विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष
गिरीश उपाध्याय
यूं तो विश्व पर्यावरण दिवस हम 47 साल से मनाते आ रहे हैं और इन सालों में हमने इस मुद्दे को लेकर उतार चढ़ाव वाली न जाने कितनी बहसें देखी हैं और न जाने कितने प्रस्ताव और समझौते रचे हैं। लेकिन असलियत में विश्व का पर्यावरण लगातार दूषित होता जा रहा है और उसकी ताजी बानगी हमें वर्तमान कोरोना काल में देखने को मिल रही है। इस महामारी ने लाखों लोगों की जान लेने के सिवा पर्यावरण के बारे में हमारी चेतना और हमारे पाखंड दोनों की ही पोल खोलकर रख दी है।
अव्वल तो कोरोना के ताजा वायरस को ही प्रकृति के नियमों और संतुलन से छेड़छाड़ का परिणाम माना जा रहा है। पर कारण चाहे जो भी रहा हो लेकिन इस वायरस ने यह साबित कर दिया है कि विज्ञान और तकनीकी की तमाम उपलब्धियों के बावजूद एक नन्हा सा वायरस पूरी मानव जाति के जीवन में तबाही मचा सकता है। उसे लाचार महसूस करवा सकता है। अपनी तरक्की पर छाती फुलाने वाले इंसान को घर में तालाबंद होकर बैठने पर मजबूर कर सकता है।
लेकिन इस कालखंड का दूसरा पक्ष और भी ज्यादा डराने वाला है। वह हमारे पाखंड और ठोकर से कोई सबक न सीखने की हठधर्मिता को उजागर करने वाला है। पिछले करीब डेढ़ साल में कोरोना महामारी के चलते ही हमने पर्यावरण के दो रूप अपनी आंखों के सामने घटित होते देखें हैं और इन दोनों ही रूपों में हमारी कथनी और करनी में उतना ही अंतर नजर आता है जितना जमीन और आसमान में।
आपको याद होगा जब कोरोना का पहला दौर आया था तो उसके बाद लागू हुए लॉकडाउन के कुछ दिन बीत जाने के बाद से ही ये खबरें आने लगी थीं कि पर्यावरण प्रदूषण की मार झेलते कई शहरों की हवा साफ हो चली है, नदियों का पानी अब निर्मल नजर आ रहा है, कई ऐसे पक्षी नजर आने लगे हैं जो लुप्त मान लिये गए थे। वीरानी के उस माहौल में जंगली जानवरों के शहरों तक आ जाने की तसवीरें भी छपी थीं। यानी कोरोना का पहला दौर यदि मानवता पर बहुत बड़ा संकट था तो वह प्रकृति और पर्यावरण को बचाने के उपाय का एक संदेश भी था कि यदि हम आधुनिकता और विकास के नाम पर की जाने वाली गतिविधियों को संतुलित और संयमित रखें, कथित विकास की अंधी दौड़ से बचें तो पर्यावरण को बचा सकते हैं, उसे शुद्ध रख सकते हैं।
लेकिन जैसे ही पहले दौर का लॉकडाउन खत्म हुआ, जिंदगी अपने ढर्रे पर लौटी तो हमने वही लापरवाहियां कीं जिनके लिए हमें मना किया गया था। और नतीजा क्या हुआ… प्रकृति अपने प्रचंड स्वरूप में फिर लौटी और उसने दिखा दिया कि उसके नियमों से खिलवाड़ करने का नतीजा क्या होता है। पर शायद हमने इतनी सारी मौतों के बाद भी कोई सबक नहीं लिया। विडंबना देखिये कि जो गंगा और जो यमुना कोराना काल के पहले चरण में साफ और निर्मल बताई जा रही थीं, जिनके पानी की पारदर्शिता इतनी हो चली थी कि उनमें मछलियां तक दिखाई देने लगी थीं, वे ही गंगा और यमुना और हमारी अन्य नदियां कोरोना की दूसरी लहर के बाद लाशों से पटी नजर आईं। इस बार वहां मछलियों की नहीं लाशों के तैरने की खबरें थीं।
कारण जो भी रहा हो लेकिन डेढ़ साल के अंतराल में प्रकृति और पर्यावरण को लेकर होने वाले हमारे अपने ही अच्छे अनुभवों से हमने कुछ नहीं सीखा। वजहें कई गिनाई जा सकती हैं लेकिन इस बात से कैसे इनकार किया जा सकता है कि सबसे बड़ी वजह यही है कि हम आज भी प्रकृति को, उसके अंगों जैसे नदी, पहाड़, जंगल आदि को या तो दोहन और शोषण की नजर से देखते हैं या फिर एक कचराघर की तरह। यदि हमें अपनी प्रकृति की, पर्यावरण की, हमारी नदियों की जरा सी भी फिक्र होती तो हम कम से कम लाशों को इस तरह नदियों में तो नहीं बहाते।
कोरोना की दूसरी लहर ने एक और भयानक संकेत हमें दे दिया है। इस दौर में जिस तरह लोग ऑक्सीजन की कमी से तड़प तड़प कर मरे हैं और मानवता के शरीर पर उसने जितने घाव दिए हैं उनका भरना मुश्किल है। इस दौर में कृत्रिम ऑक्सीजन के लिए लोगों को जिस तरह दर दर भटकना पड़ा जिस तरह सांसों पर संकट आया उसने बीमारी के साथ साथ यह चेतावनी भी दी है कि यह स्थिति तो कोरोना के कारण बनी थी। कल्पना कीजिये कि प्रकृति से होने वाली छेड़छाड़ और पर्यावरण के विनाश के कारण एक दिन ऐसा आए कि सामान्य स्थितियों में भी हवा में प्राणवायु न बचे या हवा ही सांस लेने लायक न रहे तो क्या होगा… और यदि ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन दूर भी नहीं है।
दुर्भाग्य ये है कि सबकुछ देखने, सुनने और भुगतने के बाद भी हम सबक लेने को तैयार नहीं हैं। इसी कोरोना काल में मध्यप्रदेश से आई एक खबर ने बहुत बड़े खतरे की तरफ इशारा किया है। खबर ये है कि बुंदेलखंड अंचल के बक्सवाहा क्षेत्र के जंगलों में हीरे की खदानों के लिये सवा दो लाख से अधिक पेड़ों का सफाया होने जा रहा है। ये जंगल सैकड़ों सालों से प्रकृति ने इसलिए सुरक्षित रखे हैं ताकि हम मनुष्यों को साफ हवा मिल सके। वही प्राणवायु जिसके अभाव में अभी अभी हजारों लोगों ने तड़प तड़प कर दम तोड़ा है। और यह सिलसिला अभी थमा नहीं हैं।
सवाल यही है कि गंगा और यमुना में लाशें बहाकर या उनके किनारों को श्मशान में तब्दील कर हम क्या हासिल कर रहे हैं। बक्सवाहा जैसे जंगलों को काटकर क्या हम इस प्राकृतिक संपदा की भरपाई कर पाएंगे। मान लिया कि जंगल काटने के बाद वहां होने वाली खुदाई से हमें हीरे भी मिल जाएंगे लेकिन क्या ये हीरे हमारी प्राणवायु का विकल्प हो सकेंगे। हमें जमीन के भीतर खुदाई से हीरे मिल सकते हैं लेकिन उसके लिए जमीन के ऊपर जो विनाश हम करने जा रहे हैं उसकी भरपाई हम कभी नहीं कर पाएंगे।
और फिर आंखों के सामने तैर रही हाल ही की उन घटनाओं को हम कैसे भुला सकते हैं जहां तमाम हीरे मोती लिए बैठे लोग भी ऑक्सीजन न मिलने के कारण दम तोड़ बैठे। वैसे तो बात कहावत में है लेकिन इस स्थिति को बहुत ही अच्छी तरह परिभाषित करती है, कहावत है- हीरे को क्या चाटेंगे? हीरे चाटने का नतीजा क्या होता है यह सब जानते हैं। प्रकृति और पर्यावरण का विनाश करके क्या हम सचमुच चाटने के लिए ही हीरों की तलाश में हैं… पर्यावरण दिवस पर यह बात बहुत गंभीरता से सोचने की जरूरत है।(मध्यमत)
—————-
नोट- मध्यमत में प्रकाशित आलेखों का आप उपयोग कर सकते हैं। आग्रह यही है कि प्रकाशन के दौरान लेखक का नाम और अंत में मध्यमत की क्रेडिट लाइन अवश्य दें और प्रकाशित सामग्री की एक प्रति/लिंक हमें [email protected] पर प्रेषित कर दें।– संपादक