खबरों पर घटता भरोसा, राजनीति के लिए चांदी है

वैसे तो भारत में चुनाव के दौरान सोशल मीडिया का आक्रामक इस्‍तेमाल 2014 में 16 वीं लोकसभा के लिए हुए मतदान के दौरान ही देखने को मिल गया था। उस समय भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्‍मीदवार नरेंद्र मोदी ने मीडिया और खासकर सोशल मीडिया का जिस तरह हमलावर इस्‍तेमाल किया उसने उनके विरोधियों को चकरघिन्‍नी कर दिया था। सोशल मीडिया के उस तेजाबी माहौल ने मोदी विरोधियों की संभावनाओं को लगभग जला डाला था।

इस बार यानी 2019 में 17वीं लोकसभा के लिए हो रहे चुनाव में सोशल मीडिया का यह तेजाब और मारक हो गया है। 2014 में यह साधारण सल्‍फ्यूरिक एसिड था तो इस चुनाव में यह एक्‍वारेजिया बन गया है जिसमें ज्‍यादातर धातुओं को गला डालने की क्षमता रखने वाले हाइड्रोक्‍लोरिक और नाइट्रिक एसिड दोनों शामिल हैं। और गंभीर बात यह है कि यह तेजाब इस बार सीधा चेहरों पर डाला जा रहा है।

मीडिया और खासकर सोशल मीडिया के तेजाबी इस्‍तेमाल के इस दौर में एक रिपोर्ट आई है जिसमें न सिर्फ चुनाव के लिहाज से बल्कि आने वाले दिनों में पूरे भारतीय समाज के आचार-व्‍यवहार में बदलाव की दृष्टि से बहुत गंभीर संकेत सामने आए हैं। यह सर्वे दुनिया की जानी मानी समाचार एजेंसी रॉयटर्स के इंस्‍टीट्यूट फॉर द स्‍टडी ऑफ जर्नलिज्‍म और आक्‍सफोर्ड यूनिवर्सिटी ने मिलकर किया है। भारत में इस सर्वे को अंजाम देने में ‘द हिंदू’, ‘इंडियन एक्सप्रेस’,‘द क्विंट’ और ‘प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया’ जैसे मीडिया संस्‍थानों ने सहयोग किया।

सर्वे रिपोर्ट में जो सबसे महत्‍वपूर्ण बात सामने आई है उसके अनुसार, 35 वर्ष से कम आयु वर्ग के 56 प्रतिशत युवा, खबरों के प्राथमिक स्रोत के लिए ऑनलाइन माध्‍यम का उपयोग कर रहे हैं, जबकि जानकारी के प्राथमिक स्रोत के रूप में प्रिंट मीडिया का इस्‍तेमाल करने वाले युवाओं की संख्‍या सिर्फ 16 फीसदी ही है। ऑनलाइन में भी सबसे ज्‍यादा इस्‍तेमाल सोशल मीडिया का हो रहा है। 35 वर्ष से अधिक आयु वर्ग के लोग खबरों के स्रोत के लिए मिलेजुले माध्‍यमों का इस्‍तेमाल करते हैं।

भारत में सोशल मीडिया प्‍लेटफार्म्स में भी वाट्सएप की सबसे अधिक भागीदारी है और प्राइवेट मैसेजिंग एप के रूप में 82 फीसदी लोग इसीका इस्‍तेमाल कर रहे हैं। जबकि फेसबुक का इस्‍तेमाल करने वालों की संख्‍या 75 फीसदी है। इन दोनों ही सोशल मीडिया प्‍लेटफार्म्स को बराबरी से, 52 फीसदी लोग, खबरों के स्रोत के रूप में भी इस्‍तेमाल कर रहे हैं।

सर्वे में जिन लोगों से बात की गई उनमें से 36 फीसदी का कहना था कि उन्‍हें कुल मिलाकर खबरों पर भरोसा कम ही होता है। जिन खबरों का वे खुद उपयोग करते हैं उन पर भी भरोसे का प्रतिशत 39 ही है। खबरों पर भरोसे की यह स्थिति भारत में अन्‍य देशों की तुलना में कम है। एक ध्‍यान देने वाली बात यह भी है कि भारत के लोगों का अन्‍य देशों की तुलना में ऑनलाइन सर्च या सोशल मीडिया के जरिये मिलने वाली सूचनाओं पर अपेक्षाकृत ज्‍यादा भरोसा है। भारत में ऑनलाइन सूचनाओं पर 45 फीसदी और सोशल मीडिया पर 34 फीसदी लोग भरोसा करते हैं।

यह घर बैठे सूचनाएं पटके जाने का जमाना है और सर्वे के दौरान एक महत्‍वपूर्ण बात यह भी सामने आई कि कई सारे लोग इस बात के हिमायती हैं कि उन्‍हें और अधिक व्‍यक्तिगत (पर्सनलाइज्‍ड) न्‍यूज अलर्ट मिलने चाहिए। यह राय तब है जब 12 प्रतिशत लोग पहले से ही ऑनलाइन न्‍यूज अलर्ट को खबरों के मुख्‍य स्रोत के रूप में इस्‍तेमाल कर रहे हैं। जहां तक ऑनलाइन खबरों के लिए भुगतान करने का सवाल है 31 फीसदी लोगों का कहना था कि वे कुछ भुगतान करना चाहते हैं जबकि 9 फीसदी ने कहा कि अगले साल से खबरों के लिए वे कुछ न कुछ भुगतान जरूर करेंगे।

यह रिपोर्ट भारत में पत्रकारिता और खबरों व सूचनाओं की दुनिया के सामने भविष्‍य में आने वाले गंभीर खतरों की तरफ भी इशारा करती है। इसके मुताबिक भारतीय लोग बड़ी तेजी से डिजिटल माध्‍यमों,मोबाइल और सोशल मीडिया को अपना रहे हैं और जाहिर है उनकी इस बढ़ती रुचि के चलते विज्ञापनदाता भी इन माध्‍यमों पर आने को मजबूर हुए हैं।

रिपोर्ट की सह-लेखिका रॉस्‍मस के. नील्‍सन के मुताबिक विज्ञापनदाताओं के इस रुख के चलते भारतीय न्‍यूज मीडिया को अब अपने खर्च पूरे करने के लिए सिर्फ विज्ञापनों पर निर्भरता खत्‍म करनी होगी। इसके लिए उन्‍हें ऑनलाइन न्‍यूज का एक टिकाऊ मॉडल विकसित करना होगा। आज जो स्थिति बन रही है उसके चलते मीडिया के सामने खुद को बचाए रखने के लिए जो विकल्‍प बचते हैं उनमें मानव संसाधन सहित अन्‍य ढांचे में कटौती, सरकारी विज्ञापनों पर और अधिक निर्भरता या फिर मीडिया घराना मालिकों की ओर से और अधिक सबसिडी की दरकार जैसे उपाय ही बचते हैं। लेकिन गंभीर बात ये है कि ये सारे उपाय अंतत: संपादकीय आजादी को कम करने वाले और प्रोफेशनल पत्रकारिता को जोखिम में डालने वाले हैं।

रिपोर्ट के ही एक और को-ऑथर तबरेज अहमद नियाजी का कहना है कि जो निष्‍कर्ष निकले हैं वे इस लिहाज से बहुत महत्‍वपूर्ण है कि भारत में अंग्रेजीभाषी मध्‍यम वर्ग विभिन्‍न कामों/जरूरतों के लिए डिजिटल माध्‍यम का काफी उपयोग कर रहा है। वे खबरों के अलावा खुद को अभिव्‍यक्‍त करने के लिए भी ऑनलाइन माध्‍यमों का इस्‍तेमाल कर रहे हैं।

नियाजी के अनुसार भारत में जिस तरह से मोबाइल इंटरनेट कनेक्‍शनों में बढ़ोतरी हो रही है वह यहां की राजनीति पर भी गहरा असर डालेगी क्‍योंकि राजनीतिक दल और नेता भी लोगों को इन्‍हीं माध्‍यमों के जरिए टारगेट करेंगे। रिपोर्ट के ही मुताबिक भारत दुनिया के उन देशों में है जहां खबर के लिए मोबाइल प्राथमिक स्रोत बनता जा रहा है। यहां 68 फीसदी लोग अपने स्‍मार्ट फोन को खबरों का स्रोत मानते हैं। लोग खबरों के डायरेक्‍ट सोर्स पर जाने के बजाय ऑनलाइन सर्च (32 फीसदी) और सोशल मीडिया (24 फीसदी) को तवज्‍जो दे रहे हैं। डायरेक्‍ट सोर्स पर जाने वालों की संख्‍या 18 फीसदी ही है।

हो सकता है रिपोर्ट के इतने सारे आंकड़े आपको उलझा दें। लेकिन लब्‍बोलुआब यह है कि खबरों के परंपरागत और अपेक्षाकृत विश्‍वसनीय स्रोतों के प्रति लोगों का घटता रुझान और सोशल मीडिया जैसे अविश्‍वसनीय एवं घातक स्रोतो के प्रति बढ़ती रुचि केवल पत्रकारिता के लिए ही नहीं बल्कि पूरे समाज के लिए घातक है। हां, राजनीति के लिए इस माहौल में चांदी ही चांदी है और इसीलिए चुनाव में वे यह चांदी जमकर कूट भी रहे हैं।

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