दयाशंकर मिश्र
हम घर का कचरा बड़े ध्यान से साफ करते हैं। हर रोज करते हैं। शरीर का मैल भी रोज दूर करने की कोशिश होती है। लेकिन इस साफ-सफाई की प्रक्रिया में मन कहां है। मन में हर दिन, हर पल कचरा जमता रहता, काई जमती है। इस कचरे और काई पर हमारा ध्यान नहीं जाता। सबके जैसा होना सरल है। इसमें कुछ सहना नहीं होता। लेकिन अगर आप सबके जैसा नहीं होने का रास्ता चुनते हैं, तो मुश्किल आना सहज है।
सुशांत सिंह के जाने के बाद लोग बॉलीवुड में दर्द और संघर्ष को लेकर चिंतित हैं। मेरे ख्याल में यह बहुत सतही चिंता है। बाहर-बाहर की चिंता है। जहां जितना संघर्ष है, उतनी ही लोकप्रियता है। हमारी मनोदशा स्थिर नहीं है। हमें हमेशा किसी ना किसी को दोष देने के लिए चुनना ही पड़ता है।
हमें इस बात को समझना होगा कि सुशांत ने जब मुंबई में बिना किसी परिवार और विरासत के ठोस जगह बना ली थी, तब तो हम सब ने उसकी सराहना की। कभी इस तरह बातें नहीं कीं। आज उसके दमित मन के कारण लिए गए फैसले का सारा दोष बॉलीवुड को कैसे दिया जा सकता है। जो इंडस्ट्री बाहर से आए अपरिचित के लिए इतने कम समय में इतनी बड़ी जगह बना दे, उसके प्रति यह कठोरता चीज़ों को देखने की हमारी दृष्टि में कमी को ही बताती है।
मार्क मैनुअल, फिल्म इंडस्ट्री को कवर करने वाले वरिष्ठ पत्रकार, लेखक हैं। उन्होंने लिखा- ‘एम एस धोनी: द अनटोल्ड स्टोरी’ फिल्म के लिए सुशांत का चयन केवल पंद्रह मिनट के अंदर कर लिया गया था। तब यही इंडस्ट्री थी। ऐसा क्यों होता है कि हम कहीं चुने पर सारा श्रेय अपनी प्रतिभा को देते हैं और नहीं चुने जाने पर दुनिया में कमी गिनाने लगते हैं। सारी चीज़ों का केंद्र केवल करण जौहर नहीं हो सकते। मरहूम इरफान खान, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, पंकज त्रिपाठी और मनोज बाजपेयी ने कितने साल तक किस तरह काम करके अपनी जगह बनाई। उतना संघर्ष तो सुशांत के हिस्से नहीं गया।
आपको क्या लगता है आईटी, डॉक्टरी, इंजीनियरिंग, मीडिया में उतने ही अवसर हैं, जितने किसी दूसरी इंडस्ट्री में।
जीवन का कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं जहां प्रतिस्पर्धा आसान हो। हर जगह मुकाबला बहुत ही कठोरता से लड़ा जा रहा है। सुशांत की आत्महत्या अपने आसपास चीज़ों को नहीं संभाल पाने और नकारात्मकता के अपने ऊपर हावी होते जाने की कहानी है। संघर्ष मुश्किल नहीं होता, उससे कठिन है कामयाबी को सहना। हम खुद में इतने डूब जाते हैं कि अकेले हो जाते हैं। सफलता आते ही सहजता, प्रेम, साथ छूटने लगने हैं। सारे रास्ते बंद हो जाएं फिर भी पगडंडियों में यकीन रखना चाहिए। वहां जीवन के लिए पर्याप्त खुशबू है।
मन का कचरा दो तरह से इकट्ठा होता है। पहला, खुद से इतनी अपेक्षा कि आशा से अधिक निराशा हाथ लगती है। जीवन में बहुत कुछ हमारे नियंत्रण में नहीं है। थोड़ी सी कामयाबी मिलते ही हम इसे भूल जाते हैं। हमें लगता है हम सब कुछ नियंत्रित कर सकते हैं। सब कुछ अपने हिसाब से ‘बना’ सकते हैं। जबकि यह सच नहीं। पत्ते, बिना पेड़ की सहमति के कुछ नहीं कर सकते। जब पेड़ हवा में तालियां बजाता है, उसे भी वैसा ही करना होता है। जब पेड़ आराम करता है तब कोई पत्ता चाहकर भी गीत नहीं गा सकता। यह तो तभी संभव है जब पत्ता पेड़ से अलग होकर अपने स्वतंत्र अस्तित्व के लिए संघर्ष करे। अगर पत्ते को अपनी मर्जी से जीना है तो उसे पेड़ की सुविधा छोड़नी होगी। वह सुरक्षा की शिकायत नहीं कर सकता। उसे जोखिम तो उठाना ही पड़ेगा।
मन में कचरे का दूसरा बड़ा कारण है खुद को माफ़ न करना। हर चीज़ के लिए खुद को जिम्मेदार समझना। हमें लगता है जिंदगी में जो भी उथल-पुथल, निराशा, असफलता आई, उसके लिए केवल हम ही जिम्मेदार हैं। ऐसा नहीं है। यही निराशा का केंद्र है। इससे बचिए। रामायण में सीता हरण के लिए केवल राम जिम्मेदार नहीं हैं। लक्ष्मण भी नहीं। न ही सीता। रावण के बिना यह कैसे संभव होता। इसलिए कुछ घटने में बहुत सारे लोगों की भूमिका होती है। विशेषकर असफलता में। हम अकेले सफल तो हो सकते हैं, लेकिन असफल नहीं। हमें असफल बनाने वाले बहुत से लोग होते हैं। सबके लिए खुद को जिम्मेदार मत मानिए। हमेशा याद रखिए, दोहराते रहिए, जिंदगी मुश्किल है लेकिन असंभव नहीं…
शुभकामना सहित…
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