देश इस समय झुलस रहा है। आप पूछ सकते हैं इस समय ही क्यों, देश तो जाने कितने सालों से झुलस रहा है। आप तो यह देखिए कि इसे झुलसाने वाले कारण क्या है? क्योंकि कई बार यह गरमी सामाजिक-आर्थिक कारणों से पैदा होती है तो कई बार राजनीतिक कारणों से। लेकिन ऐसी गरमियां नियमति नहीं होतीं, उनके पैदा होने के कारण भी अलग अलग होते हैं। जैसे देश में चुनाव हों तो उसकी भी एक अलग गरमी होती है।
और इन सबसे अलग है मौसम की गरमी, जो नियमित रूप से हर साल आती ही है। सामाजिक गरमी को जहां जाति से वर्ण से फर्क पड़ता है, वहीं आर्थिक गरमी को महंगाई और बेरोजगारी आदि से। राजनीतिक गरमी को, सत्ता के लिए टकहराहट से उड़ने वाली चिंगारियां प्रभावित करती हैं। लेकिन मौसम की गरमी को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि चुनाव किसने जीता या कौन विपक्ष का नेता बना।
इन दिनों जब टीवी चैनलों के पास अन्यान्य कारणों से, जिनमें कई राजनीतिक दलों द्वारा टीवी पैनल की बहसों का बहिष्कार भी शामिल है, चर्चा का कोई मुद्दा/मसाला नहीं है, तो वहां मौसम की गरमी काम आ रही है। आप कह सकते हैं कि टीवी वालों पर इन दिनों वास्तविक गरमी चढ़ी हुई है। यह बात अलग है कि चुनावी गरमी में उनका पारा चढ़ा रहता था और अब गरमी का पारा चढ़ा हुआ है।
देश के करीब करीब सभी भागों से गरमी के रिकार्ड टूटने की खबरें आ रही हैं। अतिशय मौसम के लिए जाने जाने वाले राजस्थान के चुरू जैसे जिले में तो गरमी 51 डिग्री का आंकड़ा छूने को लपक रही है। कई शहरों में तापमान पचास डिग्री तक जा पहुंचा है। 45 और 50 डिग्री का ताप सहने वाले शहरों की संख्या भी दर्जनों में है। टीवी स्क्रीन पर विभिन्न शहरों की तापमान तालिका देखकर, वे शहर खुद को ठंडा मान रहे हैं जहां तापमान 40 डिग्री से आगे नहीं बढ़ा है।
25 साल से ऊपर की पीढ़ी वाले इस बात को मानेंगे कि वे अपने जीते जी ही मौसम में बदलाव की चेतावनियों को खरा उतरता देख रहे हैं। ये खबरें पिछले डेढ़ दो दशक से काफी सुर्खियों में रही हैं कि धरती का तापमान बढ़ रहा है। ग्लोबल वार्मिंग शब्द अब नई पीढ़ी के लिए नया नहीं रहा है। मौसम विज्ञानी डेढ़ दो दशक पहले ये चेतावनियां दिया करते थे कि पर्यावरण के साथ खिलवाड़ के चलते जो परिस्थितियां पैदा हो रही हैं उनके कारण शहरों का तापमान 45 से 50 डिग्री तक पहुंच सकता है और उनकी यह बात आज सच साबित हो रही है।
हालांकि मौसम में यह बदलाव कोई अनोखा नहीं है। मैंने नोट किया है कि चाहे ठंड हो, गरमी हो या बारिश। अब हर साल ऐसी खबरें आने लगी हैं जो कहती हैं कि फलां शहर में इतने सालों का रिकार्ड टूट गया। यह रिकार्ड पचास साल से लेकर एक-डेढ़ सदी तक का भी हो सकता है। अभी खबर आई थी कि अपने मध्यप्रदेश के जबलपुर में गरमी ने एक सदी पुराना रिकार्ड तोड़ दिया।
रिकार्ड तोड़ने वाली ये खबरें मुझे इस बात पर भी सोचने को मजबूर करती हैं कि आज जिस ग्लोबल वार्मिंग या पर्यावरण के विनाश को हम मौसम के बिगड़ने का कारण मान रहे हैं क्या वास्तविक कारण वही है या फिर कई और फैक्टर भी हैं जो ब्रह्मांड की इस जीवित गोलाई के मौसम को प्रभावित कर रहे हैं।
जैसे हम कहते हैं कि पेड़ कटने और हरियाली खत्म होने के साथ-साथ कार्बन उत्सर्जन के कारण धरती का तापमान बढ़ा है, लेकिन जब उसके साथ ही यह खबर आती है कि इस तापमान ने सौ या डेढ़ सौ साल पुराना रिकार्ड तोड़ दिया है, तो विचार आता है कि उस समय तो प्रकृति का, पर्यावरण का इतना विनाश नहीं हुआ था, उस समय तो कार्बन उत्सर्जन की स्थिति इतनी अधिक नहीं थी फिर भी 50 डिग्री तक तापमान क्यों पहुंचा होगा?
यानी इन डेढ़-दो सौ सालों की अवधि में, जिसका रिकार्ड हमारे पास मौजूद है, कुछ तो ऐसा हुआ है जो हम पकड़ नहीं पा रहे हैं। और शायद वह गुम होती या हाथ से फिसलती कड़ी है मौसम के मिजाज की परवाह। हमने इन सालों में मौसम के मिजाज की परवाह करने के बजाय उससे खुद को बचाने के कृत्रिम संसाधन विकसित करने पर ज्यादा जोर दिया है। और नतीजे में हम मौसम से दोस्ताना व्यवहार करने के बजाय दुश्मनी निभाने लगे हैं। मौसम की ‘मार’ से निपटने के लिए हमने जो संसाधन विकसित किए उन्होंने मौसम को और ज्यादा घायल और ज्यादा क्षत-विक्षत किया।
जैसे गरमी की ही बात लें। अब चूंकि हमारे पास बिजली है इसलिए हम पंखे का, कूलर का या एसी का इस्तेमाल करने लगे हैं। लेकिन जब बिजली नहीं थी या इतनी सहजता से उपलब्ध नहीं थी, तब भी तो गरमी पड़ती ही थी और तब भी तो हम उसे सहन करते ही थे। मुझे याद है हमारे घर में 50 साल पहले बिजली का एक पंखा होता था। अर्धगोलाई वाले लोहे के पाइप जैसे स्टैंण्ड पर कसे हुए उस पंखे को आप जरूरत के मुताबिक ऊपर नीचे कर सकते थे। आमतौर पर घरों में लौकी जैसे रंग से पुता यह पंखा दिख जाता था। लेकिन इसका ज्यादातर इस्तेमाल तभी होता था जब घर में कोई मेहमान आता।
घरों में बाकी समय गरमी दूर करने के लिए खजूर के पत्तों की चटाईनुमा बनावट वाले हाथ के पंखे ही काम आया करते थे। मालवा में इन्हें खोड़े के पंखे कहते हैं। ये आज भी मिल जाते हैं। पढ़ते समय पसीने से तरबतर हो जाने पर हम लोग एक ‘पंखा ब्रेक’ लेते और पंखे के हैंडिल को तेजी से घुमाकर पसीना सुखाते और फिर पढ़ने बैठ जाते।
मैं यह तो नहीं कहता कि गरमी बढ़ नहीं रही है या कि ग्लोबल वार्मिंग जैसी कोई चीज नहीं है… वरना लोग मुझे मारने दौड़ेंगे, लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि हम मौसम को झेलने का इंसानी माद्दा भी खोते जा रहे हैं। शायद इसलिए भी हमें गरमी या ठंड ज्यादा महसूस होने लगी है। वरना सबके साथ नहीं तो भी, कइयों के साथ हसरत मोहानी की लिखी इन लाइनों जैसी यादें जुड़ी होंगी-
दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिए / वो तेरा कोठे पे नंगे पांव आना याद है…
नोट- इसमें ‘मेरे’ की जगह ‘तेरे’ और ‘तेरा’ की जगह ‘मेरा’ का विकल्प आप अपने अनुभव से चुन सकते हैं।