मुनमुन दत्ता की भाषा पर भांगड़ा

राकेश अचल

एक लोकप्रिय धारावाहिक की अभिनेत्री यदि जाने, अनजाने किसी जाति विशेष से जुड़े सम्बोधन का इस्तेमाल कर दे तो हमारी सोसायटी तिल का ताड़ बना लेती है। लेकिन दूसरी तरफ जब हमारे नेता जाति के आधार पर टिकिट देने से लेकर राष्ट्रपति चुनने तक के लिए जाति को आधार बनाते हैं तो सबको सांप सूंघ जाता है। समाज के इसी दोगले चरित्र की वजह से देश आगे नहीं बढ़ पा रहा है, आगे बढ़ने की फुरसत ही नहीं है किसी के पास। मैंने पिछले तीन महीने से चूंकि टीवी देखा नहीं है इसलिए मुझे पता नहीं की मुनमुन दत्ता ने किसके लिए क्या कह दिया? लेकिन आज जब पूरे मामले को खंगाला तो खोदा पहाड़ और उसमें से निकला एक मरा हुआ विवादों का चूहा।

कहते हैं कि टीवी सीरियल ‘तारक मेहता का उल्‍टा चश्‍मा’ फेम मुनमुन दत्ता को जातिसूचक शब्‍द का इस्‍तेमाल बहुत महंगा पड़ा है। एक्‍ट्रेस पर अब गिरफ्तारी की तलवार लटक रही है। मुनमुन के ख‍िलाफ हरियाणा में गैर जमानती धाराओं में अजा.जजा. एक्‍ट के तहत एफआईआर दर्ज हो गई है। उनके ख‍िलाफ देश के अलग-अलग हिस्सों में श‍िकायत दर्ज हो रही है। जालंधर में भी दलित संगठनों ने उनके खिलाफ पुलिस में शिकायत दी है और कार्रवाई नहीं किए जाने पर विरोध प्रदर्शन की चेतावनी दी है। ‘बबीता जी’ यानी मुनमुन दत्ता के खिलाफ नेशनल अलायंस फॉर शेड्यूल क्लास हयूमन राइट्स के संयोजक रजत कलसन ने श‍िकायत दी थी। इसी को आधार बनाकर थाना शहर हांसी की पुलिस ने एफआईआर दर्ज कर ली है।

मुनमुन दत्ता कोई बहुत बड़ी अभिनेत्री नहीं हैं लेकिन हिंदी पट्टी में उन्हें पहचाना जाता है। शिकायतकर्ता आजकल कोरोनाकाल में फुरसत में हैं इसलिए उन्होंने मुनमुन का इंस्ट्राग्राम पढ़ लिया। शिकायतकर्ता में साहस नहीं है कि वो देश में आग उगलने वाले किसी नेता के खिलाफ अदालत की शरण में जाएँ या किसी थाने का दरवाजा खुलवा लें। इंस्टाग्राम पर शेयर किए गए वीडियो में मुनमुन दत्ता ने कहा था कि उन्होंने मस्कारा, लिप टिंट और ब्लश लगाया है, क्योंकि वह यूट्यूब पर आने वाली हैं और अच्छी दिखना चाहती हैं। इसके बाद उन्होंने एक जाति का नाम लेकर कहा था कि वह उनकी तरह नहीं दिखना चाहतीं। मुनमुन दत्ता के इसी वीडियो पर बवाल मच गया है।

मुनमुन इस तरह के पचड़े में पड़ने वाली कोई पहली कलाकार नहीं हैं। इससे पहले भी कीकू जैसे हास्य कलाकार और दूसरे लोग भी इस तरह के विवादों में उलझ चुके हैं। मुनमुन ने भी इस मामले में माफी मांग ली है और इससे ज्यादा कुछ होना भी नहीं है, लेकिन तिल के ताड़ तो खड़े किये ही जाते रहेंगे। मुनमुन के प्रति मेरी सहानुभूति केवल इसलिए है क्योंकि वे एक प्रतिभाशाली अभिनेत्री हैं, मॉडल हैं। उनसे गलती होना थी सो हो गयी। वे नहीं जानतीं कि इस देश में लोग कितनी फुरसत में हैं।

जाति सूचक शब्द अपमान का कारण कब से बन गए ये जानने के लिए आपको इतिहास के कुछ पन्ने पलटने पड़ेंगे। जिस देश में काम को छोटा-बड़ा और जातिसूचक माना जाता हो वहां मुनमुन जैसों को तो मरना ही है। जागरण और नव जागरण के नाम पर ही ये सब होता है, जबकि जमाना बदल चुका है। मांस का व्यापार अब ब्राम्हणों के हाथ में हैं लेकिन उन्हें कोई कसाई नहीं कह सकता, हाँ कसाई को कसाई कहने से अपमानजनक स्थितियां बन सकती हैं। गांधी जी ने दलितों के लिए हरिजन शब्द का इस्तेमाल शुरू किया था। भाई लोगों को ये भी नहीं जांचा तो इस शब्द को बदलकर दलित कर दिया गया। फिर भी जब मन नहीं भरा तो इसी शब्द को अनुसूचित जाति/जनजाति कर दिया गया। सवाल ये है कि क्या सम्बोधन बदलने से हालात भी बदल गए हैं?

मेरे ख्याल से हमें इन्हें क्षुद्रताओं से आगे निकलना पडेगा। जाति हमारे विकास की, हमारी एकता की, हमारे राष्ट्रप्रेम की सबसे बड़ी बाधा है। भारत के शहरों में जाति भेद कम हुआ है, लेकिन शहरों की स्थितियों में बहुत ज्यादा अंतर नहीं आया है और इस अन्तर को इस तरह के बेसिर-पैर के विवाद बढ़ाते रहते हैं। मुनमुन ने जो किया, उसे वो नहीं करना चाहिए था लेकिन अब क्षमा याचना के बाद मुनमुन के साथ जो हो रहा है वो भी नहीं होना चाहिए था।

भारत जैसे देश में जहाँ आदमी तो आदमी मृत देहों को सम्मान हासिल नहीं है वहां जाति के नाम पर कानूनी मल्ल्युद्ध करना सिवाय मूर्खता के और क्या है? समाज के लिए लड़ना जरूरी है लेकिन इस तरह की लड़ाइयों से किसी समाज को कुछ हासिल नहीं हो सकता। हमारे समाज में कहावतें इतनी पुरानी हैं कि यदि आज आप उनका इस्तेमाल करें तो मुनमुन की तरह आरोपी बन जाएँ, लेकिन मैं इसे गलत मानता हूँ। अब कोई कहे कि ‘तेली का काम तमोली से’ नहीं करना चाहिए तो इसमें क्या बुरा है। या ‘धोबी का कुत्ता, घर का न घाट का’ कहने से किसका अपमान हो रहा है? या ‘हलुआ मिला न मांडे, दोऊ दीन से गए पांडे’ भी कहना खतरनाक हो सकता है।

मेरे अपने मित्र मंडल में अनेक अनुसूचित जाति/जनजाति के मित्र हैं, वे मुझे अक्सर पंडित कहते हैं, लेकिन मैं कभी बुरा नहीं मानता क्योंकि मैं जानता हूँ कि अव्‍वल तो मै पंडित हूँ नहीं और अगर किसी ने मुझे पंडित कह भी दिया तो इससे मेरी पहचान में न कोई कमी आने वाली है और न इजाफा होने वाला है। मैंने आजतक अपने किस साथी के लिए जातिसूचक शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। मुझे लगता है कि यदि कोई इस सबसे सहज नहीं है और आहत होता है तो इन शब्दों के इस्तेमाल से बचा जाना चाहिए। मुनमुन को भी बचना था लेकिन बेचारी को कहाँ पता था कि लोग उसे हवालात भेजकर ही संतोष का परम अनुभव करेंगे।

जो भी हो भाषा के इस्तेमाल के मामले में जितने हमारे देश के नेता हिंसक हैं उतनी मुनमुन नहीं है। कोई दूसरे लेखक या बिरादरी वाले नहीं हैं इसलिए आज के संक्रमणकाल में सभी को, पुलिस को भी, इस सबके प्रति सजग रहना चाहिए, तभी देश आगे बढ़ेगा, अन्यथा नौ दिन चले अढ़ाई कोस की बात हमारे ऊपर हमेशा लागू होती रहेगी। (मध्‍यमत)
डिस्‍क्‍लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं।
—————-
नोट- मध्‍यमत में प्रकाशित आलेखों का आप उपयोग कर सकते हैं। आग्रह यही है कि प्रकाशन के दौरान लेखक का नाम और अंत में मध्‍यमत की क्रेडिट लाइन अवश्‍य दें और प्रकाशित सामग्री की एक प्रति/लिंक हमें [email protected] पर प्रेषित कर दें।संपादक

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here