गंगवार पर उबलने के बजाय, दिमाग ठंडा रखकर सोचें

श्रम और रोजगार मामलों के केंद्रीय राज्‍य मंत्री संतोष गंगवार के एक बयान को लेकर पूरे मीडिया और राजनीतिक जगत ने आसमान सिर पर उठा लिया है। इस पर चारों तरफ से प्रतिक्रियाओं की बौछार हो रही है और ऐसी ज्‍यादातर प्रतिक्रियाओं में गंगवार की कड़ी आलोचना की जा रही है। सोशल मीडिया के वीर तो मौका पाते ही गंगवार के बयान के बहाने केंद्र सरकार पर पिल पड़े हैं।

लेकिन इस पूरे मामले पर उबलने या आगबबूला होने के बजाय दिमाग ठंडा रखकर सोचने की जरूरत है। पहले ध्‍यान से पढि़ये कि आखिर संतोष गंगवार ने कहा क्‍या है। उन्‍होंने 14 सितंबर को बरेली में कहा था- ‘देश में रोजगार की कमी नहीं है, लेकिन उत्तर भारत में जो रिक्रूटमेंट करने आते हैं, इस बात का सवाल करते हैं कि जिस पद के लिए हम (कर्मचारी) रख रहे हैं उसकी क्वालिटी का व्यक्ति हमें कम मिलता है।

अब इस बयान पर जिसको राजनीति करना हो वो करे। जिसे यह बयान आर्थिक मंदी से ध्‍यान हटाने वाला लगता हो लगता रहे। लेकिन मुझे लगता है कि गंगवार के बयान में ऐसी कोई बात नहीं है जो उनकी इस तरह खिंचाई का कारण बने। क्‍योंकि उन्‍होंने जो भी कहा है वह यथार्थ है। और चूंकि इन दिनों हमें यथार्थ को देखने, सुनने और समझने की आदत नहीं रही है या कि यथार्थ को राजनीतिक चश्‍मे से देखने का ही चलन है इसलिए गंगवार आलोचना का पात्र बने हैं।

वाकई यह सचाई है कि अपवादों को छोड़कर, उत्‍तर भारत के ज्‍यादातर युवा उस प्रतिस्‍पर्धा के लायक नहीं हैं जिसकी आज नौकरी या अन्‍य किसी रोजगार के लिए जरूरत है। उनके पास डिग्रियां हैं, लेकिन न तो उनमें उस डिग्री के अनुरूप योग्‍यता है और न ही उस डिग्री के आधार पर कोई काम करने की वांछित काबिलियत। इसलिए अकसर यह होता है कि इन इलाकों के युवा बड़ी और अच्‍छी नौकरियों में पिछड़ जाते हैं।

इस मामले को लेकर दिसंबर 2018 में इसी कॉलम में मैंने एक सीरीज लिखी थी जिसमें युवा, शिक्षा और रोजगार के मुद्दों को अलग अलग कोणों से देखने की कोशिश की थी। उस सीरीज का आधार मध्‍यप्रदेश के नए बने मुख्‍यमंत्री कमलनाथ की पहली प्रेस कॉन्‍फ्रेंस में दिया गया वह बयान था जिसमें उन्‍होंने प्रदेश में उत्‍तरप्रदेश और बिहार के लोगों के बजाय स्‍थानीय युवाओं को तरजीह देने की बात की थी।

मुख्‍यमंत्री बनने के तत्‍काल बाद कमलनाथ ने कहा था- ‘सूबे में बहुत सारे ऐसे उद्योग लग जाते हैं जहां अन्य प्रदेशों से लोग आ जाते हैं खासकर बिहार और उत्तर प्रदेश से। मैं उनकी आलोचना नहीं कर रहा हूं, लेकिन हमारे मध्य प्रदेश के नौजवान वंचित रह जाते हैं। उन्हें (उद्योगों को) अब तभी इंसेंटिव का लाभ मिलेगा जब वे 70 फीसदी रोजगार मध्य प्रदेश के स्थानीय लोगों को देंगे।’

जिस तरह आज संतोष गंगवार के बयान पर लोग उछल रहे हैं और उन पर हमले हो रहे हैं, उसी तरह उस समय कमलनाथ पर भी देश भर में चौतरफा हमले हुए थे। उस समय भी मीडियावीरों ने बगैर सोचे समझे यह सवाल उठा दिया था कि क्‍या अब मध्‍यप्रदेश में आने के लिए पासपोर्ट भी लेना होगा? जिस तरह आज गंगवार को सफाई देनी पड़ रही है, उसी तरह कमलनाथ को भी सफाई देनी पड़ी थी कि उन्‍होंने मध्‍यप्रदेश से बाहर के लोगों को नौकरी के लिए प्रतिबंधित नहीं किया है बल्कि राज्‍य के युवाओं को अधिक अवसर देने की बात की है।

जब भी उत्‍तर भारत के युवाओं के रोजगार का मसला आता है। उसे भाषा के सवाल से भी जोड़ दिया जाता है। आम धारणा यह है कि उत्‍तर भारत के लोग हिन्‍दी भाषी होते हैं और कॉरपोरेट नौकरियों में अंग्रेजी बोलने वालों को प्राथमिकता दी जाती है इसलिए वे पिछड़ जाते हैं। हां, एक स्‍तर तक यह बात ठीक है कि कॉरपोरेट नौकरियों में अंग्रेजी जानने, समझने और बोलने वालों को प्राथमिकता मिलती है, लेकिन इसका अर्थ हिन्‍दी के विरोध के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए। चूंकि वहां अंग्रेजी जानना उस नौकरी की बुनियादी जरूरत में शामिल है, इसलिए प्राथमिकता ऐसे युवाओं को मिल जाती है।

पर यदि हम भाषा के ही कौशल की बात करें तो क्‍या हम दावे के साथ कह सकते हैं कि जहां हिन्‍दी बोलने वालों की जरूरत होती है वहां भी हम वांछित योग्‍यता या प्रतिभा का प्रदर्शन कर पाते हैं? सालाना रस्‍म के रूप में मनाए जाने वाले हिन्‍दी दिवस के मौके पर हिन्‍दी के उत्‍थान और उस पर अंग्रेजी के हावी होने की बातें तो बहुत होती हैं, लेकिन असलियत यह है कि यदि शुद्ध हिन्‍दी बोलने के साथ किया जाने वाला कोई रोजगार हो तो उसमें भी उत्‍तर भारत या हिन्‍दी भाषी राज्‍यों के कई सारे नौजवान शायद सफल न हो पाएं।

ऐसा इसलिए है कि हम हिन्‍दी की बात जरूर करते हैं लेकिन न तो उसके स्‍वर और व्‍यंजन के सही उच्‍चारण का ज्ञान हमारे पास है और न ही व्‍याकरण का। मीडिया क्षेत्र में चार दशकों के कार्यकाल के दौरान खुद मेरे सामने ऐसे कई अवसर आए जब अखबार या टीवी मीडिया में हिन्‍दी में काम करने वाले पत्रकारों की भरती करनी थी। मेरा अनुभव रहा कि तमाम विश्‍वविद्यालयों और पत्रकारिता संस्‍थानों से पोस्‍ट ग्रेजुएट डिग्री लेने वाले युवा भी, ठीक से हिन्‍दी का एक पैराग्राफ तक नहीं लिख पाते। कड़वी सचाई तो यह है कि उनका आवेदन और उसके साथ भेजा जाने वाला बॉयोडाटा भी अंग्रेजी में होता है और वह भी कहीं से कॉपी पेस्‍ट किया हुआ।

इसलिए यह बिलकुल जरूरी है कि हमारे युवाओं को, खासतौर से उत्‍तर भारत के युवाओं को, यदि रोजगार चाहिए तो उन्‍हें अपने हिसाब से नौकरी ढूंढने के बजाय, खुद को नौकरियों के अनुरूप ढालना होगा। वांछित कार्यकुशलता और नियोक्‍ता की जरूरत के हिसाब से काम कर सकने का कौशल और योग्‍यता हासिल करना होगी। वरना आपके पास कहने को डिग्री तो होगी, लेकिन रोजगार नहीं। कोई समय रहा होगा जब डिग्री और रोजगार में सीधा संबंध था, पर अब इसके बीच सेतु के रूप में कौशल या स्किल जुड़ गया है। यदि आपके पास डिग्री है और उस डिग्री के आधार पर मिलने वाला काम कर सकने का व्‍यावहारिक कौशल भी, तो आप नियोक्‍ता के काम के हैं, वरना उसके लिए आप बोझ हैं। और जाहिर है कोई भी अपने सिर पर बोझ को लेकर घूमना क्‍यों चाहेगा?

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