अभी हम तबादलों पर बात कर ही रहे हैं कि इस बीच खबर आई है कि राज्य में मंगलवार रात इस ‘सीजन’ की तबादला नीति जारी कर दी गई है। दरअसल इस नीति का कर्मचारियों से लेकर सत्ता के दलालों तक को बेसब्री से इंतजार रहता है। क्योंकि मध्यप्रदेश में तबादला प्रशासनिक प्रक्रिया कम, उद्योग ज्यादा है और सरकार चाहे कोई भी हो, देश में चाहे कितनी भी मंदी चल रही हो यह उद्योग कभी घाटे में नहीं जाता।
तबादला नीति का घोषित होना एक तरह से सूखाग्रस्त किसानों के लिए बांध का पानी छोड़ने जैसा है। जिस तरह किसान अपने सूखे खेतों के लिए बांध से पानी छोड़े जाने का इंतजार करता है उसी तरह तबादलों के दलाल इस पानी से अपने जेबें तर करने की बाट जोहते रहते हैं। कब बैन खुले और कब माल आए…
नई सरकार ने जो नीति घोषित की है मैं उसकी तफसील में नहीं जाना चाहूंगा, लेकिन एक अखबार की हेडलाइन है कि ’एक माह में 50 हजार कर्मचारियों-अधिकारियों के होंगे तबादले’ तबादले वैसे तो एक प्रशासनिक प्रक्रिया हैं लेकिन कई बार अनेक कर्मचारी जरूरतमंद भी होते हैं जिन्हें अन्यान्य कारणों से अपने इच्छित स्थान पर पदस्थापना चाहिए होती है। स्वेच्छा से मांगे गए तबादलों पर सरकार का वैसा कोई खर्च नहीं होता लेकिन प्रशासनिक व अन्य कारणों से होने वाले तबादलों पर भत्तों आदि के रूप में अच्छी खासी राशि खर्च होती है।
अब यदि इन 50 हजार में से आधे यानी 25 हजार लोग भी स्वेच्छा से तबादले वाले मान लिए जाएं तो भी बाकी 25 हजार पर सरकार को कुछ न कुछ खर्चा करना ही होगा। ऐसे में प्रति तबादला यदि न्यूनतम खर्च 10 हजार रुपए भी माना जाए तो इस हिसाब से 25 हजार अधिकारियों-कर्मचारियों को एक जगह से हटाकर दूसरी जगह भेजने के नाम पर ही सरकार 25 करोड़ रुपए खर्च करेगी।
याद रखिए, मैं बार बार यह बात कह रहा हूं कि किस अफसर या कर्मचारी से क्या काम लेना है और कहां काम लेना है यह सरकार का विशेषाधिकार है। लेकिन असली सवाल हमेशा अनुत्तरित ही रहता है कि क्या इस विशेषाधिकार को विवेकपूर्ण, तार्किक और विशुद्ध रूप से प्रशासनिक आवश्यकता के तहत इस्तेमाल किया जा रहा है या फिर राजनीतिक एवं आर्थिक कारणों से। सरकार चाहे भाजपा की रही हो या कांग्रेस की, तबादले हमेशा से आर्थिक लेनदेन के आरोपों के चलते विवाद में रहे हैं।
और आपको तबादले क्यों करने हैं? जिन्हें व्यक्तिगत कारणों/सुविधाओं के कारण इच्छित जगह पर पदस्थापना चाहिए उनकी बात छोड़ दीजिए लेकिन बाकी लोगों को तो आप प्रशासनिक कारणों से ही हटाते या बिठाते होंगे ना? इस बात का खुलासा कभी नहीं होता कि वे कथित प्रशासनिक कारण क्या रहे? चलो यह भी मान लें कि किसी अफसर या कर्मचारी को नाकारा होने या उसके खिलाफ शिकायतें आने पर किसी खास जगह से हटाया गया तो इस बात की क्या गारंटी है कि वह नई जगह जाकर लहरें नहीं गिनने लगेगा।
और यदि हटाए जाने का कारण विपरीत राजनीतिक विचारधारा से संबद्धता या उसके प्रति निष्ठा है तब तो यह बात और पक्की है कि नई जगह जाकर भी उसकी वे प्रतिबद्धताएं या निष्ठाएं कतई नहीं बदलने वाली। ऐसे में तबादलों का फायदा क्या हुआ? हासिल क्या निकला? सिर्फ सरकारी खजाने को नुकसान या फिर सत्ता अथवा राजनीति का यह संतोष कि देखो वो उनका आदमी था और हमने उसे खूंटे से लगा दिया।
किसी राजनीतिक विचारधारा के प्रति या किसी दल के प्रति झुकाव रखना कोई अपराध नहीं है। यह प्रत्येक व्यक्ति का एक तरह से अधिकार है कि वह किस विचार को माने और किसको नहीं। लेकिन इसके बावजूद सरकारी अमले को इस बात की छूट या आजादी नहीं है कि वह अपने इस व्यक्तिगत झुकाव को अपने कामकाज में परिलक्षित होने दे। सरकारी कर्मचारी का काम राजनीतिक होकर व्यवहार करना नहीं बल्कि अराजनीतिक होकर कानून कायदों के अनुसार काम करना है।
लेकिन क्या करें, सरकारें खुद चाहती हैं कि कर्मचारी उनकी राजनीतिक विचारधारा में रंगकर काम करें, उसके लिए काम करें… जब सत्ता के स्तर पर ऐसा दुराग्रह होता है तो फिर सरकारी कर्मचारी और राजनीतिक पार्टी के कार्यकर्ता में कोई फर्क नहीं रह जाता। और जब लंबे समय तक, जैसेकि मध्यप्रदेश के मामले में यह अवधि 15 साल की है, कोई अमला किसी एक ही विचार की सरकार के अधीन काम कर चुका हो, तो उसके मानस को बदलना और मुश्किल काम है।
ऐसी परिस्थितियों से निपटने के लिए सरकारें तबादलों को हथियार बनाती है जो मेरे हिसाब से समाधान के बजाय समस्या को और जटिल ही बनाते हैं। इसलिए मैंने भरोसे वाली बात कही। जैसे बिजली संकट का ही उदाहरण ले लीजिए। जब से यह मामला सुर्खियों में आया है सरकार का रुख देखकर ऐसा लगता है कि प्रशासनिक तरीके से हल निकालने के बजाय मानो वह बिजली विभाग के लोगों को प्रतिपक्ष का आदमी मानकर चल रही है। और यह मैं नहीं कह रहा- इसी कॉलम में मैंने 26 अप्रैल को इस विषय पर किसी और संदर्भ में लिखा था जिसका शीर्षक था- मध्यप्रदेश में ‘पिट्ठू कलेक्टर’ और ‘तार काटने की साजिश’
वह मामला राज्य के दो शीर्ष नेताओं, एक पूर्व और एक वर्तमान मुख्यमंत्री से जुड़ा था। चुनाव प्रचार के दौरान अपना हेलीकॉप्टर हटवा लिए जाने से नाराज पूर्व मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने छिंदवाड़ा कलेक्टर से कहा था-‘’ए पिट्ठू कलेक्टर सुन ले रे… हमारे भी दिन आएंगे, तब तेरा क्या होगा?’’ दूसरी तरफ मुख्यमंत्री कमलनाथ ने बिजली कटौती के मामले में विभाग के कुछ लोगों पर कार्रवाई का हवाला देते हुए कहा था- ‘’कुछ लोग बिजली के तार काटकर, बनावटी बिजली संकट पैदा करने की साजिश कर रहे हैं ताकि राज्य सरकार को बदनाम किया जा सके।‘’
ये दोनों ही स्थितियां ठीक नहीं हैं। न तो राजनीतिक नेतृत्व को प्रशासनिक अमले का मनोबल गिराना चाहिए और न ही सरकारी अमले को राजनीतिक होकर काम करना चाहिए। याद रखें सरकारी अमले की प्राथमिक जिम्मेदारी जनता के प्रति है न कि किसी नेता या राजनीतिक विचारधारा के प्रति। यदि उनके स्तर पर ऐसा हो रहा है तो यह अपनी रोजी के साथ विश्वासघात है। दूसरी तरफ सरकार को भी ध्यान रखना होगा कि वह अपने ही मातहत कर्मचारियों को साजिशकर्ता बताकर उनसे इच्छित काम और परिणाम नहीं ले सकती। सजा से ज्यादा प्रभावी सजा का डर होता है, एक बार सजा का डर खत्म हो जाए तो फिर आप ‘अपराधी’ को रोक नहीं सकते। और सजा यदि देनी ही है तो उसका तरीका ऐसा ढूंढिए जो गलत काम करने वालों के लिए सबक बने…