देश और प्रदेश में इन दिनों दो मुद्दे बहुत चर्चित हैं। इनमें से एक का संबंध व्यक्ति की सेहत से है तो दूसरे का लोकतंत्र की सेहत से। पहला मामला राज्य में खाद्य पदार्थों खासतौर से दूध और उसके उत्पादों में की जाने वाली मिलावट का है और दूसरा मामला देश में सूचना के अधिकार कानून को बदले जाने का। ये दोनों ही मामले ऐसे हैं जो व्यक्ति और समाज के रूप में हमारे जीने के अधिकार को प्रभावित करते हैं।
खाद्य पदार्थों खासतौर से दूध जैसी अत्यावश्यक वस्तु में मिलावट कोई नई बात नहीं है। इस मिलावट की शुरुआत सदियों पहले उसमें पानी मिलाने से हुई थी, लेकिन जैसे-जैसे इंसान की बुद्धि में कारोबारी मिलावट बढ़ती गई, दूध में भी मिलावट के नए-नए तरीके ईजाद होते गए। और अब तो बात आगे, बहुत आगे, नकली दूध तक पहुंच चुकी है।
मध्यप्रदेश के कई इलाके इस तरह का दूध और दूध से बनने वाले खोया, पनीर, घी आदि के लिए कुख्यात हो चले हैं। इनमें भी चंबल का इलाका कुछ ज्यादा ही सक्रिय है। बताया जाता है कि न सिर्फ प्रदेश बल्कि देश की राजधानी दिल्ली सहित कई राज्यों में ये नकली पदार्थ यहां से भारी मात्रा में धड़ल्ले से सप्लाय किए जा रहे हैं। करोड़ों रुपए के इस काले कारोबार ने बहुत ही संगठित आर्थिक और आपराधिक गिरोह का रूप ले लिया है।
मामला सिर्फ मिलावट का ही नहीं है। खतरनाक बात यह है कि नकली दूध और उसके उत्पाद बनाने में घातक रसायनों का इस्तेमाल हो रहा है और इसके सेवन से लोगों को क्या-क्या बीमारियां हो रही हैं, उनकी सेहत किस हद तक प्रभावित हो रही है, इसका कोई आधिकारिक अध्ययन या आंकड़ा हमारे पास उपलब्ध नहीं है। जो कुछ है बस अनुमान ही है।
ऐसे मामलों से निपटने के लिए हालांकि खाद्य और औषधि नियंत्रक जैसी संस्थाएं हैं, पर वे भी या तो आमतौर पर निष्क्रिय बनी रहती हैं या फिर उन्होंने भी नकली घी-दूध की चिकनाई अपने हाथों और चेहरे पर चुपड़ ली है। पिछले कुछ दिनों से प्रदेश में ऐसे नकली दुग्ध पदार्थों की जब्ती व धरपकड़ का अभियान चल रहा है। इस दौरान कई चौंकाने वाली जानकारियां सामने आई हैं।
खबरें कहती हैं कि अव्वल तो इस तरह की जांचें और धरपकड़ नियमित तौर पर नहीं, रस्मी तौर पर की जाती हैं। दूसरे, यदि ऐसा कोई माल पकड़ भी लिया जाए तो उसकी जांच के लिए समुचित प्रयोगशालाएं ही नहीं हैं। जो प्रयोगशालाएं हैं उनमें भी मानव संसाधन और आवश्यक उपकरणों एवं रसायनों की कमी के चलते नकली पदार्थों के सैम्पल कई बार महीनों तक पड़े रहते हैं और इतने समय बाद यदि उनकी जांच हो भी जाती है तो उसका कोई मतलब नहीं निकलता।
हमेशा यह देखा गया है कि इस तरह के अभियान जब भी चलते हैं वे किसी खास मकसद से चलाए जाते हैं। और यह ‘खास मकसद’ क्या होता है, किसी से छिपा नहीं। कोई भी बड़ा वार-त्योहार होने पर खाद्य विभाग सक्रिय हो जाता है। खासतौर पर आपने देखा होगा कि दिवाली के आसपास ऐसे छापे बड़ी संख्या में डाले जाते हैं और सैकड़ों क्विंटल घटिया अथवा मिलावटी सामान बरामद करने की खबरें आती हैं। पर दिवाली बीत जाने के बाद, पता ही नहीं चलता कि उन मामलों में आगे क्या हुआ। सारी चीजें सेट हो जाती हैं और बदस्तूर वैसी ही फिर चलने लगती हैं।
इसलिए जरूरी है कि ऐसे अभियान न सिर्फ नियमित तौर पर चलें, बल्कि उनके दोषियों को कड़ी सजा भी मिले। जिन दुकानों और उत्पादकों के यहां से ऐसा माल पकड़ा जाता है उनके बारे में व्यापक प्रचार प्रसार किया जाए ताकि लोग उनके सामान लेने से बचें। कानून इस मामले में उतना कारगर नहीं हो सकता जितना ऐसे अपराधियों को होने वाला आर्थिक नुकसान कारगर हो सकता है। यदि ऐसे लोगों को बेनकाब करते हुए उनकी आर्थिक रीढ को तोड़ने का काम किया जाए तो संभव है मिलावट के इस दुष्चक्र पर कुछ लगाम लग सके।
दूसरा मामला सूचना के अधिकार का है। केंद्र सरकार ने हाल ही में सूचना के अधिकार कानून में कुछ बुनियादी संशोधन किए हैं जिन्हें संसद की मंजूरी भी मिल गई है। इन संशोधनों में सबसे महत्वपूर्ण संशोधन सूचना आयुक्तों और मुख्य आयुक्तों के वेतन, सेवाशर्तों और कार्यकाल में बदलाव के साथ-साथ राज्य व केंद्र स्तर पर उनकी नियुक्ति का अधिकार केंद्र सरकार को दिया जाना है।
अब तक इस तरह की नियुक्तियां केंद्र में प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष अथवा लोकसभा में सबसे बड़े दल के एक प्रतिनिधि और प्रधानमंत्री द्वारा नामजद केंद्रीय मंत्रिमंडल के एक सदस्य की तीन सदस्यीय समिति किया करती थी। राज्यों में यह काम मुख्यमंत्री, नेता प्रतिपक्ष अथवा विधानसभा में सबसे बड़े दल के एक प्रतिनिधि और मुख्यमंत्री द्वारा नामजद राज्य मंत्रिमंडल के एक सदस्य की समिति करती थी।
संसद ने हालांकि इन संशोधनों को पास कर दिया है, लेकिन बदलाव का विरोध करने वाले समूहों का कहना है कि इससे सूचना के अधिकार कानून की मूल भावना प्रभावित होगी और सूचना अधिकार तंत्र पर सरकार का नियंत्रण हो जाएगा। आशंका इस बात की भी है कि नियुक्ति, वेतन और कार्यकाल में भी राजनैतिक पक्षपात हावी होगा। राजनीतिक तंत्र के हावी होने से स्वाभाविक रूप से सूचना का प्रवाह भी बाधित होगा।
आप पूछ सकते हैं कि मैंने क्या सोचकर खाद्य पदार्थों और सूचना के अधिकार मामले को आपस में जोड़ा? तो चाहे खाद्य पदार्थों का मामला हो या सूचना के अधिकार का, मुख्य बात यह है कि दोनों की आपूर्ति व्यक्ति अथवा समाज को बिना मिलावट के होनी चाहिए। मिलावटी खाद्य सामग्री जहां हमारे शरीर को नष्ट करती है, वहीं मिलावटी सूचनाएं समाज और लोकतंत्र को। हम कैसा भी प्रशासनिक या कानूनी ढांचा तैयार करें, हमारा मूल मकसद शुद्ध और प्रामाणिक सामग्री की आपूर्ति होना चाहिए।
सूचना का अधिकार जैसे कानून और उससे जुड़े तंत्र में बदलाव से भी ज्यादा ध्यान इस बात पर दिया जाना चाहिए कि जो सूचनाएं दी जा रही हैं वे शुद्ध और प्रामाणिक भी हैं या नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि जिस तरह सिंथेटिक दूध, मावा और पनीर बाजार में आ रहा है, उसी तरह सरकारी तंत्र भी सिंथेटिक सूचनाएं दे रहा हो। खाद्य पदार्थों के मामले में तो नाम के लिए ही सही, मिलावट जांचने की प्रयोगशालाएं हैं, लेकिन सूचनाओं की शुद्धता और प्रामाणिकता जांचने के लिए तो ऐसी कोई प्रयोगशाला भी नहीं है…