या परिवार वाले ऐसे विवाहों के न सिर्फ खिलाफ होते हैं बल्कि कई बार ऐसे रिश्तों की परिणति खून खराबे तक में होती है। आन बान शान के नाम पर, कई बार परिवार वाले, मर्जी के खिलाफ जाकर ऐसा कदम उठाने वाले लड़की-लड़के की जान के दुश्मन बन जाते हैं।
निश्चित रूप से युवा पीढ़ी को अपने हिसाब से फैसले करने का हक है। लेकिन उत्तरप्रदेश प्रकरण में भी मैंने इसी कॉलम में लिखा था कि ऐसे मामलों में विचार करते समय हमें हमेशा माता-पिता, परिवार या समाज को खलनायक के रूप में ही नहीं देखना चाहिए। छत्तीसगढ़ मामले में आज जो सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि उसकी चिंता भी एक अभिभावक जैसी ही है। विरोध का झंडा लेकर खड़े हो जाने से पहले इस बात को भी गंभीरता से देखा जाना चाहिए कि मर्जी के नाम पर की जाने वाली शादी के दौरान लड़की या लड़का कहीं किसी अनहोनी या साजिश का शिकार तो नहीं बन रहा। कहीं उसे किसी और उद्देश्य के लिए फंसाया या मोहरा तो नहीं बनाया जा रहा? सुप्रीम कोर्ट के इस ऑब्जर्वेशन की गंभीरता को उतनी ही गंभीरता से समझा जाना चाहिए कि- ‘’कई बार गलत इरादों के चलते किए गए विवाह में पुरुषों द्वारा महिलाओं को छोड़ दिया जाता है।‘’
मीडिया को भी चाहिए कि वह फौरी तौर पर सनसनी पैदा करने के लिए ऐसे मामलों को सिर्फ जातीय या धार्मिक एंगल से उठाने के बजाय कभी गहराई से यह पता लगाने की भी कोशिश करे, या कोई ऐसा सर्वे भी हो, जिसमें यह भी जानने को मिले कि इस तरह की जाने वाली शादियों में से कितने प्रतिशत शादियां सफल या स्थायी होती हैं। और हां, हो सके तो यह भी पता करे कि कितने प्रेमी, निष्ठावान पति बन सके… (जैसीकि सुप्रीम कोर्ट ने सलाह दी है।)