भारत माता की जय करने लायक़ तो बनें हम सब!

रमाशंकर सिंह

चमचे और अंधभक्त पैदल सिपाही होते हैं, हर तरह से पैदल; बुद्धि से कुछ ज्यादा ही। बस उनके दिल दिमाग में यह रोपित कर दिया जाता है कि वे देश की बड़ी भारी सेवा कर रहे हैं कुप्रचार कर। जब पार्टी या नेता सत्ता में आते हैं तो व्यावहारिक नीति बनती है और उस पर अमल शुरू होता है। तब ये पैदल सिपाही किसी दूसरे काम में लगा दिये जाते हैं और ये आँखों पर पट्टी बांधे कोल्हू के बैल की तरह उसमें जुट जाते हैं।

नीचे के आँकड़े पढि़ये। कोई भी सरकार अपने व्यापार आयात निर्यात को इस प्रकार निर्धारित नहीं कर सकती कि उसे बहुत बड़ा आर्थिक नुक़सान हो।

इन सात देशों के अलावा भी कई देश हैं जिनसे ज़रूरत की चीजें हम मंगाते हैं और उन्हें देते भी हैं। अच्छी व्यापारिक नीति वही मानी जाती है जिसमें निर्यात व आयात में संतुलन बना रहे। चीन से हमारा आयात ज़्यादा है और निर्यात कम इसलिये कि ऐसी कोई चीज़ हम कम क़ीमत पर नहीं बना रहे जिसे चीन हमसे ख़रीदे। फिर यह भी ध्यान रखिये कि भारत से कुल व्यापार चीन का मात्र तीन प्रतिशत ही है।

अब आइये इस बात पर कि भारत चीन युद्ध होगा कि नहीं। बिलकुल नहीं होगा, चीन से तो छोड़िये, पाकिस्तान से भी अब नहीं होगा और न ही नेपाल से हो सकता है। इसलिये नहीं कि भारत कमजोर है, पर इसलिये कि युद्ध की क़ीमत इतनी ज़्यादा है कि विकासशील अर्थव्यवस्थायें हर सूरत में युद्ध को टालेंगी जब तक कि कोई विक्षिप्त व्यक्ति ही इन सब देशों में सत्तासीन न हो जाये।

सीमा पर ये सब चलता रहेगा, कभी उनके मार दिये कभी हमारे। यह वैश्विक कूटनीति में दबाव बनाने की एक रणनीति है कि सीमायें गर्म बनी रहें और हर देश की जनता युद्ध के नाम पर देशभक्ति से लबालब रहे एवं स्थानीय समस्याओं की बात ही न उठे। चीन अलोकतांत्रिक देश है और कभी न कभी वहॉं जनअंसतोष की आग भड़केगी ही। जब जब कुछ ऐसे संकेत मिलेंगे, चीन भारत की ओर अपने टैंक लाकर खड़े कर देगा। खड़े भर करेगा, चलायेगा कभी नहीं।

भारत की सरकार ने पिछले पॉंच बरसों में अपने सभी पड़ोसियों से अब तक के सबसे ख़राब रिश्ते बनाये हैं जिससे सीमाओं पर फ़ौजी खर्चा बढ़ता ही जायेगा। बांग्लादेश, श्रीलंका, मालद्वीप, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, चीन, नेपाल, म्‍यांमार सबके सब भारत से छिटके हुये हैं। यानी हर ओर से हम सुरक्षित गारंटी नहीं मान सकते। ये छोटे देश हैं और चीन ने अगले कुछ बरसों में सब जगह अपने अड्डे बना लेने हैं या बना चुका है।

मोदी जी जब पाकिस्तान का नाम लेकर चुनाव जीत जाते हैं तो पाकिस्तान से लड़ने की ज़रूरत क्या है? छुटपुट धॉंय धूं होती रहेगी और आगामी चुनाव भी जीतते रहेंगे। पाकिस्तान को भी फ़ायदा है और नेपाल को भी, वहां की पार्टियां बड़ी शक्ति भारत का नाम लेकर चुनाव में फ़ायदा लेती रहेंगी।

अच्छा ख़ासा देश आगे बढ़ रहा था 7.5 फीसदी की औसत दर से, सबसे जवान मुल्क था दुनिया में। सिर्फ बेरोज़गारी पर ध्यान देते तो युवाओं के कौशल व परिश्रम से देश आगे बढ़ गया होता। राजनीतिक परिवर्तन होकर भी वही सर्वमान्य नीतियों पर ही चलते रहते तो भी सब कुछ ठीकठाक बना रहता और बीस साल में हम चीन को टक्कर देने की हालत में आ गये होते। हालांकि परिवर्तन करने के बहुत क्षेत्र थे जिससे रफ़्तार भी बढ़ती और दिशा भी सही होती।

आप खुद ही सोचिये कि आर्थिक सामाजिक नीति में क्या कोई परिवर्तन किया? सिवाय हिंदू मुसलमान के। क्या ज़रूरत थी? क्या ज़रूरत थी नोटबंदी की? चलती हुई अर्थव्यवस्था को मूर्खों की सलाह से या अपने अहंकारी निर्णय से टंगड़ी मार कर ऐसा गिराया कि आज तक नहीं उठ पाई? फिर ग़लत टैक्स नीति। और फिर राष्ट्रीय विखंडन? और फिर ग़लतियों के लगातार सिलसिले जो आज भी जारी है।

देश ज़रूरी है, राष्ट्र की एकता महत्वपूर्ण है।

प्रधानमंत्री आये और गये।

प्रधानमंत्री आयेंगे और जायेंगे

भारतवर्ष की महिमा पर आँच न आये, इस पर गंभीर चिंतन मनन से देश बनता है, नारेबाज़ी से नहीं। गालीगलौज ट्रोल से नहीं। इन चमचों और अंधभक्तों की गिनती भी कभी कहीं आज तक हुई है?

सोचिये और जो प्रश्नाकुल असहमत नागरिक हैं उन्हें गले लगा कर धन्यवाद दीजिये कि वे देश के प्रति चिंतित रहते हैं। जैसे कभी कोई प्रधानमंत्री संसद में आज से सत्तर पैंसठ साल पहले प्रतिपक्षी को गले लगाकर कहता था कि मैं कामना करता हूं कि तुम प्रधानमंत्री बनो। जबकि असहमत प्रतिपक्षी की सांसद संख्या हाथ पर गिनने लायक़ ही होती थी।

भारत माता की जय करने लायक़ तो बनें हम सब!

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टीम मध्‍यमत

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