राकेश दुबे
कृषि प्रधान देश कहा जाने वाला भारत आज भी दुनिया का सबसे बड़ा खाद्य तेल का आयातक है। देश में आनुवांशिक फसलों की व्यावसायिक खेती की अनुमति को लेकर पिछले दो दशक से विभिन्न मंचों पर बहस जारी है। एक-दो मुकदमे भी देश के सर्वोच्च न्यायालय में लम्बित हैं। देश के अधिकांश पर्यावरणविद और कृषि विशेषज्ञ आनुवांशिक परिवर्तित खेती में फायदा कम, नुकसान अधिक मानते आए हैं। फिर भी सरकार ने इसके उत्पादन की मौन स्वीकृति दे दी। इसे विकसित करने वाले संस्थान ने प्रयोग के लिए बीज भी उपलब्ध करा दिया। विवाद होने के बाद भी यह खयाल नहीं रखा गया कि उत्पादन संबंधी प्रयोग खुले में करने के बजाय ग्रीन हाउस में किया जाए।
देश में पिछले बीस वर्षों से जीएम सरसों के पर्यावरण पर पड़ने वाले कुप्रभाव को लेकर विरोध हो रहा है। सन 2002 में भारत में इसके बीज की भारतीय किस्म वरुणा को पूर्वी यूरोप की किस्म अर्ली हीरा-2 से आनुवांशिक संरचना में परिवर्तन कर तैयार किया गया था। सन 2017 में भारत की जेनेटिक इंजीनियरिंग अनुमोदन समिति ने देश में इस जीएम सरसों की व्यावसायिक खेती करने की इजाजत दी।सुप्रीम कोर्ट में इससे पर्यावरणीय खतरों की आशंका को लेकर पर्यावरणविदों द्वारा दायर याचिका के बाद मामला अदालत में लंबित है।
देश के कृषि अनुसंधान केंद्रों और सरकार ने भी तब से लेकर अब तक इसे लेकर न तो बहुत अधिक प्रयोग कराए और न ही इसके संबंध में देश के किसानों और जानकारों से राय लेने की कोशिश की गई है। बल्कि एक बार फिर इसके पक्ष में यह कह कर व्यावसायिक अनुमति दे दी गई कि इस किस्म की खेती से देश में तिलहन के उत्पादन में पहले के मुकाबले तीस प्रतिशत की बढ़ोतरी हो जाएगी।
देश में 2020-21 में खाद्य तेल की खपत में सरसों तेल की हिस्सेदारी 14.1 प्रतिशत थी। 2021 में सरकार ने अकेले पाम और सूरजमुखी तेल के आयात पर उन्नीस अरब डालर की राशि खर्च की। केंद्र सरकार पर्दे के पीछे रह कर इस विवादित मुद्दे पर बहुत अधिक परिणामों को जाने बगैर इसकी व्यावसायिक खेती बढ़ाने में जल्दबाजी कर रही है।
देश के मध्यप्रदेश, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान,और उत्तर प्रदेश के लगभग पचहत्तर लाख हेक्टेयर कृषि क्षेत्र में सरसों की खेती हो रही है। साथ ही इस फसल के फूलों के माध्यम से देश के कुल शहद उत्पादन का साठ प्रतिशत तैयार हो रहा है। जलवायु परिवर्तन की वजह से विगत दो वर्षों में उत्तर भारत में समय पूर्व तेज गर्मी से गेहूं और दलहन का औसत उत्पादन घट रहा है। इसके चलते इस क्षेत्र का किसान कम समय में तैयार होने वाली सरसों की फसल में रुचि लेने लगा है।
भारत में प्रचलित बीजों के माध्यम से सरसों का उत्पादन प्रति हेक्टेयर एक हजार से बारह सौ किलो माना गया है। जबकि वैश्विक उत्पादन, जो कि आनुवांशिक बीजों से होता है, प्रति हेक्टेयर दो हजार से बाईस सौ किलोग्राम माना जाता है। देश का किसान पर्याप्त सिंचाई उपलब्धता और नई बीज किस्मों से अब प्रति हेक्टेयर अठारह सौ किलो तक उत्पादन लेने लगा है। जीएम सरसों की संरचना को शाकनाशियों के प्रति अत्यधिक सहनशील बनाया गया है, क्योंकि माना जाता है कि खर-पतवार के कारण सरसों फसल के उत्पादन में गिरावट आती है।
इस फसल से खर-पतवार को नष्ट करने के लिए ग्लूफोसिनेट अमोनिया समूह का उपयोग अत्यधिक मात्रा में किया जाता है, जो कि जीव, जीवन और पर्यावरण के लिए खतरनाक है। इसके इस्तेमाल से खेतों में काम करने वाले मजदूरों और जानवरों को स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां पैदा होती हैं। सरकार को इस पर भी विचार कर लेना चहिए।
बीटी कपास के परिणाम देश के सामने हैं। सरकारी आकड़ों पर गौर करें तो बीटी कपास की खेती से देश में कपास उत्पादन दस गुना बढ़ा है। मगर इसके विपरीत फसलों में इस्तेमाल होने वाले कीटनाशकों, उर्वरकों और खरपतवारनाशकों के अत्यधिक प्रयोग से किसानों की उत्पादन लागत कई गुना बढ़ गई है। देश में पहले के मुकाबले बीटी कपास में चालीस प्रतिशत अधिक कीटनाशकों का प्रयोग हो रहा है।
बीटी कपास के बीज के लिए किसान पूर्णतया बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर आश्रित हैं। बीटी कपास फसल पर देशी और प्राकृतिक कीटनाशक निष्प्रभावी हैं। इसलिए इनके लिए किसानों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के रसायनों पर पूरी तरह आश्रित रहना ही एकमात्र विकल्प है। बीटी कपास की फसलों में काम करने वाले देश के मजदूरों में त्वचा संबंधी रोग तेजी से उभर कर सामने आए हैं।
आनुवांशिक बीजों से पैदा होने वाली फसलों में पौध उत्पादन की क्षमता मात्र चालीस प्रतिशत तक होती है। इस स्थिति में किसान अपने बीज उत्पादन में अक्षम साबित होता है। उसे बीज के लिए पूरी तरह बाजार और बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर निर्भर रहना पड़ता है, जिससे खेती में उत्पादन लागत कई गुना बढ़ रही है।
पर्यावरणविदों की यह चिंता अकारण नहीं है कि खरपतवारनाशी के अत्यधिक उपयोग का असर मधुमक्खियों की प्रजनन क्षमता पर पड़ेगा। अन्य फसल मित्र कीट-पंतगे, जो अन्य फसलों के फूलों में परागण की मदद करते हैं, खरपतवारनाशी का इस्तेमाल उनके जीवन पर भी खतरा साबित होगा, जिससे अन्य फसलों की उत्पादन क्षमता भी प्रभावित होगी।(मध्यमत)
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