मध्यप्रदेश में इन दिनों दो मुद्दे बहुत गरमाए हुए हैं। अब एक तो वैसे ही मौसमी गरमी की मार पड़ रही है, ऊपर से इन दोनों मुद्दों ने राज्य सरकार को पसीने पसीने कर दिया है। ऐसा नहीं है कि नई नई आई मध्यप्रदेश सरकार पहले बहुत सुकून में थी। वह तो सत्ता में आने के बाद से ही कई तरह के तनावों से गुजर रही है। ऊपर से लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की करारी हार के बाद तनाव और दबाव का स्तर और ज्यादा बढ़ गया है।
मैं जिन दो मामलों का जिक्र कर रहा हूं उनमें से एक मामला सरकारी अफसरों के तबादलों का है, तो दूसरा प्रदेश में चल रहे बिजली संकट का। पहला मामला जहां शासन-प्रशासन यानी गवर्नेंस से जुड़ा है, तो दूसरा सीधे-सीधे जनता की रोजमर्रा जिंदगी से। बिजली वाला मामला तो इसलिए भी हैरान कर देने वाला है कि प्रदेश में बिजली के संकट जैसी कोई स्थिति नहीं है फिर भी उसकी आपूर्ति में ज्ञात/अज्ञात कारणों से, नियमित आने वाली बाधाओं ने सारा ठीकरा सरकार के सिर पर फूटने की स्थितियां पैदा कर दी हैं।
पिछले कुछ दिनों में प्रदेश में आई मीडिया रिपोर्ट्स कह रही हैं कि इस सरकार ने अपने गठन के बाद से अब तक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों के 60 से अधिक तबादला आदेश निकाले हैं जिनमें हजारों अधिकारियों व कर्मचारियों को इधर से उधर किया गया है। नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव के मुताबिक पिछले पांच महीनों में सरकार ने 500 आईएएस और आईपीएस अफसरों के तबादले किए हैं और यदि सभी सरकारी कर्मचारियों के तबादले मिला लिए जाएं तो यह संख्या 15 हजार बैठती है। भार्गव का आरोप है कि इस प्रक्रिया में जनता के अरबों रुपए बरबाद किए गए हैं।
इस मामले को यदि प्रतिपक्ष के आरोप के नजरिये से न भी देखें तो भी यह सवाल तो बनता ही है कि आखिर सरकार को इतनी जल्दी जल्दी तबादलों की जरूरत क्यों पड़ रही है। खासतौर से ऐसे मामले उस समय और पेचीदा व संदिग्ध हो रहे हैं जब एक ही अफसर को चंद दिनों के भीतर ही पहले हटाने, फिर पदस्थ करने और फिर हटाने जैसी घटनाएं हो रही हों। ये स्थितियां बताती हैं कि या तो सरकार स्वयं अस्थिर मानस से ऐसा कर रही है या फिर उस पर ऐसा करने का पार्टी के भीतर से ही कोई दबाव है।
निश्चित रूप से तबादले सरकार का विशेषाधिकार हैं। किस अफसर को कहां रखना है और किसे हटाना है, किससे क्या काम लेना है यह सर्वथा सरकार के निर्णय का विषय है। हर सरकार अपने हिसाब से प्रशासनिक जमावट करती आई है और इसमें कोई नई बात नहीं है। लेकिन जब इस प्रक्रिया में प्रशासनिक मानस की अस्थिरता दिखने लगे तो मामला गंभीर हो जाता है। यदि आप यूं ही प्रशासनिक व्यवस्था को हमेशा अस्थिर करते रहेंगे तो अफसरों से वांछित परिणाम कैसे लेंगे। आपको किसी न किसी पर तो भरोसा करना ही होगा।
नई गठित कांग्रेस सरकार को एक बात खास तौर से ध्यान में रखनी होगी कि वह 15 साल बाद राज्य की सत्ता में आई है। इन पंद्रह सालों में आईएएस और आईपीएस अफसरों की एक पूरी पीढ़ी सेवा में आकर जवान हो चुकी है। राज्य के सामान्य प्रशासन विभाग के अनुसार इस समय मध्यप्रदेश कैडर के आईएएस अफसरों की संख्या 369 है। और इनमें से 243 अफसर 2003 के बाद इस सेवा में आए हैं।
इस लिहाज से देखें तो प्रदेश की 65 फीसदी अफसरशाही ने कांग्रेस का कार्यकाल देखा ही नहीं है। उसे कांग्रेस सरकार के कामकाज की शैली का कोई अनुभव नहीं है। आमतौर पर कोई भी आईएएस पांच से सात साल में कलेक्टर हो जाता है। और यह गणित कहता है कि राज्य प्रशासनिक सेवा से आईएएस में चयनित हुए अफसरों को छोड़ दें तो ज्यादातर कलेक्टर और मैदानी अधिकारी वे हैं जो कांग्रेस सरकार के कामकाज के तौर तरीकों से अनजान हैं। उन्होंने अपने प्रशासनिक जीवन में भारतीय जनता पार्टी के साथ ही काम किया है और वे उसी रंग ढंग में काम करने के आदी हो गए हैं।
अब आप यदि यह सोचकर मैदानी अफसरों के तबादले कर रहे हैं कि वे आपकी राजनीतिक लाइन के हिसाब से काम करें तो आपको ऐसा कोई दुर्लभ ही अफसर मिलेगा जो पांच महीनों में आपकी कार्यशैली से वाकिफ भी हो गया हो और उसमें रच बस भी गया हो। इसलिए आपको अफसरों को इस नजरिये से देखना तो बंद करना होगा कि वे भाजपा के आदमी हैं। क्योंकि यदि कलेक्टर और जिला पंचायतों के सीईओ स्तर का ही मामला लें तो आपको उस वरिष्ठता में सीधे आईएएस में भरती होने वाला ऐसा कोई मिलेगा ही नहीं जिसे आपकी राजनीतिक तासीर पता हो।
अब आ जाइए 2003 से पहले वाले अफसरों की जमात पर। उनमें से ज्यादातर सचिव या उससे ऊपर के स्तर पर काम कर रहे हैं। केंद्र में डेपुटेशन पर गए 30 अफसरों को छोड़ दें तो बाकी बचे ऐसे वरिष्ठ 96 अफसरों ने भी लगातार पिछले 15 सालों तक एक ही राजनीतिक विचारधारा वाली सरकार के साथ काम किया है। इसमें नीति नियोजन से लेकर उस विचारधारा की गवर्नेंस शैली को क्रियान्वित करने तक का काम शामिल है।
आजकल एक दिक्कत और हो गई है कि राजनेताओं से ज्यादा राजनीतिक रंग अफसरों पर चढ़ने लगा है। और यह रंग भी परिस्थितियों को देखते हुए हलका और गहरा होता रहता है। कई अफसरों में तो राजनीतिक निष्ठाएं या आकांक्षाएं विकसित हो जाती हैं। ऐसे में जहां एक ओर उनका किसी दूसरी राजनीतिक विचारधारा वाली सरकार से पटरी बैठना उतनी जल्दी संभव नहीं होता, वहीं नई सरकार को भी उनसे काम लेने में परेशानी होती है। इसका एक प्रमुख कारण ऐसे अफसरों की घोषित राजनीतिक निष्ठा के कारण नए राजनीतिक आकाओं की नजर में उनका संदिग्ध हो जाना भी है।
जाहिर है लंबे समय बाद होने वाले राजनीतिक सत्ता परिवर्तन के साथ ये जटिलताएं नत्थी होती ही हैं। ऐसे में उपलब्ध नौकरशाही और मानव संसाधन से अपने अनुरूप काम लेने में बहुत अधिक कौशल और राजनीतिक प्रबंधन की दरकार होती है। बेहतर यही होता है कि आप ऐसी भीड़ में से अपने भरोसे लायक आदमी खोजने में समय जाया करने के बजाय अपनी कार्यशैली से उनमें अपने प्रति भरोसा पैदा करें। (जारी)