हादसे के आंसू इतनी जल्‍दी कैसे सूख जाते हैं?

13 सितंबर को अनंत चतुर्दशी के दिन भोपाल के खटलापुरा घाट पर गणेश विसर्जन के दौरान एक बड़ी मूर्ति को विसर्जित करते समय नाव पलट जाने से हुई दुर्घटना में 11 लोगों की जान चली गई थी। उस घटना के बाद काफी हायतौबा मची थी और चारों तरफ से संवेदनाओं की झड़ी लग गई थी। सरकार से लेकर प्रशासन तक ने ऐसी घटना दुबारा न हो, इसके लिए सख्‍त उपाय करने को लेकर बड़े-बड़े बयान दिए थे। लेकिन ऐसा लगता है कि हादसा कितना ही बड़ा हो, हमारी आंखों में संवेदना और सबक के आंसू बहुत जल्‍दी सूख जाते हैं।

खटलापुरा घाट की घटना को लेकर मैंने इसी कॉलम में लिखा था- ‘’सरकार, प्रशासन और समाज को सचमुच यदि ऐसे हादसे रोकना हैं तो 15 दिन बाद फिर से एक अवसर उनके पास आने वाला है। हो हिम्मत तो करके दिखाइए कि दुर्गोत्‍सव के दौरान दुर्गा की कोई भी प्रतिमा चार फीट ऊंची और 50 किलो से ज्यादा वजनी नहीं होगी। (यह आकार और वजन और भी कम हो सकता है) मिट्टी की प्रतिमा के अलावा कोई भी प्रतिमा स्थापित करने की अनुमति नहीं होगी, ऐसी सारी प्रतिमाएं जब्‍त कर ली जाएंगी। प्रतिमा विसर्जन सिर्फ दिन में ही होगा। प्रतिमा लाते समय और विसर्जन के लिए ले जाते समय कोई डीजे नहीं बजेगा। प्रतिमा स्थापना स्थलों के लिए सड़कों और सार्वजनिक स्थलों का अतिक्रमण नहीं होगा, वहां बजने वाला गीत संगीत निर्धारित डेसीबल सीमा से अधिक नहीं होगा…।‘’

पर ये सारे सुझाव देने के साथ साथ मैंने एक और बात कही थी कि- ‘’इनमें से कोई बात ऐसी नहीं है जो नामुमकिन हो, लेकिन मुझे पता है, ऐसा कुछ नहीं होने वाला। और जब आप हादसे को रोकने के उपाय करना ही नहीं चाहते तो खुद ही सोचिए कि क्या हादसे के बाद उस पर आंसू बहाने का हक भी है आपको?’’

खटलापुरा घटना को अभी सिर्फ पांच दिन बीते हैं और प्रतिमा विसर्जन की प्रक्रिया के दौरान हादसे हो सकने की गुंजाइश फिर बना दी गई है। घटना के बाद विशालकाय प्रतिमाओं पर रोक को लेकर सख्‍त बयान देने वाला प्रशासन एक बार फिर दबाव में आकर सुरक्षा से समझौता करने पर मजबूर हो गया है। राजनीतिक दबाव और मूर्तिकारों के विरोध के चलते दुर्गा प्रतिमाओं के आकार प्रकार को छोटा करने वाली बात को अगले साल तक के लिए टाल दिया गया है। यानी विशाल प्रतिमाओं के विसर्जन के दौरान बना रहने वाला खतरा इस साल भी बरकरार रहेगा।

खबरें आई हैं कि शहर में डेढ़ हजार से अधिक दुर्गा प्रतिमाएं बन रही हैं और इनमें 11 से 17 फीट तक की ऊंचाई वाली प्रतिमाओं की संख्‍या 500 से ज्‍यादा है। मूर्तिकार संघ के हवाले से बताया गया है कि कुल प्रतिमाओं में से 5 से 10 फीट तक की प्रतिमाओं की संख्‍या लगभग 1000 है। जबकि 11 से 13 फीट तक की 300 से अधिक और 14 से 17 फीट तक की ऊंचाई वाली 200 से अधिक प्रतिमाएं हैं। इन सभी के निर्माण का काम 70 फीसदी तक हो चुका है। कई दुर्गा उत्‍सव समितियां कलाकारों के पास अपने ऑर्डर बुक करा चुकी हैं।

जैसाकि हमेशा होता है, जैसे ही खटलापुरा दुर्घटना के बाद यह बात उठी कि बड़ी प्रतिमाओं के निर्माण पर पाबंदी होनी चाहिए, राजनीति शुरू हो गई। परंपरागत लाइन पर बयान आए कि प्रशासन ‘हिंदू धर्म’ की परंपराओं को बदलने की कोशिश कर रहा है। धर्म के नाम पर वोटों की ठेकेदारी करने वाले कुछ लोगों ने राजनीतिक मोर्चा संभाला तो कुछ लोगों ने इसके लिए मूर्तिकारों को होने वाले आर्थिक नुकसान को ढाल बना लिया। उनका कहना है कि मूर्तिकार मूर्ति निर्माण का काम आधे से ज्‍यादा कर चुके हैं ऐसे में उन्‍हें नुकसान उठाना पड़ेगा। और उधर खटलापुरा हादसे के बाद सक्रिय हुआ प्रशासन, जिस पर कायदे से पहले ही विशालकाय मूर्तियों और प्‍लास्‍टर ऑफ पेरिस से बनी मूर्तियों के निर्माण को रोकने की जिम्‍मेदारी थी, फिर दबाव के सामने झुक गया।

मैं अखबारों में ढूंढ रहा था उन नामों को जो खटलापुरा दुर्घटना के बाद राजनीतिक आंसू बहाते और पीडि़त परिवारों को लाखों लाख मुआवजा देने की मांग के साथ, हादसे के लिए प्रशासनिक लापरवाही को जिम्‍मेदार ठहराते हुए मीडिया को बाइट पर बाइट दिए जा रहे थे। मैं उम्‍मीद कर रहा था कि कोई तो आगे आएगा यह कहते हुए कि, भले ही मूर्तियां बन गई हों, भले ही उत्‍सव समितियों ने कितना ही इंतजाम कर लिया हो, लेकिन नहीं का मतलब है नहीं। हम सब मिलकर मूर्तिकारों और दुर्गा उत्‍सव समितियों को मनाएंगे और मूर्तियों के आकार प्रकार को लेकर किया जाने वाला फैसला इसी साल से लागू करवाएंगे।

पर ऐसे लोग कहीं नजर नहीं आए। खटलापुरा निपट जाने या उसे निपटाए जाने के बाद वे सारे लोग अगले ‘टारगेट’ की तरफ निकल लिए। क्‍योंकि उनका काम सिर्फ राजनीति करना है, सही मायनों में जनता की फिक्र करना या हादसों का सबब बनने वाले कारणों को दूर करना नहीं। गणेशोत्‍सव बीत चुका है अब वह अगले साल ही आएगा। लेकिन दुर्गोत्‍सव आने वाला है। दुकान वहां भी तो चलानी है ना। तो तय मानिए, फिर से एक बार सड़कों पर अतिक्रमण होगा, डीजे का कानफोड़ू शोर होगा, विशालकाय मूर्तियां स्‍थापना के लिए लाईं और विसर्जन के लिए ले जाई जाएंगी, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।

कहने को प्रशासन ने कहा है कि बड़ी मूर्तियों को क्रेन से ही विसर्जित किया जाएगा। नावों के द्वारा कोई मूर्ति विसर्जन स्‍थलों पर पानी में नहीं ले जाई जाएगी। लेकिन जब एक बार नियम टूटता है तो फिर वह टूटता ही चला जाता है, एक बार पकड़ ढीली हुई तो फिर वह और ढीली होती ही जाती है। और मामला सिर्फ पानी में प्रतिमा विसर्जन का ही नहीं है। विशालकाय प्रतिमाओं को लाने ले जाने के दौरान सड़कों पर बरती जाने वाली असावधानी का भी है। मैंने देखा है, ये मूर्तियां बिजली के तारों से भी ऊंची होती हैं और उन्‍हें निकालने के लिए युवा और बच्‍चे हाथों में बांस लेकर चलते हैं। तारों को ऊंचा करने के लिए छोटे बच्‍चों को मूर्ति के पीछे बने आधार ढांचे पर चढ़ा दिया जाता है। हादसे वहां भी हो सकते हैं, लेकिन उस ओर किसी का ध्‍यान नहीं जाता।

ऐसा लगता है कि हमने अपने समाज को गढ़ा ही ऐसा है कि उसमें हादसों की गुंजाइश हमेशा बनी रहे। हादसे नहीं होंगे तो उन पर राजनीति कैसे संभव होगी। आंसुओं का क्‍या है, वे तो जैसे आते हैं, वैसे सूख भी जाते हैं…

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