होना तो नहीं चाहिए, पर क्‍या करें, हो जाता है…

पता नहीं आप लोगों में से कितनों को या प्रदेश के मतदाताओं में से कितनों को यह बात पसंद आएगी कि चुनाव में जनता की रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़े मुद्दों पर बात होनी चाहिए। आप सोच रहे होंगे कि यह भी कैसी बात हुई भला? अरे, चुनाव में ही लोगों की रोजमर्रा जिंदगी और उससे जुड़ी परेशानियों पर बात नहीं होगी तो कब होगी?

यदि आपका यह मत है तो फिर आप खुद ही सोचिए कि क्‍या इन दिनों सचमुच ऐसे मुद्दों पर बात हो रही है? चुनावी सभाओं में जो भाषण हो रहे हैं और राजनीतिक रूप से जो बयान दिए जा रहे हैं उनमें कहीं आपको ऐसा दिखता है कि आपके वोट की दरकार रखने वाला उम्‍मीदवार वास्‍तव में आपसे और आपकी समस्‍याओं से कोई सरोकार रखता है? और सरोकार की बात भी अलग रख दीजिए, क्‍या उसे पता भी है कि आपकी असली समस्‍याएं हैं क्‍या?

कई बार ऐसा लगता है कि लोगों की समस्‍याएं या इच्‍छाएं बहुत अलग हैं और उम्‍मीदवार की प्राथमिकताएं और आग्रह (आप यहां दुराग्रह भी पढ़ सकते हैं) बहुत अलग। आप अगर सोच भी रहे हों कि उम्‍मीदवार को आपकी जिंदगी से जुड़े मसलों पर बात करनी चाहिए तो भी दिखता यह है कि उम्‍मीदवार आपसे अपेक्षा रख रहा है कि उसने जिस बात को मुद्दा माना है, आप भी उसे ही मुद्दा मानते हुए उसे वोट करें।

चुनाव के समय मतदाताओं की रुचि, उनकी समस्‍याएं, उनके सवाल, उनकी समझ के साथ-साथ सरकारों के कामकाज, नेताओं के परफार्मेंस, सरकारों की रीति-नीति और जनप्रतिनिधियों के चाल-चलन आदि को लेकर कई संस्‍थाएं सर्वे करती हैं। हालांकि यह बात भी सही है कि अब ऐसे ज्‍यादातर सर्वे प्रायोजित होने लगे हैं। खुद राजनीतिक दल पैसे देकर ऐसे सर्वे करवाते हैं और अपने मनोनुकूल निष्‍कर्ष निकलवाकर उन्‍हें मतदाताओं के बीच प्रचारित करवाया जाता है।

लेकिन कुछ संस्‍थाएं हैं जो आज भी अपेक्षाकृत ज्‍यादा प्रोफेशनल तरीके से और अधिक गंभीरता से इस काम को करती हैं। ऐसी ही एक संस्‍था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्‍स (एडीआर) ने लोकसभा चुनाव से पहले देश में मतदाताओं का मन जानने और सरकारों के कामकाज का आकलन करने के लिहाज से एक सर्वे किया था। यह सर्वे पिछले साल अक्‍टूबर से दिसंबर माह के बीच राज्‍यवार किया गया। इस लिहाज से आप इसे लोकसभा चुनाव से पहले लोगों के मूड के रूप में भी देख सकते हैं।

एडीआर ने हाल ही में इस सर्वे के मध्‍यप्रदेश से संबंधित आंकड़े जारी किए हैं। चूंकि जब यह सर्वे हुआ उस समय मध्‍यप्रदेश में विधानसभा चुनाव और उनके परिणाम आने की गहमागहमी भी थी इसलिए आप इसे राज्‍य और केंद्र सरकारों के संदर्भ में भी विश्‍लेषित कर सकते हैं। लेकिन मोटे तौर पर इसमें जो सवाल पूछे गए वे मतदाताओं के रुझान और जनप्रतिनिधियों/सरकारों से उनकी अपेक्षा या लोगों की प्राथमिकता से संबंधित थे।

मध्‍यप्रदेश में हुए सर्वे के नतीजे बताते हैं कि राज्‍य के लोगों ने सरकारों/जनप्रतिनिधियों से अपेक्षा की अपनी प्राथमिकता सूची में, सबसे पहली प्राथमिकता रोजगार के बेहतर अवसर को दी है। उसके बाद वे चाहते हैं कि कृषि उत्‍पादों के लिए उन्‍हें अधिक मूल्‍य मिलना चाहिए। तीसरे नंबर पर उन्‍होंने बेहतर स्‍वास्‍थ्‍य सुविधाओं को रखा है।

अब यदि इन अपेक्षाओं के पैमाने पर सरकारों के कामकाज का मूल्‍यांकन करें तो लोगों ने रोजगार के बेहतर अवसर उपलब्‍ध कराने के मामले में पांच में से 1.94, कृषि उत्‍पादों का अधिक मूल्‍य दिलाने के मामले में पांच में से 1.81 और स्‍वास्‍थ्‍य सुविधाएं मुहैया कराने के मामले में पांच में से 2.8 अंक दिए है जो सर्वे के मापदंडों के हिसाब से औसत से भी कम हैं।

चुनाव के दौरान अकसर बेहतर कानून और व्‍यवस्‍था का मुद्दा भी उठता है, पर आपको जानकर आश्‍चर्य होगा कि शहरी मतदाताओं ने इस मसले को 41 प्रतिशत अंक देकर प्राथमिकता सूची में तीसरे स्‍थान पर रखा है, जबकि ग्रामीण मतदाताओं ने 23 फीसदी अंक देकर दस मुद्दों वाली सूची में आठवें स्‍थान पर। यह बात इसलिए चौंकाती है क्‍योंकि आम धारणा यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में कानून और व्‍यवस्‍था के साथ साथ बेहतर पुलिसिंग पर अपेक्षाकृत कम ध्‍यान जाता है। ग्रामीण मतदाताओं की राय यह सोचने पर भी विवश करती है कि गांव-देहात के लोगों ने अपराध होने और पुलिस की ओर से अपेक्षित सहयोग न मिलने को क्‍या अपनी नियति मान लिया है?

अपराध की बात चली है तो एक और मामले को लीजिये। मतदान के व्‍यवहार को लेकर मतदाताओं से पूछा गया था कि आपराधिक पृष्‍ठभूमि वाले प्रत्‍याशियों के चुनाव लड़ने के बारे में वे क्‍या सोचते हैं और चुनाव में अपराध एवं धन की भूमिका के बारे में उन्‍हें कितना पता है। 31 फीसदी लोगों की राय थी कि आपराधिक पृष्‍ठभूमि वाले प्रत्‍याशियों को वोट इसलिए दे दिए जाते हैं क्‍योंकि वो अन्‍यथा अच्‍छा काम करता है। यानी प्रत्‍याशी का बाकी कामकाज यदि ठीक है तो उसकी आपराधिक पृष्‍ठभूमि भी चलेगी।

इस मसले पर जब कुछ और गहराई से सवाल किए गए तो उनके जवाब भी सोचने पर मजबूर करने वाले निकले। 30 फीसदी लोगों ने कहा कि आपराधिक रिकार्ड वाले उम्‍मीदवार को वोट इसलिए मिल जाते हैं क्‍योंकि वे चुनाव में बहुत अधिक धन खर्च करता है। उधर 18 फीसदी लोग इस मत के भी थे कि जातिगत और धर्म आधारित सोच भी आपराधिक अतीत रखने वाले प्रत्‍याशियों को वोट देने का कारण बनती है।

भारतीय मतदाता चुनाव के मुद्दों, प्रत्‍याशियों की पृष्‍ठभूमि और मतदान के कारण आदि को लेकर कितना भ्रमित है, इस बात का पता सर्वे के इस निष्‍कर्ष से चलता है कि आपराधिक पृष्‍ठभूमि वाले उम्‍मीदवारों को लेकर इतनी अलग-अलग तरह की राय रखने के बावजूद 98 प्रतिशत मतदाताओं की सामान्‍य राय यह थी कि संसद या विधानसभा चुनाव में आपराधिक पृष्‍ठभूमि वाले प्रत्‍याशी नहीं होने चाहिए।

अब जब खुद मतदाता के स्‍तर पर ही सैद्धांतिक और व्‍यावहारिक सोच में इतना अंतर है तो फिर चुनाव और लोकतंत्र में शुचिता व नैतिकता की बात करने का क्‍या कोई अर्थ रह जाता है?

 

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