प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से जब 23 मार्च को ‘पाकिस्तान दिवस’ पर इमरान खान को शुभकामना संदेश भेजा गया था, तब काफी हल्ला मचा था। विपक्ष ने सवाल उठाया था कि एक तरफ तो पाकिस्तान विरोध का स्टैण्ड लिया जा रहा है दूसरी तरफ भारत में आतंकवाद फैलाने वाले पड़ोसी के साथ शुभकामनाओं और बधाई संदेशों का आदान-प्रदान हो रहा है। इस मामले में विवाद बढ़ने पर भारतीय विदेश मंत्रालय की ओर से सफाई दी गई थी कि इस तरह के संदेश प्रधानमंत्री की ओर से सामान्य शिष्टाचार के नाते भेजे जाते रहे हैं।
लेकिन अब एक नया सवाल खड़ा हो गया है। 27 मार्च को भारत द्वारा स्वदेशी तकनीक से विकसित की गई एंटी सेटेलाइट मिसाइल के जरिये अंतरिक्ष में एक सेटेलाइट को नष्ट करने संबंधी बड़ी वैज्ञानिक एवं तकनीकी उपलब्धि के बाद प्रधानमंत्री के राष्ट्र के नाम संबोधन को लेकर विपक्षी दलों ने आपत्ति जताई है। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता सीताराम येचुरी ने चुनाव आयोग को पत्र लिखकर, चुनाव की आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन का हवाला देते हुए इस मामले में कार्रवाई की मांग की है।
येचुरी के पत्र के बाद आयोग ने मामले की जांच के लिए टीम गठित की है। उस समिति की अंतिम रिपोर्ट का इंतजार है, लेकिन शुक्रवार को चुनाव आयोग के हवाले से ही मीडिया में इस आशय की खबरें आईं कि नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र के नाम जो संबोधन दिया था, उस बारे में आयोग को न तो कोई जानकारी दी गई थी और न ही आयोग से कोई पूर्व अनुमति ली गई थी।
इस मामले में आयोग क्या कदम उठाएगा यह कहना अभी इसलिए जल्दबाजी होगी क्योंकि ऐसा जांच समिति की अंतिम रिपोर्ट आने के बाद ही होगा। यह बात अलग है कि अब तक ऐसे ज्यादातर मामलों में, खासतौर से बड़े नेताओं के मामले में, आयोग ने कभी कोई सख्त कदम उठाया हो ऐसा देखने में नहीं आया है। आमतौर पर ऐसे प्रकरणों में सबंधित व्यक्ति या दल को भविष्य में ऐसा न करने की चेतावनी देकर मामला रफा दफा कर दिया जाता है। शुक्रवार को ही देर शाम मीडिया में इस आशय के संकेत देते हुए खबरें आने भी लगी हैं कि आयोग ने मोदी को क्लीन चिट दे दी है।
लेकिन दैनिक ट्रिब्यून की खबर के हवाले से सामने आया चुनाव आयोग के उपायुक्त का यह बयान गंभीरता से लिया जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री या उनके कार्यालय की ओर से राष्ट्र के नाम संबोधन को लेकर न तो कोई सूचना दी गई और न ही कोई अनुमति ली गई। अब एक तरफ तो सरकार पाकिस्तान को शुभकामना संदेश भेजे जाने जैसे मामले में ‘शिष्टाचार’ की दुहाई देती है और दूसरी तरफ चुनाव के चलते राष्ट्र के नाम संबोधन जैसे मामले में चुनाव आयोग को सूचना देने जैसा सामान्य शिष्टाचार भी नहीं निभाया जाता।
कहा जा सकता है कि यह प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार है कि वह देश से जुड़ी किसी महत्वपूर्ण बात पर कब और कैसे देशवासियों को संबोधित करें। यह भी तर्क दिया जा सकता है कि प्रधानमंत्री ने अपने उस संबोधन में न तो भाजपा के लिए वोट मांगे और न ही विपक्षी दलों की कोई आलोचना की। लेकिन इस सबके बावजूद क्या राजधर्म के पालन के चलते यह उचित नहीं होता कि चुनाव आयोग को उसकी सूचना तो दे दी जाती। अनुमति लेने में कद छोटा होने की आशंका थी तो भी आयोग को बताया तो जा ही सकता था कि प्रधानमंत्री राष्ट्र के नाम एक संदेश देने जा रहे हैं।
और उस संदेश में ऐसा क्या था जिसे चुनाव आयोग से भी छिपाया जाना जरूरी समझा गया। वह तो देश की एक महान उपलब्धि ही थी ना। यदि आयोग के संज्ञान में यह बात ला भी दी गई होती तो उससे देश की सुरक्षा और संप्रभुता को ऐसा कौनसा खतरा पैदा हो जाना था। विडंबना देखिए कि ‘ट्विटर’ को खबर थी, चुनाव आयोग को नहीं। यदि आयोग से अनुमति लेकर ऐसा किया गया होता तो प्रधानमंत्री और चुनाव आयोग दोनों संस्थाओं की गरिमा और उनका सम्मान भी बरकरार रहता।
अब जो हुआ है उससे ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री के स्तर पर ही संवैधानिक संस्थाओं की साख को ताक पर रखा जा रहा है। ऐसा नहीं है कि यह सब पहली बार हुआ हो। याद कीजिए नोटबंदी के समय भी यही हुआ था। उस समय भी बातें सामने आई थीं कि इतने बड़े फैसले की खबर केबिनेट में किसी को नहीं थी। चलिए वो तो ऐसा मामला था जिसमें बात के लीक हो जाने पर फैसले का क्रियान्वयन ही असफल हो सकता था। लेकिन भारत की महान वैज्ञानिक उपलब्धि, जो हासिल भी कर ली गई, उसके बारे में देशवासियों से संवाद करने से पहले उसकी सूचना चुनाव आयोग से साझा करने में कौनसी आफत टूट पड़नी थी।
लेकिन ऐसा लगता है कि सरकारें और राजनीतिक दल पूरी चुनाव प्रक्रिया को कॉरपोरेट वॉर की तरह चला रहे हैं, जहां सूचनाओं को गोपनीय रखने या उन्हें उजागर करने का समय और तरीका तय करने को रणनीतिक तौर पर हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। यह माहौल राजनीति पर बाजार के असर की ओर संकेत करता है। संवैधानिक तौर तरीकों और सत्ता संचालन के सामान्य शिष्टाचार के निर्वाह जैसी औपचारिकताओं के लिए इस बाजारोन्मुखी व्यवस्था में शायद कोई जगह नहीं बची है।
शुक्रवार को ऐसा ही एक और कांड हुआ। पता नहीं कहां से रेलवे में सप्लाई किए जाने वाले चाय के पेपर कप में चौकीदार आकर खड़ा हो गया। काठगोदाम शताब्दी एक्सप्रेस में यात्रियों को ‘मैं भी चौकीदार’ लिखे कप में चाय दी गई। जब शिकायत हुई तो रेलवे ने कप वापस ले लिया। हालांकि चुनाव आयोग ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है।
उधर आईआरसीटीसी के प्रवक्ता ने कहा कि ’मैं भी चौकीदार’ लेबल वाले कपों में चाय दिए जाने संबंधी खबरों की जांच की गई। यह आईआरसीटीसी की पूर्व मंजूरी के बिना किया गया। ड्यूटी में लापरवाही बरतने को लेकर सुपरवाइजर/पैंट्री प्रभारियों से स्पष्टीकरण मांगा गया है और सेवा प्रदाता पर एक लाख रुपये का जुर्माना लगाते हुए उसे कारण बताओ नोटिस भी जारी किया गया है।
प्रश्न सिर्फ इतना है कि जब कोई स्लोगन किसी राजनीतिक पार्टी के चुनाव प्रचार का हिस्सा बना हुआ हो, उसे रेलवे जैसे सरकारी मंत्रालय में कोई बिना अनुमति के कैसे इस्तेमाल कर सकता है? कहीं कोई देखने सुनने वाला है या नहीं… या फिर हर कोई यह मानकर चल रहा है कि उसे किसी भी कानूनी/गैरकानूनी बात के लिए किसी की अनुमति लेने की जरूरत ही क्या है?